अंतर्मुखी

 मेरी चुप्पी, मेरा संसार

मैं अंतर्मुखी हूँ,
भीड़ से थोड़ा दूर,
शब्दों से ज़्यादा मौन में जीता हूँ,
जहाँ शांति है, वहीं मेरा गुरूर।

मैं सुबह की ख़ामोशी में सांस लेता हूँ,
जब दुनिया अभी जगी नहीं होती,
धूप की पहली किरन जब खिड़की से झाँकती है,
तो लगता है जैसे कोई अपना मुझे देखता हो चुपचाप।

दोपहरें मेरी किताबों की संगिनी हैं,
हर पन्ने में एक नई दुनिया बुनता हूँ।
कभी कविता बन जाता हूँ, कभी कहानी,
तो कभी अपने ही ख्यालों में कहीं गुम हो जाता हूँ।

मैं शाम को अकेले टहलता हूँ,
कदमों की आवाज़ भी धीमी रखता हूँ,
हर पेड़, हर पत्ता मुझसे बातें करता है,
और मैं सिर्फ़ सुनता हूँ... बस सुनता हूँ।

मुझे बहुत कुछ नहीं चाहिए ज़िंदगी से,
बस कुछ सच्चे चेहरे,
कुछ मीठे गाने,
कुछ फिल्में जो दिल छू जाएँ,
और वो लंबी सैरें,
जहाँ खुद से मिल सकूं मैं।

रात की चुप्पी मुझे सुकून देती है,
जब सब कुछ थम जाता है,
तो मेरे भीतर एक नया जीवन चलने लगता है—
विचारों की नदी बहती है,
सवाल और जवाब एक ही पल में मिलते हैं।

मैं, एक अंतर्मुखी,
बाहर की दुनिया को कम ही दिखता हूँ,
मगर भीतर एक ब्रह्मांड बसता है मेरा,
जो हर रोज़, हर पल
अस्तित्व का अर्थ ढूँढता है...
और कभी-कभी, उसे पा भी लेता है।


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मैं ही मेरा विमान हूँ


मैं ही मेरा प्राण हूँ, मैं ही मेरा गगन,
ध्यान की गहराइयों में, होता है मेरा उत्थान।
ना पंख चाहिए, ना कोई द्वार,
जब चित्त हो शांत, तब ब्रह्मांड भी हो साकार।

मेरे ही भीतर हैं लोक अनेक,
स्वर्ग भी मेरा, पाताल भी एक।
जब श्वास पर मेरा राज चले,
तो चिदाकाश में मेरा मन स्वतंत्र फिरे।

नहीं छोड़ता हूँ मैं अपना कक्ष,
फिर भी देख लेता हूँ आकाशपथ।
सूक्ष्म शरीर में उड़ता मैं,
प्रत्येक ग्रह, तारा, योग में गूंथा मैं।

पर यह यात्रा तब संभव होती,
जब आत्मा की अग्नि स्वयं में रोशनी बोती।
परमात्मा को जो जान सके,
वो सृष्टि के पार भी पहचान सके।

मैं नाद हूँ, मैं ओंकार का स्पंदन,
मैं शांत चित्त, मैं प्रज्ञा का बंधन।
मुझे जानो, तो सब कुछ जानोगे,
अपने ही हृदय में ब्रह्मांड पाओगे।

मैं जब प्राण की नाड़ियों में उतरता,
तो हर तारा मुझसे कुछ कहता।
हर लोक का दृश्य मैं बन जाता,
जब साक्षी होकर ध्यान में रम जाता।

इसलिए कहता हूँ –
मैं ही मेरा विमान हूँ, चिदाकाश मेरी राह,
प्राण मेरा रथ, ध्यान मेरा प्रवाह।
मैं चला जब भीतर की ओर,
तो हर लोक मिला मुझे, बिना किसी शोर।