मैंने देखा है,
कई बार रिश्तों में कुछ ऐसा होता है,
जहाँ प्यार एक लहर की तरह आता है,
फिर कुछ समय बाद रुक जाता है।
कभी लगता है,
क्या यह सिर्फ एक प्रवृत्ति है,
जहाँ प्यार की शुरुआत और उसकी समाप्ति
बस एक झटके से तय हो जाती है?
कई बार लगता है,
क्या जब एक औरत खुद को पूरी तरह समर्पित करती है,
तो क्या वह अपनी पहचान खो देती है?
क्या उसे खुद को तोड़ने की कीमत पर,
रिश्ते को बनाये रखना चाहिए?
क्या वह उन शब्दों को सुनकर
अपने दर्द को नजरअंदाज करती है?
क्या वह फिर भी लौटती है,
जो उसे बार-बार तोड़ता है?
समझ नहीं आता,
क्यों कुछ औरतें अपनी कमियों को स्वीकार कर
अक्सर उन्हीं लोगों के पास लौट आती हैं,
जो उनके साथ न्याय नहीं करते।
क्या वे सचमुच उस रोशनी को देखती हैं,
या फिर सिर्फ खुद को एक चक्रव्यूह में फंसा हुआ पाती हैं?
मैंने खुद से पूछा,
क्या रिश्तों में स्थिरता और प्यार सचमुच महत्वपूर्ण है,
या फिर यह सिर्फ एक भ्रम है,
जो हम खुद को दिखाते हैं?
क्या हमें अपनी खुद की ताकत और पहचान
रिश्तों से ज्यादा मायने रखनी चाहिए?
आखिरकार,
मैं समझता हूँ कि प्यार सच्चा होता है,
जब वह खुद से शुरू होता है,
जब हम खुद से प्यार करते हैं,
तब ही हम दूसरों से बिना शर्त प्यार कर सकते हैं।
रिश्ते टूटते हैं,
लेकिन अगर हम खुद को पहचानते हैं,
तो हम फिर से खड़े हो सकते हैं,
बिना किसी के सहारे के।