मैं देवों से, पत्तों से, और नदियों से बात करता हूँ,
हर लहर में, हर बूंद में, एक दुनिया बसाता हूँ।
गूंगे पेड़ मुझे अपनी कहानियाँ सुनाते हैं,
चुपचाप, मगर बहुत कुछ समझाते हैं।
व्हेल्स की गहरी ध्वनियाँ, मेरे कानों में गूंजती हैं,
समुद्र की आवाज़ में, अनकही बातें सुनाई देती हैं।
जलपरी के गीतों में, एक अलग ही राग है,
जैसे आत्मा खुद अपनी भाषा में बात करती है।
कीटों से बात करते-करते मैं भूल जाता हूँ समय,
हर छोटे से प्राणी में, जीवन का एक रंग देखता हूँ।
इनसे कहीं ज़्यादा सरल और शुद्ध संवाद होता है,
मानव से, जो अक्सर शब्दों में खो जाता है।
जब मैं इंसानों से बात करता हूँ,
दुनिया के इस शोर में, शब्दों के भार में दब जाता हूँ।
मुझे समझना चाहता हूँ, पर वे अक्सर खो जाते हैं,
जैसे मैं उन्हें सुन रहा हूँ, वे मुझे नहीं समझ पाते हैं।
"तत्त्वमसि" – तुम वही हो जो तुम चाहते हो,
यह ब्रह्मांड का सत्य, है हर अस्तित्व में छिपा।
निराकार, निर्विकार, हर प्राणी का स्वरूप,
यह संवाद मुझे समझाता है, मनुष्य का है बस भ्रमूप।
लेकिन जब मैं उन सभी से बात करता हूँ,
पत्ते, नदियाँ, और हवाईयों में बहता हूँ,
तो सब कुछ इतना शुद्ध और सरल लगता है,
जैसे आत्मा के हर प्रश्न का उत्तर मिल जाता है।
मनुष्य से संवाद केवल निमित मात्र है,
बाकी सब में दिव्य सत्य का अनुभव है।
शरीर से परे, आत्मा की आवाज़ से जुड़ता हूँ,
हर प्राणी से, हर ध्वनि से, मैं खुद को पहचानता हूँ।
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