वर्षांत समीक्षा



साल के अंत में बैठूं तनिक,
मन के कोने में खोजूं झलक।
क्या पाया, क्या खो दिया,
जीवन के रथ को कैसे मोड़ दिया?

मंथन:
क्या सीखा, क्या पाया,
कौन-सा सपना साकार कराया?
किस भूल ने सबक सिखाया,
किसने नया मार्ग दिखाया?

पुनःस्थापन:
लक्ष्य नए अब तय करें,
मन की धारा से जुड़े रहें।
क्या चाहा, क्या भूल गए,
जो अधूरा था, फिर से गढ़ लें।

पुनः प्रज्वलन:
संकल्प नया, हौसले की बात,
सीखें नई, करें शुरुआत।
सपनों को पंख दे, उड़ान भरें,
जीवन के हर पल को गले लगाएं।

तो आओ, समीक्षा करें स्वयं की,
साल नया हो प्रेरणा की दृष्टि।
संघर्ष, सफलता, और नई राह,
यही है जीवन का सच्चा वृहद पाठ।


अहंकार और विनम्रता





अहंकार का बोझ सिर पर भारी,
दूर कर देता वह प्रभु की सवारी।
दरवाज़ा तो खुला है प्रभु के धाम का,
पर झुकना होगा, यही है काम का।

विनम्रता कमजोर नहीं, यह तो है साहस,
हर जीव में ब्रह्म का सम्मान, यह है अभ्यास।
झुकने में ही सत्य का दर्शन,
हर कण-कण में ब्रह्म का वंदन।

क्यों चिंता करूं औरों के कर्मों की,
फल तो मिलेगा केवल अपने धर्मों की।
यह सृष्टि का नियम, न बदलेगा कभी,
जैसा किया, वैसा भोगेगा सभी।

प्रभु कहते हैं, कर्म की राह पकड़,
और छोड़ दे चिंता, जो दिल में जकड़।
जो करेगा वही पाएगा, यह जीवन का सत्य,
अहंकार से मुक्त हो, यही है श्रेष्ठ।

- दीपक डोभाल


अहंकार का अंत





अहंकार ने मन को अंधा किया,
सत्य से दूर, आत्मा को विछिन्न किया।
परंतु द्वार है खुला उस प्रभु के लिए,
झुकने का साहस चाहिए बस जीने के लिए।

नम्रता वह शक्ति है, कमजोरी नहीं,
यह वह दीपक है, जो अंधकार को छूता नहीं।
हर कण में ब्रह्म की पहचान जो करे,
वही सच्चे अर्थों में जीवन को सहे।

क्यों देखें औरों के कर्म की दिशा?
हमारी गति ही है हमारी परीक्षा।
कर्मों का फल है, वही सत्य का राज़,
स्वयं के कर्मों से बनाएं जीवन का साज।

ईश्वर के द्वार पर शीश झुका दो,
अपने भीतर के दर्प को मिटा दो।
यही है रहस्य, यही है मार्ग,
नम्रता से पाओ प्रभु का द्वार।


विनम्रता और कर्म



विनम्रता का दीप
विनम्रता से मिटता अहंकार,
हरि द्वार पर झुके यह संसार।
गर्व का तिलक जब छूटे,
जीवन का अर्थ तभी फूटे।

नीच झुककर ही ऊँचाई मिले,
द्वार पर सिर झुकाकर सच्चाई खिले।
न यह कमजोरी, न यह भय,
यह तो है ब्रह्म का परिचय।

कर्म की धारा बहती जाए,
फल की चिंता व्यर्थ ही छाए।
श्रीकृष्ण कहते, सुनो यह ज्ञान,
जो बोओगे वही है दान।

जगत में देखो ईश्वर का रूप,
प्रेम और आदर से जुड़ता यह सूत्र।
हर फूल, हर कण, हर श्वास,
यहीं ब्रह्म की हो जाती बात।

जीवन को सादगी से सजाओ,
विनम्रता और कर्म का गीत गाओ।
फल की आशा छोड़ चलो,
ईश्वर में समर्पण का दीप जलाओ।


