प्राचीनता और नव्यता की यात्रा: एक विचारशील दृष्टिकोण



जीवन के प्रत्येक चरण में हम एक गहन अनुभव से गुजरते हैं, जिसे कई बार हम 'कर्मिक पाठ' के रूप में देखते हैं। यह मान्यता है कि यह 'पाठ' दिव्यता द्वारा हमें परखने के लिए दिए जाते हैं। परंतु, अगर हम गहराई से सोचें, तो समझ में आता है कि जीवन का यह प्रवाह मात्र एक स्पर्धा नहीं है, जिसे जीतने के लिए हमें कठिनाइयों से गुजरना होता है। बल्कि, यह जीवन एक सतत विकास और परिवर्तन की प्रक्रिया है, जिसमें सुख और दुःख केवल यात्रा के हिस्से हैं।

**कर्म और जीवन का प्रवाह**

हमारे प्राचीन शास्त्रों में कहा गया है:
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।  
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥"  
(भगवद्गीता 2.47)

यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि हमारे कर्म हमारे अधिकार में हैं, परंतु उसके फल नहीं। जब हम इस दृष्टिकोण से जीवन को देखते हैं, तो यह समझ आता है कि जीवन के सुख-दुःख केवल हमारे कर्मों का परिणाम हैं, न कि कोई परीक्षण। 

**सभ्यताओं का विकास और अवनति**

मानव सभ्यताओं का विकास और अवनति एक जटिल प्रक्रिया है, जो समय के साथ-साथ बदलती रहती है। कभी-कभी यह महसूस होता है कि यह सब एक निर्धारित पैटर्न के अनुसार हो रहा है, मानो किसी 'प्राकृतिक प्रोग्राम' के तहत। इस दृष्टिकोण से, हम सोच सकते हैं कि क्या यह सब एक 'सिमुलेशन' का हिस्सा हो सकता है, जिसमें हम और हमारी सभ्यताएँ अपने-अपने चरणों से गुजर रही हैं। 

"यह जीवन क्या है? एक चल चित्र की भांति, जिसमें हम अपने कर्मों के पात्र हैं।"

**विकासशील सिमुलेशन का विचार**

क्या यह संभव है कि एक ऐसी सिमुलेशन भी हो जिसमें सभी चीजें सतत विकसित हो रही हों, जहाँ कोई अवनति नहीं होती? इस विचार के साथ कई वैकल्पिक वास्तविकताएँ भी हो सकती हैं, जिनमें से कुछ निरंतर विकसित हो रही हों और कुछ विनाश की ओर अग्रसर हो रही हों। 

"कल्पना के वेग से हम उन अनंत संभावनाओं के संसार में यात्रा कर सकते हैं, जहाँ विकास और विनाश की प्रक्रिया सतत रूप से चल रही है।"

आखिरकार, चाहे यह जीवन एक सिमुलेशन हो या न हो, हमें यह समझना आवश्यक है कि हमारे अनुभव और कर्म ही हमारे जीवन की दिशा तय करते हैं। जीवन का यह प्रवाह हमें केवल सीखने और विकसित होने का अवसर प्रदान करता है, जिससे हम अपनी आत्मा की गहराइयों को समझ सकते हैं। 

"यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।  
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥"  
(भगवद्गीता 18.78)

यह श्लोक हमें यह विश्वास दिलाता है कि जब हम अपने कर्म और ज्ञान के साथ चलते हैं, तो विजय और समृद्धि स्वाभाविक रूप से हमारे साथ होती है। इसी प्रकार, हमें अपने जीवन के हर पहलू को एक नए दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है, जहाँ हर अनुभव एक नई सीख और विकास का मार्ग दिखाता है।

मदद और अपनी सीमाएं





अगर मदद कर सकता हूँ, तो करूंगा,
लेकिन अगर नहीं कर सकता, तो नहीं।
अपनी सीमाओं को समझना है,
खुद को खोकर किसी का न करूँगा भला।

यह बीमारी नहीं, यह समझ है,
कि अपनी शक्ति को पहचानूं,
जब तक खुद में ऊर्जा है,
तब तक ही किसी और की मदद करूं।

