मैंने देखा है,
लोग अपने धर्म को ढोते हुए,
जैसे बांस का टूटा टुकड़ा,
जो किसी तेज़ हवा में काँप उठे।
क्यों ऐसा धर्म?
क्यों इतना लचर विश्वास,
जो चोट की हल्की सी भनक से गिर जाए?
क्या यह धर्म है?
या बस उधार के शब्द,
जो बिना जड़ के, हवा में झूलते हैं?
मैंने सुना है,
कोई अदालत में जाकर कहता है,
"मुझे चोट पहुँची है,
मेरे धार्मिक भाव को ठेस लगी है।"
मैं पूछता हूँ,
ऐसा कमजोर भाव तुम रखते क्यों हो?
क्यों नहीं बनाते अपने भीतर
एक धर्म, जो पहाड़ जैसा अडिग हो?
जो आग से भी गुजर जाए,
लेकिन राख न हो।
मेरा धर्म मेरा अनुभव है।
कोई चाहे लाख कोशिश कर ले,
उसे चोट कैसे पहुँचा सकेगा?
पर मैंने उन्हें देखा है,
जो उधार की बातों पर
महल खड़े कर लेते हैं।
रेत पर खींची लकीरों को
स्थायी मान बैठते हैं।
और जब पहली लहर आती है,
तो उनका धर्म, उनका विश्वास,
ढह जाता है।
ओ दुनिया के भ्रमित पथिक!
धर्म को उधार मत लो,
धर्म को खोजो।
अपने भीतर उतरकर,
उस अनुभव को पाओ,
जो किसी धक्के से नहीं हिलता।
उस सत्य को पकड़ो,
जो चोट खाकर और मजबूत होता है।
मैं तो ढूँढता हूँ उस धक्के को,
जो मेरे धर्म को गिरा सके।
मैं पुकारता हूँ उस चोट को,
जो मेरे विश्वास को डिगा सके।
लेकिन मुझे पता है,
कोई ऐसा नहीं कर सकता,
क्योंकि मेरा धर्म मेरा है।
यह किसी गुरुमंत्र का उपदेश नहीं,
यह मेरे अनुभव का सत्य है।
तो क्यों न तुम भी
अपने भीतर खोजो वह शक्ति,
जो किसी भी चुनौती को
मुस्कुराकर स्वीकार कर सके?
क्यों न तुम बनाओ
एक ऐसा धर्म,
जो सिर्फ तुम्हारा हो,
जो चोट खाकर भी
अडिग खड़ा रहे,
जैसे पहाड़,
जैसे वज्र।
क्यों रेत पर महल बनाना?
जब चट्टानों पर इमारतें खड़ी की जा सकती हैं।
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