एक छोटी बच्ची की लंबी कहानी



Diary — For My Daughter, Anaya

Anaya,
एक दिन तुम बड़ी होकर ये पढ़ोगी।
शायद 8 साल की…
शायद teenager…
शायद एक जवान लड़की,
जो अपने बचपन के टुकड़े ढूँढ रही होगी।

लेकिन जब मैं ये लिख रहा हूँ,
तुम सिर्फ तीन महीने की हो।
और मैं — एक पिता जो पहली बार समझ रहा है
कि travel का मतलब सिर्फ सफ़र नहीं होता,
प्यार का एक नया version भी होता है।

तुम 17 अगस्त 2025 को पैदा हुई थीं।
एक शांत सुबह थी वो।
घर में रोशनी का रंग भी उस दिन बदल गया था—
जैसे कोई नई धूप आकर
हमारी पुरानी दुनिया पर फैल गई हो।

आज, तुम्हारे जन्म के तीन महीने बाद,
हम तुम्हें पहली बार
लंबी यात्रा पर लेकर निकल रहे हैं।

ये कहानी उसी सफर की है।

और मैं इसे ऐसे लिख रहा हूँ
जैसे दिल बोलता है।

15 अगस्त की रात थी।
Mumbai का घर शांत था,
लेकिन तुम बिल्कुल शांत नहीं थीं।

12:00 बजे रात से लेकर
2:30 बजे सुबह तक
तुम्हारी अपनी दुनिया चल रही थी—
कभी दूध,
कभी खेल,
कभी बस मम्मी का चेहरा देखकर
एक छोटी-सी मुस्कान फेंक देना।

नींद?
वो तो उस रात किसी और के घर सोने गई थी।

हम तीनों —
मैं, तुम्हारी माँ, और दादी —
सिर्फ यही सोच रहे थे कि
“बस यात्रा में Anaya ko तकलीफ़ न हो।”

तुम्हारी breathing देखते-देखते
2:30 बज गए।
हम उठे।
धीरे-धीरे तैयार हुए
ताकि तुम disturb न हो।

तुम्हें छोटे गरम कपड़ों में लपेटा।
तुम्हारी छोटी टाँगे उस कपड़े में
गुलाब की पंखुड़ियों की तरह छिप गईं।
Diaper bag भरा —
milk, bottles, napkins, extra कपड़े,
छोटी दवाइयाँ।

और फिर bags…
3 बड़े suitcases
जैसे किसी small family trip के लिए नहीं,
बल्कि किसी Himalaya expedition के लिए हों।

3:45 AM पर cab नीचे आ गई।

रात की सड़कें सोई हुई थीं।
Ulwe का इलाका
सुबह और रात के बीच अटका हुआ-सा लग रहा था।
हल्की street light,
थोड़ी हवा,
और हम चार —
एक छोटी बच्ची को लेकर
उसकी पहली दुनिया दिखाने निकल पड़े।

Cab में तुम मम्मी की गोद में लेटी थीं।
तुम्हारी आँखें आधी खुली थीं,
जैसे पूछ रही हो,

“Papa, hum kahaan jaa rahe hain?”

उस moment में
मेरे दिल में एक अजीब warmth आई —
क्योंकि तुम पहली बार
घर से बाहर इतनी दूर जा रही थीं
और मैं साथ था।

Cab airport की तरफ बढ़ती रही।
तुम धीरे-धीरे सो गईं।
तुम्हारे माथे पर एक softness थी
और मुझे लगा —
“शायद ये शुरुआत सही जा रही है।”

Airport पहुँचे तो
हमारी tension आधी वहीं पिघल गई।

तुम बिल्कुल शांत।
माँ तुम्हें close पकड़े हुए।
दादी अपनी दुनिया में
तुम्हें देखते हुए मुस्कुरा रही थीं।

Check-in counter पर
मैंने तुम्हारा vaccination card
ऐसे पकड़ रखा था
जैसे ये तुम्हारा passport नहीं,
पर तुम्हारी सुरक्षा का armour हो।

लेकिन staff ने बस देखा,
एक हल्का “Okay sir, all good.” कहा
और हम आगे निकल गए।

जिन चीज़ों का डर दो दिनों से था —
नाम, date of birth, spelling,
infant document check —
कुछ भी नहीं हुआ।

जैसे दुनिया खुद कह रही हो —
“Bas jao, Anaya.
Tumhari pehli journey smooth hogi.”