स्वार्थी नहीं, बस संतुलित हूँ,
अपने और दूसरे के बीच में एक दीवार।
मैं न जाऊं इतना गहरे,
कि खुद ही डूब जाऊं, यह मेरा इरादा नहीं है।

मदद देने का मतलब यह नहीं,
कि खुद को खो दूं किसी के लिए।
समझदारी से मदद करो,
लेकिन अपनी पहचान और शक्ति को न छोड़ो।


मदद का असल रूप




यह नहीं कि तुम स्वार्थी हो,
कभी मदद करनी है, कभी नहीं।
जब दिल से करना हो मदद,
तभी मदद की राह पर चलो, बिना किसी अंतर के।

यह नहीं कि बीच का कोई रास्ता है,
या तो तुम हो, या नहीं हो।
जब किसी को देना हो सहारा,
तो पूरे दिल से देना चाहिए, बिना किसी शक के।

मदद सिर्फ बातों में नहीं होती,
कभी पूरी तवज्जो से, कभी नासमझी से।
जो दिल से मदद करना चाहते हैं,
वो किसी भी परिस्थिति में खुद को न रोकें।

और जब तुम खुद न चाहो,
तो न करना ही बेहतर है।
क्योंकि अधूरी मदद कभी नहीं बनती,
कभी भी किसी को असमर्थ महसूस करवा देती है।

मदद या तो हो पूरी, या बिल्कुल नहीं,
यहां कोई बीच का रास्ता नहीं।
सच यही है, जो दिल से नहीं कर सकते,
वो मदद के नाम पर खुद को नहीं बहलाएं।

वो जो नहीं चाहिए



जो हमेशा दुखी रहते हैं,
उनसे दूरी बनाना है।
उनके भीतर की गहरी शून्यता,
तुम्हारे भीतर भी समा ना जाए।

जो किस्मत से हार चुके हैं,
उनसे खुद को बचाना है।
उनकी नकारात्मकता की लहरें,
तुम्हें भी डुबो ना जाएं, यह समझाना है।

जो स्वस्थ नहीं हैं,
उनकी समस्याओं से दूर रहो।
क्योंकि उनकी बीमारी का कारण,
तुम्हारे जीवन में भी फैल सकता है, यह जानो।

इनमें से हर किसी के जीवन में,
एक कारण है जो इन्हें यहाँ लाया है।
पर तुम्हारा रास्ता अलग है,
सही ऊर्जा के साथ अपना मार्ग बनाओ, यही सिखाया है।

सच यह है, इनसे बचो,
इनकी परिस्थितियों से दूर रहो।
उनकी यात्रा उनकी है,
तुम्हारी यात्रा तुम्हारी हो।


वाइब्रेशन्स का प्रभाव




हर विचार, हर भावना, एक लहर बनती है,
जो हमारे भीतर और बाहर बहती है।
कभी किसी की संगति से दिल भारी हो जाता है,
तो कभी किसी के साथ, आत्मा झूम उठती है।

क्यों होती है यह अंतर की अनुभूति?
यह सब होता है, उनकी वाइब्रेशन्स की वजह से।
कुछ लोग देते हैं नकारात्मक कंपन,
जो दिल में दुःख और अशांति को बिठा लेते हैं।

वहीं कुछ लोग होते हैं, जो ऊर्जा से भर देते हैं,
सकारात्मक वाइब्रेशन्स से, जीवन में रंग भर देते हैं।
उन्हें पाकर हम जीवित और ऊर्जावान महसूस करते हैं,
जैसे हमारे भीतर नया जीवन जागृत हो जाता है।

समझो, यह कंपन होते हैं हमारे आसपास,
वे हमें छूते हैं, हमारी आत्मा पर असर डालते हैं।
इसलिए ध्यान रखो, किसी भी व्यक्ति या माहौल से,
अपनी ऊर्जा को बचाकर रहो, वाइब्रेशन्स का प्रभाव समझकर रहो।


उठाने की राह



कभी-कभी उठाना जरूरी है,
लेकिन समझना चाहिए, कब खुद को बचाना है।
कई बार लोगों को सहारा दिया,
पर खुद को खोते पाया, क्या यह ठीक था?

