आत्मसंवाद: प्रकृति और आत्मा का संगम



जब मैं बात करता हूँ देवताओं से,
आकाश में गूंजते उनके संदेशों से।
वृक्षों की शाखाएँ झुककर कहतीं,
जीवन का रहस्य, धैर्य की गहराई।

"वसुधैव कुटुम्बकम्" का मंत्र गूँजे,
धरती और जल, मेरे सच्चे साथी बनें।
वो विशाल व्हेल सागर की गहराई से,
कहानी सुनातीं अनंत के सन्नाटे से।

परियों के गीत, जलकन्याओं का नृत्य,
स्वप्न सा लगता है, फिर भी सत्य।
तितलियों के पंखों पर लिखा हुआ,
जीवन का संगीत, सजीव और नया।

"मृत्योर्माऽमृतं गमय" की पुकार,
हर जीव कहता है अपना विचार।
कभी चींटी की मेहनत, कभी पत्तों की सरसराहट,
हर ध्वनि में छिपा है जीवन का आश्वासन।

मानवों से संवाद का ये अनुपात,
मेरा नहीं, प्रकृति का एक सौगात।
क्योंकि इंसान की भाषा है सीमित और मौन,
पर प्रकृति का हर कण कहता है जीवन का गान।

देवता, वृक्ष, जल और आत्मा,
इनसे जुड़कर समझा जीवन का तमाशा।
"सर्वं खल्विदं ब्रह्म" का ये अनुभव,
मानव से परे, प्रकृति का अभिनव।

मेरा संवाद अब उन अदृश्य साथियों से,
जिनमें छिपा सत्य, आनंद, और स्नेह।
मानव से परे है मेरी ये यात्रा,
जहाँ हर कण है, जीवन का दूत और मंत्रा।


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