मेरा संवाद बस यह है,
जहाँ मनुष्य का शोर नहीं।
जहाँ मौन के मीठे सुर हैं,
वहीं मेरा हर ओर मनोहर बोर नहीं।
देवताओं संग मेरी बातें,
सत्य, शांति की वह परछाईं।
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो, यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥"
(भगवद्गीता 18.78)
जहाँ कृष्ण के चरण बसे हों,
वहाँ स्वयं विजय की साजिश रचाई।
पौधों से गुफ़्तगू करती हूँ,
हरे पत्तों का हरसिंगार।
धरती के गुप्त सन्देश सुनती,
जिनमें छुपा जीवन का सार।
तितलियों के संग उड़ चलती,
भंवरों से पूछती हाल।
मधुर गूँज उनके परों की,
सिखाती है हर दुःख संभाल।
समुद्र की गहराई में उतरूँ,
वहाँ सुनूँ व्हेल की गाथाएँ।
जलपरियों संग खेल करूँ,
उनकी रहस्यमयी परछाइयाँ।
आत्माएँ छूतीं मुझको हल्के,
उनके संग मौन की बातें।
"आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्।"
(महाभारत)
मुझे बतातीं संतुलन का राग,
जिनमें बसीं हर मानव प्रथाएँ।
मानव का शोर बस एक लहर,
मूक संवाद की यह धारा।
मेरा अस्तित्व गढ़ा हुआ है,
प्रकृति, आत्मा, और विहंग का सहारा।
जब बातें करूँ उन सब से,
जिन्हें मानव समझ नहीं पाता।
तब पाती हूँ अपने भीतर,
उस दिव्यता का चिर प्रकाश।
मेरा संसार सीमित है,
लेकिन उस सीमित में विस्तृत ब्रह्मांड है।
देव, वनस्पति, जल, और जीव,
यही मेरा संवाद और आनंद है।
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