समय की चुपचाप खामोशी ने कहा,
कभी-कभी मदद से खुद को सिखाना है।
जो न समझे, न चाहते बदलना,
उनसे दूर रहकर खुद को सवारना है।

मैंने दिया सब कुछ, खो दिया बहुत कुछ,
उनकी खामियों को सीने से लगाया।
पर जब देखा, खुद को टूटते पाया,
तो यह समझा, अपनी शक्ति को बचाना है।

उठाना जरूरी है, लेकिन कब?
जब किसी की मनोवृत्ति हो तैयार।
नहीं तो हम ही गिरने लगते हैं,
सच यही है, खुद को संभालना है बार-बार।


मृत स्थिति




कभी न थामो उस स्थिति को,
जो खुद मरने को है तैयार।
तोड़ो उस बंधन को,
जो तुम्हें गिरने का कर रहा है इरादा बार-बार।

जीवन में हर पल नई राह है,
जहाँ नये अवसर हैं खुलते हर दिन।
मृत परिस्थितियाँ नहीं समझतीं,
जो आगे बढ़ने का दिखातीं न कोई भी रंगिन।

कुछ चीज़ें चली जाती हैं, यह स्वाभाविक है,
समझो, छोड़ देना चाहिए वो चीज़ें।
कभी न चिपको उस मरे हुए रास्ते से,
जो तुम्हें जकड़े रखे, और कभी न मिलें।

हर नई शुरुआत में छिपा होता है एक सार,
आगे बढ़ो, छोड़ो पीछे का असार।
सच यह है, कभी मत रहो,
एक मरी हुई स्थिति के साथ।


ऊर्जा का खेल: संगति का प्रभाव



मनुष्य केवल शरीर नहीं, ऊर्जा का प्रवाह है,
हर संपर्क में एक ऊर्जा का खेल छिपा है।
जिसकी शक्ति अधिक हो, वह विजय पाता है,
और कमजोर ऊर्जा को अपने अधीन करता है।

ऊर्जा का संग हर पल चलता है,
हर मनुष्य पर इसका असर होता है।
अच्छे संग से जोश बढ़े,
गलत संग से जीवन घटे।

संगति का असर अदृश्य सही,
पर जीवन पर यह स्पष्ट दिखे।
जो नकारात्मक संग में फंसे,
वह ऊर्जा खोकर कमजोर पड़े।


सकारात्मक ऊर्जा का संग लो,
अच्छे विचारों का रस पियो।
जो प्रेरणा दे, वही साथी हो,
जो खींचे नीचे, उससे दूरी करो।

अपने आसपास के लोगों को चुनो,
जिनकी ऊर्जा तुम्हें निखारे, वो गिनो।
क्योंकि संगत से ही बनता है भाग्य,
ऊर्जा के खेल में छिपा है सारा सत्य।

मनुष्य ऊर्जा है, यह सदा मानो,
हर संपर्क में ऊर्जा का ध्यान जानो।
संगति से ही जीवन का रूप बने,
इस सत्य को हृदय में सदैव बसाए रहो।


मन की अवस्थाएँ और जीवन का संघर्ष


हर मन गुजरता है अलग-अलग चरणों से,
दुख के अंधेरों और आशा के किरणों से।
कभी हारा, कभी थका, कभी बेबस दिखे,
तो कभी साहस में जलता हुआ दीपक लिखे।


कभी निराशा की छाया भारी,
कभी आशा का दीप उजियारी।
जीवन की इस गहरी धारा में,
हर चरण की अपनी तैयारी।

कई बार वो शांत, निष्क्रिय से लगें,
जैसे जीवन के अर्थ ही खो दें।
पर यह ठहराव भी है एक पड़ाव,
जहाँ से जागरण की शुरुआत हो लें।

हर अवस्था का है एक मकसद,
कभी गिरकर सिखता है हर रकब।
यह जड़ता भी बदलाव का हिस्सा,
मन जागे तो फिर दिखे उसका किस्सा।

जो गिरकर भी उठने का संकल्प करे,
वो अपने जीवन को अमरत्व भरे।
हर चरण, हर अवस्था को समझो,
जीवन की धारा को गहराई से परखो।

यह सच है, कुछ उदास होकर जीते,
पर मन के हर स्तर से आगे बढ़ते।
साथ दो उनका जो सहारा खोजें,
पर जागने का हौसला उनके भीतर बो दें।


