घूंघट उतारते, बस वस्त्रों को समझ।
परंतु न मर्म, न चेतना की गहराई,
सिर्फ शरीर की परतों की छाई।
कभी सोचा है क्या, ये सब क्या है?
देह दिख जाए, फिर भी चेतना का क्या है?
जैसे सुंदर स्त्री पर गंदे हाथों का वार,
विज्ञान भी तो करता है वही विचार।
आत्मा को न पा सका, शरीर में खोकर,
हर खोज में वह दूर है, कहीं और।
घूंघट की परतें, लाज से भी गहरी,
उसके भीतर है सत्य, वही है सच्ची तहरीर।
विज्ञान की चेष्टा में, हिंसा का रूप,
न प्रकृति को समझा, न पाया उसका स्वरूप।
शरीर से पार, आत्मा का खेल,
नारी की मर्म को समझो, तब ही होगा खेल।
कभी अपने भीतर की ओर मुड़ो तुम,
तब पाओगे सत्य का अलौकिक गुम।
विज्ञान नहीं, प्रेम से ही खुलती राह,
जहां छिपा है परमात्मा का सच्चा पहरा।
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