अहंकार की लीला



अहंकार की लीला बड़ी अनोखी,
हर दिल में छिपी उसकी जोखी।
वह चाहता है सबकी नजरें,
खुद को देखे हर एक नजरें।

दूसरों को प्रभावित करने की चाह,
मन में बसती है उसकी राह।
नाम, रूप, गांव का खेल,
इनसे सजाता है वह अपना मेल।

मैं सोचता हूं, क्या मेरा नाम,
संसार के हिस्से का है यह काम।
क्या मेरे गांव की मिट्टी का रंग,
मेरे होने का है कोई संग?

साधु आए, कहे मेरा भेद,
मेरा नाम, मेरा पता, मेरे देश।
पर सच में क्या उसका कुछ लेना,
उसकी आत्मा में है क्या जीना?

अहंकार बना पानी पर लकीर,
क्षण में मिटा, फिर उभरा अधीर।
दस हजार की भीड़ अगर मुझे माने,
या दस करोड़, अहंकार को भाने।

पर मैं पूछता हूं, इससे क्या होगा,
मन का शून्य कभी ना भरेगा।
जो दूसरे को देखे और माने,
क्या वह अपने भीतर झांके?

ध्यान का दीप जलाने से दूर,
अहंकार का अंधेरा है भरपूर।
वह चाहता है दुनिया का केंद्र बने,
पर खुद को देखे, तो अंतर्मन जले।

सत्य यह है, आत्मा न मौन,
न किसी को देखे, न किसी से छीन।
वह निराकार, न रूप, न नाम,
संसार के बंधनों से है वह परे।

अज्ञानियों की भीड़ को देखो,
अहंकार की आग में बहको।
राजनीति की सीढ़ियां चढ़ती है,
धर्म में भी यह अपना जाल बुनती है।

साधु जो साधु न रहे,
अहंकार के जाल में फंस गए।
नाम, पता, और गांव का खेल,
इनसे वह साधु बनाते मेल।

परंतु ध्यान की राह है अलग,
जहां न ध्यान और न कोई युग।
वहां सब शून्य है, सब मौन,
अहंकार का खेल वहां शिथिल।

तो मैं कहता हूं, देखो भीतर,
अहंकार को जानो, यह है जहर।
जो आत्मस्थ हो, वह मौन रहे,
न दूसरों को देखे, न कुछ कहे।

नजरें मोड़ो, स्वयं को जानो,
अहंकार की जड़ को पहचानो।
क्योंकि जब तक यह खेल है जारी,
शांति नहीं मिलेगी तुम्हारी आत्मा प्यारी।


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