प्रयास की मशाल



जो खुद को बचाने का हुनर न सीखें,
उनके लिए सहारा देना भी व्यर्थ है।
बचाव का बीज उनके भीतर ही हो,
वरना हर कोशिश ठहर जाती अर्थ है।

प्रयास करें, वो जगमगाएं,
जो चाहें, वो मंजिल पाएं।
सपने उनके, कर्म भी उनके,
नियति खुद उनके घर आए।


जो केवल सहारा खोजें,
और खुद कुछ न प्रयास करें।
उनके जीवन की डोर सदा,
निर्जीव राहों में ही थमे।


पर जो जूझें, लड़े, संभलें,
हर संकट का हल वे निकलें।
उनके संग खड़ा हो सकता,
जो अपना हर कर्तव्य संभलें।


जीवन वही जो जागे, लड़े,
अपनी किस्मत को खुद गढ़े।
न हो निष्क्रिय, न हो उदास,
अपनी मंजिल का ले एहसास।


सत्य के मार्ग पर चलने का धर्म: शारीरिक भागीदारी या आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार



सत्य के लिए लड़ना जीवन में एक गहन अर्थ और उद्देश्य की अनुभूति कराता है। सत्य के मार्ग पर चलने वाले लोग समाज में एक ऐसे परिवर्तन की कामना करते हैं जो सिर्फ उनके लिए नहीं, बल्कि सभी के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। यह एक धर्म का मार्ग है जो उन्हें आंतरिक मुक्ति की ओर ले जाता है, और यह मुक्ति मृत्यु से भी परे होती है। परंतु, ऐसे लोग जो आध्यात्मिक रूप से जागरूक हैं, वे एक गंभीर दुविधा का सामना करते हैं: क्या उन्हें इस लड़ाई में शारीरिक रूप से सम्मिलित होना चाहिए, या केवल प्रार्थना और ऊर्जा का संचार करके अपना कर्तव्य निभाना चाहिए?

सत्य के लिए लड़ने की प्रेरणा

सत्य का मार्ग चुनने का उद्देश्य व्यक्तिगत लाभ, प्रसिद्धि, या कोई भौतिक लाभ नहीं होता। ऐसे लोग सत्य के लिए संघर्ष करते हैं क्योंकि उनके लिए यह जीवन का एकमात्र पथ है। उन्हें यह अहसास होता है कि सत्य के लिए खड़ा होना उनके आत्मिक विकास के लिए आवश्यक है। जैसा कि गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं:

> "सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥"
(भगवद गीता 2.38)



अर्थात, "सुख-दुःख, लाभ-हानि, और जय-पराजय में समान रहते हुए कर्तव्य का पालन करो। ऐसा करने से तुम्हें पाप नहीं लगेगा।" इस श्लोक में स्पष्ट है कि सत्य के मार्ग पर चलने वाले को व्यक्तिगत लाभ-हानि के विचार से ऊपर उठकर अपने धर्म का पालन करना चाहिए।

शारीरिक भागीदारी बनाम आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार

अनेक आध्यात्मिक साधक इस विचार में उलझे रहते हैं कि क्या उन्हें सत्य के इस संघर्ष में शारीरिक रूप से भाग लेना चाहिए या केवल अपनी प्रार्थना और सकारात्मक ऊर्जा का संचार करके समाज में बदलाव की कामना करनी चाहिए। शारीरिक भागीदारी में न केवल बाहरी संघर्ष होता है, बल्कि यह साधक को कई भावनात्मक और मानसिक कर्मों के बंधन में भी डाल सकता है। शारीरिक रूप से शामिल होने पर साधक को क्रोध, द्वेष, और अन्य नकारात्मक भावनाओं का सामना करना पड़ता है, जो उसके आध्यात्मिक विकास में बाधा डाल सकते हैं।

उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति जो अपने कर्मों का फल निश्चयपूर्वक चाहता है, वह इस संघर्ष में अपने अहंकार और पीड़ित मानसिकता का शिकार हो सकता है। ऐसा व्यक्ति सत्य की सेवा करते हुए भी आत्मिक शांति का अनुभव नहीं कर पाता, क्योंकि वह अपने अहंकार और मानसिक संतुलन को छोड़ नहीं पाता।

