जब समझ लिया कि शब्द केवल प्रतिबिंब हैं,
कि कठोरता दूसरों की असुरक्षा का स्वरूप है,
तब मन हल्का हो गया,
तब चोट लगनी बंद हो गई।
जो भीतर टूटा है, वही बाहर तोड़ता है,
जो स्वयं से असंतुष्ट है, वही औरों में दोष देखता है।
पर मैं क्यों उनकी परछाईं बनूँ?
क्यों किसी और की पीड़ा को अपना भार मानूँ?
अब मैं मुस्कुराता हूँ, प्रतिक्रिया नहीं देता,
अब मैं करुणा रखता हूँ, क्रोध नहीं।
क्योंकि जान गया हूँ—
दूसरों की कटुता उनकी होती है, मेरी नहीं।
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