जीवन के पथ पर जब दिशाएँ धुंधली,
न जानें कौन-सी राह हो अनमोल,
उस समय थम कर, स्वयं को देखो,
स्वयं को चुनो, यही है लक्ष्य का संयोग।
स्वयं साधनं, स्वयं का तप,
तन, मन और आत्मा को दो नव स्वरूप।
स्वास्थ्य का दीप जलाओ भीतर,
स्वच्छ बने तन, पवित्र मन के ऊप।
सतत साधना से सुख का संचार हो,
अशांत हृदय में शांति का विस्तार हो।
विषाद के घने बादलों को हटाकर,
खुशी का अभिज्ञान तुम्हारे पास हो।
स्वयंशक्तिः को जगाओ अंतस में,
पथ खोजो स्वयं की आभा के प्रकाश में।
वर्तमान क्षणों में जो हो प्रबुद्ध पूर्ण,
भविष्य की सारी उलझन हो सरल मूल।
संतुलन साधो तन-मन और चेतना,
संस्कार दो स्वयं की हर कल्पना।
साहस भरो आत्म-विश्वास के घट में,
खुद के निखरे रूप की प्रतिमा सजाओ।
जो स्वास्थ्य का हो, जो सौंदर्य का हो,
जो संतोष का हो, वही तुम्हारा मार्ग हो।
स्वयं को खोजो, अपने आत्मरूप को,
अवसाद के कुहासे में बनो सूर्य स्वरूप।
अंत में पथ स्वयं तुम्हें पुकारेगा,
सत्य का स्वर तुम्हें सहर्ष निहारेगा।
स्वयं की यात्रा में तुम ही संगिनी,
स्वयं ही पथिक, स्वयं ही मार्गदर्शनी।
"स्वयंम एव सर्वं निहितं भवतु,
स्वयं परिश्रमः आत्मसिद्धिः भवतु।"
(स्वयं ही सब कुछ भीतर निहित है,
स्वयं का परिश्रम ही आत्म-सिद्धि का मार्ग है।)
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