शारीरिक भागीदारी का प्रभाव और उसका धर्म

कुछ साधक सत्य के संघर्ष में शारीरिक रूप से भाग लेकर समाज में बदलाव लाना चाहते हैं। वे अपने धर्म का पालन करते हुए लोगों को सचेत करते हैं, अन्याय के खिलाफ खड़े होते हैं। ऐसे में उनके कर्तव्य की भावना स्पष्ट होती है। लेकिन इस भागीदारी के दौरान उन्हें अपने कर्मों का ध्यान रखना चाहिए ताकि वे अपने कर्म बंधनों में अधिक न फंसे। महात्मा गांधी का जीवन एक उदाहरण है कि कैसे सत्य के लिए शारीरिक रूप से संघर्ष करते हुए भी अहिंसा और शांति के मार्ग का पालन किया जा सकता है।

जैसा कि महर्षि पतंजलि ने कहा है:

> "सत्यानृत विवर्जनाद् सत्यवचनम्।"
(योगसूत्र 2.30)



इसका अर्थ है कि सत्य का पालन करते हुए व्यक्ति को असत्य का त्याग करना चाहिए। यानी सत्य की रक्षा करते समय व्यक्ति को अपने अहंकार, क्रोध, और द्वेष को त्यागना चाहिए, तभी वह सच्चे अर्थों में धर्म का पालन कर सकता है।

आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार और प्रार्थना

सत्य के लिए संघर्ष में हर साधक को शारीरिक रूप से सम्मिलित होना आवश्यक नहीं है। कई साधक जो आत्मिक विकास की ओर अग्रसर हैं, केवल प्रार्थना और ऊर्जा के माध्यम से समाज में सकारात्मक बदलाव लाने का प्रयास करते हैं। वे समाज को अपनी शांतिपूर्ण ऊर्जा से भरते हैं और ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि सत्य और न्याय की जीत हो।

गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं:

> "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥"
(भगवद गीता 4.7)



भगवान यहां आश्वासन देते हैं कि जब-जब अधर्म बढ़ता है, वे धर्म की रक्षा के लिए स्वयं आते हैं। यह श्लोक यह भी सिखाता है कि साधक केवल ईश्वर में समर्पण करते हुए प्रार्थना और साधना के माध्यम से भी धर्म का पालन कर सकता है।

निर्णय का आधार: क्या करें?

आध्यात्मिक साधकों के लिए इस दुविधा का हल आंतरिक मनन और समर्पण में छुपा है। उन्हें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और अपने भीतर झांककर यह समझना चाहिए कि उनके लिए कौन-सा मार्ग सही है। किसी के लिए शारीरिक रूप से संघर्ष करना सही हो सकता है, जबकि किसी के लिए शांति और प्रार्थना का मार्ग उचित हो सकता है।

जैसे श्रीमद्भगवद्गीता में बताया गया है:

> "स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।"
(भगवद गीता 3.35)



अर्थात, अपने धर्म में रहते हुए चाहे मृत्यु ही क्यों न हो, वह परधर्म में सफल होने से श्रेष्ठ है। साधक को अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करना चाहिए। अगर किसी के लिए संघर्ष का मार्ग स्वाभाविक है, तो वह उसे अपनाए। और यदि कोई साधक आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार करके सत्य की रक्षा करना चाहता है, तो वह उसका अनुसरण कर सकता है।


सत्य के लिए संघर्ष करना एक महान धर्म है, परंतु इस संघर्ष में शारीरिक रूप से शामिल होना या केवल प्रार्थना करना, यह साधक की आंतरिक प्रवृत्ति और आत्मिक संतुलन पर निर्भर करता है। दोनों ही मार्ग धर्म के प्रति श्रद्धा और समर्पण की मांग करते हैं। साधक का उद्देश्य सत्य और न्याय की रक्षा है, चाहे वह शारीरिक हो या आत्मिक। अतः हर साधक को यह निर्णय अपने आंतरिक आत्मबोध के अनुसार करना चाहिए, ताकि वह धर्म के मार्ग पर अग्रसर रहकर अपने जीवन को सार्थक बना सके।