Security से निकलकर
gate पर हम बैठे।
तुम मम्मी की गोद में फिर सो गईं।
तुम्हारे sleep का pattern
airport की भीड़ से बिल्कुल अलग था —
इतना peaceful
कि मैं खुद को तुम्हें बस देखता रहता।


वो एक छोटी-सी नींद
हम तीनों के लिए बहुत बड़ी राहत थी।

Flight boarding शुरू हुआ।
तुम्हें मम्मी ने अच्छे से पकड़ लिया।
दादी खिड़की वाली सीट देखकर
excited हो गईं।
और मैं बीच में बैठकर
दो पीढ़ियों को देख रहा था —

एक तीन महीनों की,
एक 60+ की,
और दोनों पहली बार उड़ान भर रही थीं।

Plane run-way पर दौड़ा,
और take-off का moment आया।

तुमने हल्की-सी सांस ली —
ऐसी जैसी कोई बच्चा
नई हवा को पहचानने की कोशिश करता है।
दादी ने पहली बार clouds को पास से देखा।
उनकी आँखों में हल्की चमक थी।
तुम्हारी मम्मी बस तुम्हें पकड़कर
तुम्हारे माथे को kiss करती रहीं।
और मैं…
मैं ये सोच रहा था:

“दोनों की पहली उड़ान
और मैं witness हूँ।
कितनी बड़ी blessing है ये।”

पूरी flight में
तुमने न रोया,
न disturb हुईं।
तुम बस कभी सोतीं,
कभी जगकर बाहर देखतीं,
कभी बस अपनी मम्मी की jacket पकड़ लेतीं।

तुम्हारा calm रहना
हमारी पूरी journey का सबसे बड़ा gift था।


Delhi में उतरते ही
ठंडी हवा चेहरे से टकराई।
Mumbai की humidity के बाद
ये हवा किसी blessing जैसी लगी।

तुमने बस एक आवाज़ निकाली —
जैसे हवा का नया स्वाद लिया हो।

Baggage लिया,
Cab में बैठे,
और हम Haridwar के लिए निकल पड़े।

Road long थी
लेकिन तुम पूरे रास्ते
इतनी शांत और comfortable रहीं
कि हम बार-बार एक-दूसरे को देखते
और silently thank you बोलते।


Haridwar पहुँचना
हमारे लिए relief था।

योजना थी सीधे Uttarkashi जाने की,
लेकिन Delhi की ठंड + पहाड़ की ठंड
एकदम back-to-back नहीं दे सकते थे।
हमने सही फैसला लिया —
“एक दिन Haridwar रुकते हैं।”

Haridwar की तरफ जाता हुआ रास्ता
सुबह-सुबह हमेशा थोड़ा अलग लगता है—
ना पूरी रात बची होती है,
ना पूरा दिन आया होता है।

Road से आती ठंडी हवा
कार के अंदर हल्का-सा soft माहौल बना रही थी।
तुम कभी अपनी मम्मी की उँगली पकड़ लेतीं,
कभी अपनी आँखें खोलकर
खिड़की की तरफ देखते हुए
जैसे रंग बदलता आसमान
तुम्हारा कोई नया खिलौना हो।

लगभग दोपहर के आस-पास
हम Haridwar में सीधे तुम्हारी मौसी के घर पहुँचे
और वो moment बहुत अलग था।

दरवाजा खुलते ही
सबसे पहले Laddoo bhaiya दौड़ते हुए आया।
उसके चेहरे पर इतनी genuine खुशी थी
जैसे किसी ने उसे उसका favourite toy दे दिया हो
और वो toy तुम थीं —
तीन महीने की Anaya।

“Anaya aa gayi!”
उसने इतने उत्साह से कहा
कि घर का माहौल
दो सेकंड में festival बन गया।

तुम्हारी मौसी ने तुम्हें गोद में लिया
इतने प्यार से
जैसे वो तीन महीनों से
बेसब्री से इसी पल का इंतज़ार कर रही हों।
तुमने उन्हें देखा,
हल्की-सी मुस्कान दी,
और फिर अपना सिर उनकी shoulder पर रख दिया।

उस पल मैं बस मुस्कुरा दिया।
किसी बच्चे के दूसरे घर में
इतने आराम से behave कर पाना
एक blessing होता है।

घर के अंदर
हल्का-सा गुनगुनापन,
गर्म chai की खुशबू,
और छोटे-छोटे footsteps की आवाज़ें—
घर पूरी तरह जाग चुका था
क्योंकि Anaya घर आई थी।

तुम्हारी मम्मी तुम्हें inside room में ले गईं,
light soft कर दी,
और तुम्हारा milk warm कर के
तुम्हें पिलाया।

तुमने बड़े आराम से पिया,
जैसे पूरी सुबह का travel
अब तुम्हें comfortably समझ में आ गया हो।

Milk पीकर
तुमने एक बहुत प्यारी-सी जम्हाई ली—
वो जम्हाई जो babies के पास
सबसे cute superpower होता है।