मैं वही व्यक्ति बनना चाहता हूँ



मैं वही बनना चाहता हूँ,
जो दिल से सबका ख्याल रखता है।
जो मेहनत करता है, बिना किसी झिझक,
जो प्रेम करता है, बिना किसी शक।

मैं वही बनना चाहता हूँ,
जो अपनी भावनाओं को बेबाक जीता है।
जो गहराई में उतरता है,
और उम्मीद की ऊँचाई छूता है।

मैं वही बनना चाहता हूँ,
जो दुनिया की कोमलता पर विश्वास करता है।
जो अच्छाई को देखता है,
हर चेहरे में, हर कथा में।

मैं वही बनना चाहता हूँ,
जो मौके लेता है,
जो डर को जीतता है,
और छिपने से इनकार करता है।

मैं वही बनना चाहता हूँ,
जो हर किसी को महसूस कराता है कि वो दिखे,
जो सच्चाई के साथ खड़ा होता है,
हर परिस्थिति में।

क्योंकि इस कठोर दुनिया को,
और लापरवाही की नहीं, संवेदनशीलता की ज़रूरत है।
क्योंकि सबसे मजबूत वही है,
जो कोमल बना रहता है,
भले ही दुनिया ने उसे कठोरता दिखाई हो।


मैं बनूंगा वो,



मैं बनूंगा वो इंसान, जो परवाह करता है,
जिसके दिल में हर जज़्बात का सैलाब बहता है।
जो बिना हिचक हर कोशिश करता रहे,
और बिना शर्त मोहब्बत का दिया जलाता रहे।

मैं बनूंगा वो, जो अपनी सच्चाई को न छुपाए,
जो अपने एहसासों की गहराई से न घबराए।
जो उम्मीद की चमक से दुनिया को रौशन करे,
और हर दर्द को अपने आँसुओं में बहा दे।

मैं बनूंगा वो, जो इस दुनिया की नरमी पर यकीन रखे,
जो इंसानों की भलाई में अपना दिल लगाए।
जो खुली बाहों से हर एक को अपनाए,
और विश्वास के धागे से रिश्ते बनाए।

मैं बनूंगा वो, जो डर के पीछे न छिपे,
जो हर मौके पर अपना साहस दिखाए।
जो हर बार दुनिया को यह याद दिलाए,
कि नर्मी भी ताकत का रूप हो सकती है।

मैं बनूंगा वो इंसान, जो हर दिल को अपना एहसास दे,
जो हर आंसू को मुस्कान में बदल दे।
क्योंकि इस बेरहम दुनिया को अब जरूरत है,
परवाह करने वालों की, नर्म दिल वालों की।

सच मानो, मैं वो बनूंगा,
जो दुनिया की कठोरता में भी अपनी नरमी न खोए।
जो हर दर्द सहकर भी इंसानियत का दीप जलाए,
और अपने होने का अर्थ हर दिल में छोड़ जाए।


मैं वही बनूँ



मैं वही बनूँ, जो सहेजता हो,
जो हर घाव को, प्रेम से सहता हो।
मैं वही बनूँ, जो हर राह चलने को,
मन में न कोई संकोच रखता हो।

मैं वही बनूँ, जो दिल खोलकर जी सके,
जिसके सपनों में न कोई डर टीके।
जो हर भाव को, हर आशा को,
समर्पण से गले लगाता हो।

मैं वही बनूँ, जो इस जग की नरमी में,
सौंदर्य और सच्चाई को देख सके।
जो हर रिश्ते में विश्वास रखे,
हर दृष्टि में भलाई को खोज सके।

मैं वही बनूँ, जो साहस से भरा हो,
जो अंधेरों में भी उम्मीद जला सके।
जो छुपने से इनकार करे,
जो सच्चाई के लिए खड़ा रह सके।

