विनम्रता का यह मुखौटा, जो तुम पहनते हो,
क्या यह सच में दया का स्वरूप है?
या यह घावों का एक प्रतिरोध है,
जो अंदर से चुपचाप तुम्हें तोड़ रहा है?
"हां" कहकर तुम सबको खुश करते,
पर क्या कभी खुद से पूछा,
तुम्हारा "ना" कहां खो गया है?
यह जो सहमति का खेल चलता है,
क्या यह डर का एक और नाम है?
भूतकाल के बंधन, जो मन में बसते हैं,
सहमी हुई आवाजें, जो अब तक हंसते हैं।
उनके डर से ही तुम झुकते हो बार-बार,
हर रिश्ता लगता है जैसे कोई भार।
संघर्षों से भागते, तुम सब कुछ सहते,
दूसरों के सुख में अपना दर्द कहते।
पर यह जो "बहुत अच्छा बनना" है,
क्या यह तुम्हारी आत्मा का छलना है?
आओ, अब इन जंजीरों को तोड़ो,
जो दूसरों के लिए जीते थे, अब खुद को संभालो।
सीखो "ना" कहना, बिना किसी अपराधबोध के,
अपने घावों को भरा करो, समय के साथ।
यह जो "बहुत विनम्र" होने का भ्रम है,
वह दया नहीं, बस एक प्रतिरोध है।
दया वह है, जो सच में स्वतंत्र हो,
अपनी सीमा जानकर, खुद से जुड़ी हो।
अपने घावों को देखो, उनसे डर मत,
हर "हां" में छिपे "ना" को सुनो।
दया के असली स्वरूप को समझो,
और स्वयं को इस छल से मुक्त करो।
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