मनुष्य का स्वयं से छल करना न केवल उसके आंतरिक सत्य को विकृत करता है, बल्कि उसके जीवन और संबंधों में भी गहरा प्रभाव डालता है। आत्मछल के कारण व्यक्ति सत्य और असत्य के बीच अंतर करना भूल जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि वह न केवल स्वयं का आदर खो देता है, बल्कि दूसरों का भी सम्मान करने में असमर्थ हो जाता है। यह विचार दार्शनिक दृष्टिकोण से भी गहन है, जैसा कि उपरोक्त पाठ में वर्णित है।
आत्मछल का प्रभाव
जब कोई व्यक्ति स्वयं से झूठ बोलता है, तो वह अपनी आंतरिक दुनिया को भ्रमित कर लेता है। यह भ्रम उसे प्रेम, करुणा और दया जैसे गुणों से दूर कर देता है। आत्मछल से उत्पन्न यह विखंडन व्यक्ति को असत्य और विकृति की ओर ले जाता है, जिससे उसके जीवन में नकारात्मक प्रवृत्तियाँ बढ़ने लगती हैं। यह स्थिति भगवद्गीता में वर्णित है:
"धृतराष्ट्र उवाच:
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥" (गीता 1.1)
यह श्लोक आत्मचिंतन का प्रतीक है। जब व्यक्ति अपनी अंतर्मुखी दृष्टि को खो देता है, तब वह अपने ही धर्मक्षेत्र (अंतरात्मा) में संघर्ष करने लगता है।
झूठ और विकृत मानसिकता
आत्मछल से मनुष्य की सोच विकृत हो जाती है। वह दूसरों के प्रति द्वेष और प्रतिशोध की भावना से ग्रस्त हो जाता है। जैसे कि पाठ में कहा गया है, वह छोटी-छोटी बातों को बढ़ा-चढ़ाकर देखता है और न केवल दूसरों को दोषी ठहराता है, बल्कि स्वयं भी क्रोध और प्रतिशोध के जाल में फँस जाता है। इस विषय पर मनुस्मृति का यह श्लोक सटीक बैठता है:
"सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात्, एष धर्मः सनातनः॥"
इस श्लोक में सत्य के महत्व को रेखांकित किया गया है। सत्य को प्रिय और कल्याणकारी रूप में कहना आवश्यक है। झूठ और छल व्यक्ति को न केवल दूसरों से, बल्कि स्वयं से भी दूर कर देता है।
आत्मछल का निवारण
आत्मछल को समाप्त करने के लिए आत्मज्ञान और स्वचिंतन की आवश्यकता होती है। व्यक्ति को अपने भीतर झांककर यह देखना चाहिए कि कौन-से विचार उसे सत्य से दूर कर रहे हैं। उपनिषदों में कहा गया है:
"सत्यं एव जयते नानृतं।" (मुण्डक उपनिषद् 3.1.6)
सत्य ही विजय प्राप्त करता है, झूठ और छल अंततः व्यक्ति को पतन की ओर ले जाते हैं।
निष्कर्ष
स्वयं से झूठ बोलना आत्मघात के समान है। यह मनुष्य को प्रेम, करुणा और आत्मसम्मान से दूर कर देता है। इस स्थिति से बचने के लिए सत्य के मार्ग पर चलना और अपने भीतर सच्चाई को खोजने का प्रयास करना अनिवार्य है। जैसा कि उपनिषदों में कहा गया है:
"तमसो मा ज्योतिर्गमय।"
अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ो।
इसलिए, हमें अपने विचारों और कृत्यों में सत्य और स्पष्टता लानी चाहिए, ताकि आत्मछल से बचा जा सके और एक संतुलित, सुखी जीवन जिया जा सके।
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