सतत रूप से परवाह न करना



जो असल में परवाह न करने की राह पर चलता है,
उसे न सिर्फ़ एक बार, हर दिन खुद को ढलना होता है।
आंतरिक शांति का हासिल करना,
कभी आसान नहीं होता, पर यह जीवन की सच्चाई है।

हर वक़्त के ताज़ा संघर्ष में,
हर ज़रा-ज़रा छोड़ने की साधना करनी होती है।
मन के भीतर की उम्मीदों को,
हर दिन धीरे-धीरे सुला देना होता है।

न सिर्फ़ बाहरी परवाह से मुक्ति,
लेकिन अंदर की इच्छाओं की चाह से भी।
हर छोटी चिंगारी को बुझाना,
ताकि सच्ची शांति मिल सके।

कभी मन में उठते सवालों को,
संयम से शांत करना होता है।
जितनी बार तुम खुद को बदलते हो,
उतनी बार खुद को पा लेते हो।

यह परवाह न करना एक यात्रा है,
जो हर दिन के संघर्ष में बसी रहती है।
पर जो इस साधना को अपनाता है,
वही अंत में खुद की असली ताकत जानता है।


साफ़ अंतःकरण का अर्थ



साफ़ अंतःकरण से दूर जाना यह नहीं दर्शाता
कि तुम विवाह में पूर्ण थे,
बल्कि यह कि तुम्हारी भूलें
तुम्हारी मानवता का परिणाम थीं।

तुम्हारी त्रुटियाँ न तो
विश्वासघात थीं जीवनसाथी के प्रति,
न ही ईश्वर के प्रति।
वे मात्र तुम्हारे मानवीय होने का प्रमाण थीं।

न तो कोई छल,
न ही किसी हृदय में दुर्भावना,
तुम्हारे कार्यों में छिपी थी।
तुम्हारी कोशिशें सच्ची थीं,
भले ही वे हर बार सफल न हुईं।

कभी-कभी, सत्य के साथ खड़ा होना
संबंधों को पीछे छोड़ने का अर्थ होता है।
पर वह विदाई
क्रोध, घृणा, या दोष से नहीं भरी होती।

ईश्वर भी जानते हैं,
हम सब अपूर्ण हैं।
वह केवल हमारे हृदय की सच्चाई को देखते हैं,
और हमारे प्रयासों को समझते हैं।

इसलिए, यदि तुम्हारा अंतःकरण साफ़ है,
तो यह प्रमाण है कि तुमने निभाने की कोशिश की।
तुमने कोई छल नहीं किया,
और न ही किसी का भरोसा तोड़ा।

हर यात्रा का अंत
एक नई शुरुआत का द्वार होता है।
और जब हृदय में सच्चाई हो,
तो वह शुरुआत भी सुंदर होती है।


स्पष्ट अंतरात्मा का सत्य



दूर जाना, एक स्पष्ट अंतरात्मा के साथ,
नहीं दर्शाता कि तुम थे संपूर्ण।
यह तो बस ये कहता है,
कि तुम्हारे दोष थे मानव होने के सबूत।

हर गलती में छुपा था प्रयास,
संबंध को जीवित रखने का विश्वास।
ना कोई छल, ना कोई घात,
ना साथी के प्रति अपमान का बात।

"धर्मो रक्षति रक्षितः।"
धर्म वही जो सत्य के संग चले।
ना स्वार्थ, ना द्वेष,
ना ईश्वर के प्रति कोई अपराध।

यह स्वीकारना कि तुम अपूर्ण हो,
अपने आप में एक पवित्र सत्य है।
तुम्हारा दिल साफ़ था,
और हर क़दम में थी सिर्फ़ मानवता।

शादी एक यात्रा है,
जहाँ दोनों चलाते हैं एक नाव।
यदि तूफान में नाव डगमगाए,
तो दोष केवल इंसानी त्रुटियों का आए।

तुमने दिया था अपना सर्वस्व,
अपनी क्षमता भर प्रेम।
जो छूटा वो नियति थी,
पर तुम्हारे दिल में न थी कोई धुंध।

इसलिए जब तुम चले,
तुम्हारा मन शांत था।
तुम्हारे कर्मों ने तुम्हें निर्दोष किया,
और तुम्हारी आत्मा को मुक्त किया।


एकाकी मन का संगम



अकेलापन, एक छाया जो मेरे साथ चलती रही,
हर खामोशी में गहराई से हलचल करती रही।
यह एक दर्पण था, जो मुझे दिखाता रहा,
मेरे भीतर का खालीपन, जिसे मैं भरना चाहता रहा।

रिश्तों में मैं प्यास लेकर गया,
स्नेह के हर कतरे को मैंने अपने नाम किया।
पर जितना माँगा, उतना खोता गया,
जैसे रेगिस्तान में पानी ढूंढ़ता रहा।

