भाग्य का अमृत स्रोत



मैंने सुना है,
"भगवान" शब्द में छिपा है
भाग्य का रहस्य।
नहीं, यह कोई बाहरी देवता नहीं,
यह मेरा ही स्वरूप है,
मेरा ही भाग्य।
यह संकेत है,
कि मैं वहीं समाप्त नहीं,
जहाँ आज खड़ा हूँ।

भाग्य,
एक बीज है मेरे भीतर,
जो अंकुरित हो सकता है,
यदि मैं समझूँ,
कि मैं केवल वर्तमान नहीं,
अपितु भविष्य का निर्माता हूँ।
मुझे रचनी है अपनी राह,
"स्वयं भाग्यकर्ता भव"।

भाग्य का अर्थ है
विकास, विस्तार,
"सृष्टि: शाश्वता भवति।"
जहाँ मैं अपने भीतर की सीमाएँ तोड़ दूँ,
और अनंत को गले लगा लूँ।
हर कर्म, हर विचार,
मेरा भविष्य गढ़ता है।
मैं जो बोता हूँ,
वही कल काटता हूँ।

"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"
यह श्लोक गूँजता है भीतर,
कि कर्म ही मेरा धर्म है,
फल की इच्छा से परे,
क्योंकि मेरा भाग्य,
मेरे कर्मों की दिशा में ही छिपा है।

मैं भगवान हूँ,
क्योंकि मैं भाग्यशाली हूँ।
यह भाग्य कोई वरदान नहीं,
यह मेरा अपना अर्जन है।
"स्वयं भाग्यं विदधाति पुरुषः।"
मैं स्वयं अपना भविष्य बनाता हूँ।

ओ मेरे भीतर के भाग्य!
तुम मेरी चेतना हो,
तुम्हारी खोज ही मेरी यात्रा है।
हर बाधा, हर कठिनाई,
मुझे एक नया पाठ सिखाती है,
और मुझे भगवान की ओर बढ़ाती है।

आज मैं खड़ा हूँ,
अपने भीतर झाँकता हुआ।
मुझे दिखता है,
मैं केवल मनुष्य नहीं,
बल्कि एक संभावना हूँ।
"अहं ब्रह्मास्मि।"
मैं सृष्टि का अंश हूँ,
और सृष्टि मुझमें बसी है।

ओ मेरे जीवन!
तुम्हारा अंत नहीं है।
तुम्हारा हर क्षण,
एक नयी शुरुआत है।
मैं अपने भविष्य का स्वप्न देखता हूँ,
और उसे अपनी साधना से साकार करता हूँ।

क्योंकि भगवान होना,
भाग्य को पहचानना है।
और भाग्य,
मेरे कर्मों का ही प्रतिबिंब है।


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