अवश्यमेव भवितव्यं



मैं खोजता हूँ उत्तर,
पर शायद प्रश्न ही मेरा भाग्य है।
सही बुद्धि क्यों नहीं मिलती?
क्यों पीड़ा मेरी छाया बनकर चलती है?

शब्दों की शिक्षा, तर्कों का ज्ञान,
पर कोई सिद्धांत इन दीवारों को नहीं तोड़ता।
कहीं कुछ और गहरा है,
जो हर सीख से परे मुझे बाँधता है।

क्या यह दंड है, या कोई ऋण?
क्या यह प्रारब्ध की छाया है?
या शायद मुझे जलना है,
ताकि मैं अपने ही ताप से ढल जाऊँ।

मैं ही प्रश्न हूँ, मैं ही उत्तर,
मुझे स्वयं को देखना होगा।
दर्पण की छवि से नहीं,
उस मौन से जो हर सत्य को निगल जाता है।

शायद यही असली परीक्षा है,
स्वयं को देख पाने की।
क्योंकि दुःख कोई दंड नहीं,
बल्कि द्वार है—उस सत्य तक, जो मुझे जानता है।


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