मैं वही बनूँ, जो हर दिल को देख सके,
जिसकी उपस्थिति, प्रेम का एहसास कराए।
जो हर बार, हर क्षण में,
अपना स्नेहमय हाथ बढ़ाए।

मैं वही बनूँ, जो इस कठोर जग में,
अपनी नरमी न खोने दे।
जो हर चोट पर मुस्कान रखे,
हर कांटे को भी गुलाब माने।

दुनिया को चाहिए ऐसे लोग,
जो संवेदनाओं से भरे हों।
मैं वही बनूँ, क्योंकि यही मेरा सत्य है,
हर दुख, हर प्रेम का साथी हो।


मातृदेवो भव।

मां की आवाज़—सबसे बड़ी नेमत
"मातृदेवो भव।"
(मां देवता समान है।)


घर में गूंजती मां की आवाज़,
जैसे किसी मंदिर में बजता घंटा।
हर शब्द में छिपा होता है प्यार,
हर पुकार में छिपा होता है आशीर्वाद।

मां की आवाज़,
सिर्फ एक ध्वनि नहीं,
यह वो जादू है
जो घर को घर बनाती है।
रसोई से आती उनकी पुकार,
खाने की सुगंध में घुला उनका स्नेह,
जिंदगी का सबसे बड़ा वरदान है।


जब मां बोलती है,
तो लगता है जैसे सृष्टि मुस्कुरा रही हो।
उनकी लोरी,
जैसे आत्मा को सुकून दे।
उनकी डांट भी,
सिखाने का सबसे प्यारा तरीका है।

अगर तुम्हारे घर में
मां की आवाज़ गूंज रही है,
तो जान लो,
तुम सबसे अमीर हो।
क्योंकि यह आवाज़,
सिर्फ आज का सहारा नहीं,
बल्कि जीवनभर की दुआ है।


लेखनी - जो स्वयं लिखती है



मुझे नहीं लिखना होता,
शब्द अपने आप संवरते हैं।
विचार नहीं बुनने पड़ते,
भाव अपने आप उमड़ते हैं।

जैसे गगन में बादल घुमड़ते,
वैसे मन में अर्थ उतरते।
न कोई चेष्टा, न कोई प्रयास,
बस कलम संग चलती है सांस।

यह कहानी मेरी नहीं,
यह तो उस अनंत की वाणी है।
जो मुझसे होकर बहती,
जैसे नदी से जल की रवानी है।

जब शब्द मुझसे पूछते हैं,
"क्या हम तुम्हारे हैं?"
तो मैं मुस्कुरा कर कहता हूँ,
"मैं बस माध्यम हूँ, सृजन तुम्हारे हैं।"

यह जो बहती धारा है,
यह उस शाश्वत का इशारा है।
जहाँ मैं नहीं, केवल वह है,
और हर शब्द उसका सहारा है।

तब समझता हूँ,
यह लेखन मेरा नहीं,
यह उसकी पुकार है।
जो अपने आप लिखती है,
वही तो सच्ची रचना का आधार है।


निज मन को मुक्त करो



दर्द की परछाइयों में क्यूं उलझा है मन,
भूत के भार से क्यों झुका है तन।
आओ, छोड़ दें वो बीते हुए घाव,
जो अब नहीं दे सकते जीवन का सही प्रभाव।

अंधेरों से बाहर, उजाले की ओर,
छोड़ो वो जंजीरें, तोड़ो हर छोर।
हर घाव की गहराई से झांके प्रकाश,
जहां नया सवेरा दे जीवन का आभास।

निष्प्राण हो मन, बनो शांत झील,
जहां न हो लहर, न कोई हठील।
निष्क्रियता में छुपा है सच्चा आराम,
जहां न हो अतीत का कोई भी नाम।

निःशब्द मन, निःशूल प्राण,
यही है स्वतंत्रता, यही है ज्ञान।
छोड़ो दर्द, मुक्त करो आत्मा,
हर क्षण नया है, हर क्षण मातमा।

चलो, निःमन में खोजें नई राह,
जहां न हो अतीत का कोई प्रवाह।
मुक्त हो जाओ, बंधन तोड़ दो,
अपने भीतर का आकाश खोज लो।