जीवन की मर्यादा



कभी डूबते को सहारा दो, पर खुद को मत डुबाओ,
सच्चाई का दीप जलाकर, विवेक का मार्ग अपनाओ।
जीवन का यह धर्म सिखाता, मदद करना पुण्य बड़ा,
पर अपनी डोरी से बंधकर, न बनो स्वयं की व्यथा।


जीवन जैकेट फेंक दो, पर बंधना तुमको नहीं,
जो खुद डूबे दर्द में, उनको थामो कभी नहीं।
हर पीड़ा में धैर्य रखो, पर सीमा का ध्यान रहे,
जो खुद खींचे गहराई, उनसे दूरी कायम रहे।


जो नहीं बच सकता है, उसे जाने देना सीखो,
अपने भीतर के दीपक को, हर क्षण जलाए रखो।
जो कर्तव्य तुम्हारा है, बस उतना ही निभा सको,
जो अडिग दुख में बसा, उसे मुक्त कर सको।



सामर्थ्य तुम्हारा अनमोल है, उसे व्यर्थ न जाने दो,
जो जीवन से लड़ने को तैयार, उन्हें साथ में थामो।
एक डूबा संग खींचेगा, सौ औरों को डूबा लेगा,
अपनी नाव की डोर थामो, यह कर्म तुम्हारा फलेगा।


जीवन का संतुलन है यह, प्रेम और विवेक का मेल,
जो डूबे, उनको राह दिखाओ, पर खुद को बचाना खेल।
त्याग भी धर्म का हिस्सा है, यह सत्य को पहचानो,
हर दया का मूल्य समझकर, अपनी राह को जानो।


‘ॐ’ ओंकार क्या है? – ओशो



ओंकार का अर्थ है, जिस दिन व्यक्ति अपने को विश्व के साथ एक अनुभव करता है, उस दिन जो ध्वनि बरसती है। जिस दिन व्यक्ति का आकार से बंध हुआ आकाश निराकार आकाश में गिरता है, जिस दिन व्यक्ति की छोटी-सी सीमित लहर असीम सागर में खो जाती है, उस दिन जो संगीत बरसता है, उस दिन जो ध्वनि का अनुभव होता है, उस दिन जो मूल-मंत्र गूंजता है, उस मूल-मंत्र का नाम ओंकार है। ओंकार जगत की परम शांति में गूंजने वाले संगीत का नाम है।

गीता में कृषण कहते है – “मैं जानने योग्य पवित्र ओंकार हूं”

ओंकार का अनुभव इस जगत का आत्यंतिक, अंतिम अनुभव है। कहना चाहिए, दि आल्टिमेट फ्रयूचर। जो हो सकती है आखिरी बात, वह है ओंकार का अनुभव।

# ओंकार जगत की परम शांति में गूंजने वाले संगीत का नाम है।
# ओंकार का अर्थ है – “दि बेसिक रियलिटी” वह जो मूलभूत सत्य है, जो सदा रहता है।
# जब तक हम शोरगुल से भरे है, वह सूक्ष्मतम् ध्वनि नहीं सुन सकते।

संगीत दो तरह के हैं। एक संगीत जिसे पैदा करने के लिए हमें स्वर उठाने पड़ते हैं, शब्द जगाने पड़ते हैं, ध्वनि पैदा करनी पड़ती है। इसका अर्थ हुआ, क्योंकि ध्वनि पैदा करने का अर्थ होता है कि कहीं कोई चीज घर्षण करेगी, तो ध्वनि पैदा होगी। जैसे मैं अपनी ताली बजाऊं, तो आवाज पैदा होगी। यह दो हथेलियों के बीच जो घर्षण होगा, जो संघर्ष होगा, उससे आवाज पैदा होगी।

तो हमारा जो संगीत है, जिससे हम परिचित हैं, वह संगीत संघर्ष का संगीत है। चाहे होंठ से होंठ टकराते हों, चाहे कंठ के भीतर की मांस-पेशियां टकराती हों, चाहे मेरे मुंह से निकलती हुई वायु का ध्क्का आगे की वायु से टकराता हो, लेकिन टकराहट से पैदा होता है संगीत। हमारी सभी ध्वनियां टकराहट से पैदा होती हैं। हम जो भी बोलते हैं, वह एक व्याघात है, एक डिस्टरबेंस है।