अकेलापन मुझे सिखाता रहा,
कि जुड़ना केवल खोज नहीं, साझा करना है।
रिश्ते कोई गहरी खाई नहीं भरते,
वे तो दो पूर्णताओं का संगम करते।

जब मैंने खुद को अपनाना सीखा,
अकेलेपन को अपना साथी बनाना सीखा।
तब रिश्तों का अर्थ बदलने लगा,
अब वे जरूरत नहीं, प्रेम का बहाव बनने लगा।

मैंने जाना, कि सच्चाई वहीं बसती है,
जहां मैं पहले से पूरा हूँ, न अधूरा हूँ।
रिश्ते अब बोझ नहीं, एक नृत्य हैं,
जहां दो आत्माएँ साथ चलती हैं।

अकेलापन अब दुश्मन नहीं,
यह तो एक शिक्षक है, जो राह दिखाता है।
मुझे सिखाया कि खुद से प्रेम करना,
हर रिश्ते का पहला अध्याय बन जाता है।

तो मैं अब जुड़ता हूँ बिना प्यास के,
बिना किसी दरार को भरने की आस के।
यह अकेलापन, मेरा मित्र, मेरा मार्गदर्शक है,
और रिश्ते, अब मेरी यात्रा का संगीत हैं।


हर पल  एक अड़चन है


हर पल  एक अड़चन है
आज अपनी राह में अड़चन है।
कल शायद राह नही न हो
फिर भी चलने का ख़्वाब रखते हैं हम।

अड़चन तो सदा रहेगी पर क्या
अड़चन  से लड़ने के लिए तैयार हैं हम।
ख्याली दुनिया  जो बसायी
उसी के लिए इतने बेकरार हैं हम।

अड़चनों का धुआं मन में फैला रहा है भ्रम
भ्रम में  जी कर  इस पल को भूल रहे हैं हम ।
ये पल ही वो पल है जिससे हर पल की
अड़चन को दूर कर सकते हैं हम ।

हर पल एक अड़चन है, हर  अड़चन एक  पल है
जिसका घूंट हर पल पी रहे हैं हम 
ये पल हर पल है,हर पल जीना ही जीवन है
तो क्या हर पल जीवन जी रहे हैं हम ।

दीपक डोभाल

संख्या और पृथ्वी का अद्भुत सच



क्या मैं सचमुच इतना छोटा हूँ,
या मेरी सोच में सब कुछ समाया है?
“संख्याएँ”—क्या यह शब्द किसी दूसरे ग्रह से आया?
या फिर इनका जन्म हमारी अपनी पृथ्वी पर हुआ?

हर विचार, हर ज्ञान, हर खोज,
यह सब इस धरा पर ही हुआ।
हमने आकाश को देखा, सूरज की गति को जाना,
फिर हमने "संख्या" का रूप समझा, जो हर चीज़ को मापने का तरीका है।

हमने रेखाओं को गिना, चंद्रमा के चक्कर को समझा,
हमने ब्रह्मांड को “अनंत” (अनन्तम्) माना।
संख्याएँ, केवल प्रतीक नहीं,
वे हमारे अस्तित्व की गहरी समझ का हिस्सा हैं।

क्या हम सच में सोचते हैं कि ये कहीं और से आईं,
जब हमारी बुद्धि ने इन्हें यहाँ खोजा?
हमने ही तो "वस्तु"  के रूप को मापा,
हमने ही तो समय को काल में रखा।

हमारी सभ्यता, हमारी सोच की शक्ति,
हमारी "साधना" ने हमें यह रास्ता दिखाया।
क्या हम कह सकते हैं कि हम अकेले नहीं थे,
जब हमारे विचारों ने "आध्यात्मिक" उन्नति के द्वार खोले?

हर अवधारणा, हर सिद्धांत,
सिर्फ़ हमारी पृथ्वी से ही उभरे।
हमने ही तो "जीवन"  को समझा, और उसकी गति को पहचाना,
संख्याएँ और रूप, सब इसी पृथ्वी के धरातल पर जन्मे।

तो नहीं, यह सोच अलौकिक नहीं,
यह हमारी सभ्यता का हिस्सा है।
हमारे पास जो कुछ भी है,
वह हमारी "संकल्पना"  "बुद्धि"  फल है।

हम इस पृथ्वी पर हैं, और यहाँ जो कुछ भी हमने जाना,
वह इस पृथ्वी से ही आया, न कि कहीं और से।
हम खुद में एक अद्भुत अस्तित्व हैं,
जिसने सब कुछ देखा और समझा, जो जीवन को "साक्षात्कार"  के रूप में जीता।


अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...