अखंड, अचल, अजेय वही



अखंड है, अचल है, अजेय वही,
जिसे न झुका सके कोई शक्ति कभी।
माया की मोहिनी भी हारती है,
वेदों की सीमा वहाँ रुक जाती है।

जो अनादि है, अनंत है, पूर्णतम,
शांत है, शाश्वत है, दिव्यतम।
सबसे ऊपर, परम से भी परे,
उस ब्रह्म में शरण मेरी सदा रहे।

न दीप की लौ, न शब्दों की रीत,
न मन की गति, न तर्कों की जीत।
जो समझ से परे, जो दृष्टि से दूर,
वह सत्य है, वही शुद्ध, वही सूर।

उसकी महिमा का कैसे वर्णन करूँ?
शब्द असमर्थ, मैं कैसे उसे धरूँ?
बस सिर झुकता है, हृदय गा उठता है,
"हे ब्रह्म, तू ही मेरा सब कुछ है।

अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो



क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं,
क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं।
यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना,
इनसे नहीं बनता किसी का जमाना।

आधे हुनर वाले बना रहे हैं इतिहास,
और मैं यहां खड़ा, सोचता बार-बार।
कभी कहूं कि कल करूंगा, कभी कहूं आज नहीं,
ये बहाने मेरे ही सपनों की आवाज नहीं।

मेरा हुनर, मेरी ताकत, मेरा अधिकार है,
जो रोक रहा है, वो मेरा ही विचार है।
हर ठोकर मुझे सिखाने आई है,
हर हार मुझे जीता बनाने आई है।

स्मरण करो गीता का वह महान श्लोक,
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"
कर्म मेरा धर्म है, यह सत्य है,
फल की चिंता, बस व्यर्थ की व्यथा है।

मैं इंतजार क्यों करूं किसी सही समय का,
सही समय वही है, जब मैं कदम बढ़ाऊं।
आत्मविश्वास मेरी राह का दीपक है,
हर चुनौती, हर हार मेरा शिक्षक है।

आओ, अपनी ऊर्जा को सही दिशा में लगाएं,
डर को पीछे छोड़, खुद से वादा निभाएं।
मेरा हुनर, मेरा सपना, मेरी राह बनाएं,
दुनिया को दिखाएं, क्या हम कर दिखाएं।

क्योंकि मैं भी बना हूं, लहरें उठाने के लिए,
और खुद को आसमान तक ले जाने के लिए।
अब न डर, न संशय, बस विश्वास का दीप जलेगा,
जो मैं सोचूं, वही सच होकर खिलेगा।


उत्तरकाशी का आह्वान




जब भी मैं उत्तरकाशी का मन बनाता हूँ,
एक अनजानी ऊर्जा मुझसे लिपट जाती है।
यह केवल उड़ान भरने का विषय नहीं,
यह तो मेरे भीतर के "चेतन"  का जागरण है।

पहाड़ों की ओर कदम बढ़ते ही,
एक अदृश्य क्षेत्र मुझे छूता है।
"प्रकृति" के हर अंश में,
मुझे अपनी आत्मा का स्वर सुनाई देता है।

यह "अद्वितीय"  अनुभव है,
जहाँ शब्द असमर्थ हो जाते हैं।
अगर तुम "संवेदनशील" हो,
तो यह ऊर्जा तुम्हारे हृदय को झकझोर देगी।

पहाड़ों की गहराई में, "शांति" का वास है,
जहाँ हर शिखर पर "अनुभूति"  का विस्तार है।
यह केवल बाहरी यात्रा नहीं,
यह तो भीतर की "अध्यात्मिकता" का आह्वान है।

जब "सुर" और "साधना"  के साथ जुड़े रहते हैं,
तो यह ऊर्जा सदा तुम्हारे साथ रहती है।
उत्तरकाशी का हर कण,
जैसे "दिव्यता"  संदेश है।