ओंकार उस ध्वनि का नाम है, जब सब व्याघात खो जाते हैं, सब तालियां बंद हो जाती हैं, सब संघर्ष सो जाता है, सारा जगत विराट शांति में लीन हो जाता है, तब भी उस सन्नाटे में एक ध्वनि सुनाई पड़ती है। वह सन्नाटे की ध्वनि है; “Voice of Silence” वह शून्य का स्वर है। उस क्षण सन्नाटे में जो ध्वनि गूंजती है, उस ध्वनि का, उस संगीत का नाम ओंकार है। अब तक हमने जो ध्वनियां जानी हैं, वे पैदा की हुई हैं। अकेली एक ध्वनि है, जो पैदा की हुई नहीं है; जो जगत का स्वभाव है; उस ध्वनि का नाम ओंकार है। इस ओंकार को कृष्ण कहते हैं, यह अंतिम भी मैं हूं। जिस दिन सब खो जाएगा, जिस दिन कोई स्वर नहीं उठेगा, जिस दिन कोई अशांति की तरंग नहीं रहेगी, जिस दिन जरा-सा भी कंपन नहीं होगा, सब शून्य होगा, उस दिन जिसे तू सुनेगा, वह ध्वनि भी मैं ही हूं। सब के खो जाने पर भी जो शेष रह जाता है। जब कुछ भी नहीं बचता, तब भी मैं बच जाता हूं। मेरे खोने का कोई उपाय नहीं है, वे यह कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, मेरे खोने का कोई उपाय नहीं है। मैं मिट नहीं सकता हूं, क्योंकि मैं कभी बना नहीं हूं। मुझे कभी बनाया नहीं गया है। जो बनता है, वह मिट जाता है। जो जोड़ा जाता है, वह टूट जाताहै। जिसे हम संगठित करते हैं, वह बिखर जाता है। लेकिन जो सदा से है, वह सदा रहता है।

इस ओंकार का अर्थ है, दि बेसिक रियलिटी; वह जो मूलभूत सत्य है, जो सदा रहता है। उसके ऊपर रूप बनते हैं और मिटते हैं, संघात निर्मित होते हैं और बिखर जाते हैं, संगठन खड़े होते हैं और टूट जाते हैं, लेकिन वह बना रहता है। वह बना ही रहता है। यह जो सदा बना रहता है, इसकी जो ध्वनि है, इसका जो संगीत है, उसका नाम ओंकार है। यह मनुष्य के अनुभव की आत्यंतिक बात है। यह परम अनुभव है।

इसलिए आप यह मत सोचना की आप बैठकर ओम-ओम का उच्चार करते रहें, तो आपको ओंकार का पता चल रहा है। जिस ओम का आप उच्चार कर रहे हैं, वह उच्चार ही है। वह तो आपके द्वारा पैदा की गई ध्वनि है।

इसलिए धीरे-धीरे होंठ को बंद करना पड़ेगा। होंठ का उपयोग नहीं करना पड़ेगा। फिर बिना होंठ के भीतर ही ओम का उच्चार करना। लेकिन वह भी असली ओंकार नहीं है। क्योंकि अभी भी भीतर मांस-पेशियां और हड्डियां काम में लाई जा रही हैं। उन्हें भी छोड़ देना पड़ेगा। भीतर मन में भी उच्चार नहीं करना होगा। तब एक उच्चार सुनाई पड़ना शुरू होगा, जो आपका किया हुआ नहीं है। जिसके आप साक्षी होते हैं, कर्ता नहीं होते हैं। जिसको आप बनाते नहीं, जो होता है, आप सिर्फ जानते हैं।

जिस दिन आप अपने भीतर ओंम की उस ध्वनि को सुन लेते हैं, जो आपने पैदा नहीं की, किसी और ने पैदा नहीं की; हो रही है, आप सिर्फ जान रहे हैं, वह प्रतिपल हो रही है, वह हर घड़ी हो रही है। लेकिन हम अपने मन में इतने शोरगुल से भरे हैं कि वह सूक्ष्मतम ध्वनि सुनी नहीं जा सकती। वह प्रतिपल मौजूद है। वह जगत का आधर है।

– ओशो
गीता दर्शन, अध्याय-9, प्रवचन-7

अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...