मैं न नाम हूँ, न शरीर,
न मन के भाव, न विचारों की लकीर।
मैं न भावनाओं का सागर,
न हृदय की धड़कन का गूढ़ असर।
जो कुछ भी समझा "मैं",
वो सब है छलावा, सब है भ्रम।
ना मैं वह हूं जिसे लोग पुकारें,
ना वो हूं जिसे अपनी आंखें निहारें।
कभी सोचा, कौन हूँ मैं?
क्या ये मांस-पिंड, हड्डियों का संग्राम?
या वो ध्वनि जो कानों में गूंजे हर शाम?
शायद नहीं, ये सब परछाई मात्र है,
सत्य तो उस मौन में छुपा, जो अनन्त है।
मैं न सपनों का कोई अंश,
न कर्मों का जाल, न समय का बंध।
न माया की मूरत, न इच्छाओं का खेल,
मैं तो हूँ बस चेतना का प्रवाह, अमल और सहज।
शून्य हूं, फिर भी पूर्ण हूं।
न जन्म में बंधा, न मृत्यु से भय।
न दिन का गवाह, न रात का परिप्रेक्ष्य।
मैं बस "हूँ" - अनंत, असीम।
सारी पहचानें गिरती हैं चूर,
जब "मैं" की सीमाएं होतीं हैं दूर।
मैं वही हूँ, जो न शब्दों में बंध सके,
न आँखों के सामने प्रकट हो सके।
ओ आत्मा, तेरा सत्य अडिग है।
वो जो न शरीर, न नाम, न मन से जुड़ा है।
साक्षी बन, देख ये खेल तमाशा,
क्योंकि तेरा स्वरूप है शुद्ध, अभेद, और निराश्रय।
मैं कौन हूँ?
मैं वो हूँ, जो सदा मुक्त है,
जिसे किसी पहचान की आवश्यकता नहीं,
जो बस "हूँ"।