मैं जब-जब वहाँ की ओर बढ़ता हूँ,
मेरा अस्तित्व एक नई "चेतना"  में ढल जाता है।
यह स्थान केवल भौगोलिक नहीं,
यह तो "ब्रह्मांड"  की आत्मा है।


स्वयं की खोज



जीवन के पथ पर जब दिशाएँ धुंधली,
न जानें कौन-सी राह हो अनमोल,
उस समय थम कर, स्वयं को देखो,
स्वयं को चुनो, यही है लक्ष्य का संयोग।

स्वयं साधनं, स्वयं का तप,
तन, मन और आत्मा को दो नव स्वरूप।
स्वास्थ्य का दीप जलाओ भीतर,
स्वच्छ बने तन, पवित्र मन के ऊप।

सतत साधना से सुख का संचार हो,
अशांत हृदय में शांति का विस्तार हो।
विषाद के घने बादलों को हटाकर,
खुशी का अभिज्ञान तुम्हारे पास हो।

स्वयंशक्तिः को जगाओ अंतस में,
पथ खोजो स्वयं की आभा के प्रकाश में।
वर्तमान क्षणों में जो हो प्रबुद्ध पूर्ण,
भविष्य की सारी उलझन हो सरल मूल।

संतुलन साधो तन-मन और चेतना,
संस्कार दो स्वयं की हर कल्पना।
साहस भरो आत्म-विश्वास के घट में,
खुद के निखरे रूप की प्रतिमा सजाओ।

जो स्वास्थ्य का हो, जो सौंदर्य का हो,
जो संतोष का हो, वही तुम्हारा मार्ग हो।
स्वयं को खोजो, अपने आत्मरूप को,
अवसाद के कुहासे में बनो सूर्य स्वरूप।

अंत में पथ स्वयं तुम्हें पुकारेगा,
सत्य का स्वर तुम्हें सहर्ष निहारेगा।
स्वयं की यात्रा में तुम ही संगिनी,
स्वयं ही पथिक, स्वयं ही मार्गदर्शनी।

"स्वयंम एव सर्वं निहितं भवतु,
स्वयं परिश्रमः आत्मसिद्धिः भवतु।"

(स्वयं ही सब कुछ भीतर निहित है,
स्वयं का परिश्रम ही आत्म-सिद्धि का मार्ग है।)


शादी का बंधन और भावनाओं का खेल


शादी का बंधन पवित्र, गहरा और अनमोल,
जहाँ दिल जुड़े, और सपने हों गोल।
पर अगर यह बंधन केवल भावनाओं पर टिके,
तो हर बदलती लहर से रिश्ता डगमगाए, बिखरे।

भावनाएँ होती हैं सागर की तरह,
कभी शांत, कभी उफान पर बेअसर।
अगर रिश्ते को केवल इन्हीं पर बसाओ,
तो हर तूफान में अपने को अकेला पाओ।

जुनून का जादू, रोमांस की कहानी,
शुरुआत में लगती है जन्नत सी निशानी।
पर वक्त के साथ जब भावनाएँ बदल जाएं,
तो क्या रिश्ते की जड़ें गहरी रह पाएं?

शादी है सिर्फ महसूस करने का नाम नहीं,
यह है भरोसे और वचन की सच्ची जमीन।
यह समर्पण है, यह विश्वास का सूत्र,
जहाँ हर परिस्थिति में साथी बने संरक्षक।

जब भावनाएँ कमजोर हो, ठंडी पड़े,
तो रिश्ते में नयी ऊर्जा भरें, ना इसे छोड़ें।
यह कहानी है सहने की, सुलझाने की,
प्यार को फिर से जगाने की।

भावनाओं से परे है इस रिश्ते की परिभाषा,
यह है जिम्मेदारी, यह है जीवन की अभिलाषा।
हर चुनौती को साथ में पार करना,
यही है शादी को सच्चा और अडिग बनाना।

तो जब भी मन भटके, और अकेलापन सताए,
याद रखना यह बंधन, जो दिलों को जोड़े और राह दिखाए।
शादी है सदा के लिए, एक वादा, एक अटल विश्वास,
भावनाओं से परे, यह रिश्ता है हर दिन का उजास।


महाज्ञान का पथ


पुस्तकों में नहीं छिपा है, ज्ञान का महासागर,
निःशब्द स्वयम् में बहती है, बुद्धि का सच्चा गागर।
नित मौन में गूंजती, ब्रह्म की गहन वाणी,
जिसे सुन सके वो आत्मा, बने अनंत की कहानी।

योग है जो जोड़ता है, आत्मा को परमात्मा से,
ध्यान की गहराई में, खुलते द्वार सत्य के।
हर क्षण है गुरु-तत्त्व, हर अनुभव है पाठ,
प्रकृति का हर अणु कहता, अनंतता का साथ।

देखो वृक्षों की शाखाओं को, संदेश छिपा है गहन,
जड़ों से जुड़े रहो, पर आसमान छूने का हो जतन।
नदियों की कलकल में है, जीवन का अद्भुत राग,
जो बहा सके स्वयं को, वही समझे ब्रह्म का भाग।

शांत हो जाओ, मौन से पूछो, उत्तर हर सवाल का,
अंतर की आत्मचेतना है, स्त्रोत हर ज्ञान का।
न भटको बाहरी माया में, न बांधो स्वयं को मिथ्या में,
जो पा सके स्वयं का सत्य, वही समर्पित है सत्य में।

गुरु-पूर्णिमा का स्मरण करो, हर तत्त्व गुरु का रूप,
हर दिन, हर क्षण, हर अनुभव, है ज्ञान का अनूप।
तुम्हारा अस्तित्व ही शिव है, तुम्हारी श्वास ही शक्ति,
अपने भीतर के ब्रह्मांड को देखो, वहीं है मोक्ष की भक्ति।

संदेश यह है सरल सा, ब्रह्मांड ही है शिक्षक,
हर अनुभूति, हर सीख, है जीवन का आधार।
मौन की शक्ति समझो, आत्मा की गहराई,
वहीं मिलेगा वो ज्ञान, जो हर मुक्ति दिलाए।


श्रेष्ठ पुरुष के प्रतीक



एक शरीर जो ताजगी और ताकत से भरा हो,
स्वस्थ आदतें, जो उसे दिन-ब-दिन नया रूप दें।
ज्ञान की राह पर जो चलता हो,
पढ़ाई में समृद्ध, हर किताब में नया संसार हो।

आशा से भरा दिल, जो कभी निराश नहीं होता,
हर मुश्किल में वो रौशनी की किरण खोजता है।
घर में सुकून, जहाँ प्यार हो अपार,
वहां शांति और खुशी का अद्भुत आकार।

जो अपनी पत्नी को आराम दे सके,
वह सबसे बड़ा तोहफा है, जो एक पुरुष दे सकता है।
ईमानदारी से जीता, कभी न झुका,
सच्चाई में डूबा, हर कदम को सोच समझ कर रखा।

दोस्तों का साथ, जो सच्चे हों,
जो साथ खड़े रहें, चाहे हो कोई भी मौसम।
आयु से कम दिखे, फिर भी हर दिन जवान रहे,
स्वस्थ जीवनशैली की मिसाल बने।

जो अपने सपनों के पीछे दौड़ता है,
उसकी दुनिया उसके विश्वास से गढ़ी जाती है।
इंटरनेट के झमेले से बचता है,
खुद के रास्ते पर चलता है, बिना किसी हलचल के।

ये हैं पुरुष के वो असली प्रतीक,
जो अपनी जीवनशैली से सबको सिखा जाते हैं।


मैं, ब्रह्मांड का अंश, ब्रह्मांड मुझमें

मैं, एक अणु, जो ब्रह्मांड में विचरता, ब्रह्मांड का अंश, जो मुझमें बसता। क्षितिज की गहराई में, तारे की चमक में, हर कण में, हर क्ष...