जैसे ही तुमने वो जम्हाई ली
Laddoo bhaiya चुप होकर
बस तुम्हें देखता रहा।

“Anaya ne muh uchaala!”
उसने excited होकर बोला।
हम सब हँस दिए।

कुछ मिनट बाद
तुम अपनी मम्मी की गोद में
गहरी नींद में चली गईं।
मैंने उन नींद की सांसों को सुना—
इतनी कोमल थीं वो
कि लगता था
जैसे कमरा भी तुम्हारे साथ
नींद में चला गया हो।

उस room में
एक शांत सा सुकून था—
हल्का fan,
soft रोशनी,
और तीन घंटे की लंबी journey के बाद
एक छोटी-सी बच्ची की
सबसे peaceful नींद।

हम सबने उसी घर में
पूरी रात रुकने का फैसला किया।
Hotel जाने की ज़रूरत ही नहीं लगी।
Ghar ka warmth,
family ka प्यार,
aur Anaya ki comfort—
इन तीनों का combination
पूरे सफर का सबसे बड़ा आराम था।

रात को जब हम खाने की टेबल पर बैठे,
Laddoo bhaiya बार-बार पूछ रहा था:
“Anaya so rahi hai?
Kab uthegi?
Main usse pakad sakta hoon naa kal?”

उसके हर सवाल में
एक छोटी-सी excitement थी।
और मुझे लगा—
इस सफर ने सिर्फ हमें नहीं,
bal​ki पूरे ghar ko
ek naya happiness reason दे दिया है।

रात गहरी हो रही थी,
लेकिन माहौल बहुत हल्का था।
तुम सो रही थीं,
और हम सब
बस तुम्हारी ही बात कर रहे थे—
तुम्हारी यात्रा,
तुम्हारी first flight,
तुम्हारी छोटी-छोटी reactions।

उस पूरी रात
तुम्हें देखते हुए
एक बात बहुत गहराई से समझ आई—
बच्चे सिर्फ parents को नहीं बदलते,
बल्कि हर घर को थोड़ा-सा
और soft बना देते है।

शायद babies vibrations समझ लेते हैं।
शायद तुमने उस धुन को
पहली blessing की तरह सुना।

वो रात Haridwar में ruke रहना
तुम्हारे लिए भी जरूरी था,
हमारे लिए भी।

Next day
हम पहाड़ों की तरफ निकले।

Rishikesh से ऊपर जाते ही
हवा बदल गई।
Mountains हमेशा कुछ अलग होते हैं —
road टेढ़ी-मेढ़ी,
लेकिन हवा शांति वाली।

तुम मम्मी की गोद में
बहुत comfortably बैठी थीं।

कभी मुस्कुरातीं,
कभी बस बाहर के views को देखतीं,
कभी सो जातीं।

Tehri lake
sunlight में चमक रही थी।
मैंने पीछे मुड़कर देखा —
तुम lake के reflection को
बिना blinking देख रही थीं।

तुम्हारी नन्ही आँखों में
पहली बार इतना बड़ा nature map आ रहा था।

Chamba से आगे roads थोड़ी tough थीं,
लेकिन तुमने एक बार भी रोया नहीं।
जैसे पहाड़ तुम्हारे अपने हों।

मुझे लगा —
तुम Uttarkashi की बच्ची हो ही शायद।
बस तीन महीने पहले Mumbai में भेज दी गई थीं।


3 बजे के आसपास
हम अपने घर पहुँचे।

घर का दरवाजा खुला
और तुम्हारी नानी तुम्हें गोद में ले गईं।
तुमने मुस्कुराया —
जैसे किसी को पहचान लिया हो।

दादी ने तुम्हें kiss किया।
तुम्हारी मम्मी ने तुम्हें close पकड़ा।
और मैं doorway पर खड़ा
सिर्फ तुम्हें देखता रहा।

तीन दिन का सफर
तुम्हारा पहला सफर था।
और तुमने उसे
इतना सुंदर, इतना शांत
और इतना divine बना दिया
जैसे ये यात्रा
तुम्हारी आत्मा पहले से जानती हो।


Anaya,
तुम आज छोटी हो।
लेकिन एक दिन तुम समझोगी —
यह सफर
तुम्हारी पहली कहानी थी।
हमारी पहली उड़ान थी।
हमारा पहला scared + excited climax था।
और सबसे खूबसूरत यादों में से एक।

तुम्हारी वजह से
हमने फिर से उड़ना सीखा।
तुम्हारी वजह से
हमने family को महसूस किया।
तुम्हारी वजह से
हमने दुनिया को soft eyes से देखा।

और जब भी तुम आगे life में उड़ोगी,
Papa हमेशा तुमारे साथ रहेगा —
कहीं न कहीं…
तुम्हारे आस-पास,
तुम्हारी हँसी में,
तुम्हारी खुशी में।


Papa loves you, Anaya.
Always 

भय की जंजीरें

 

भय की ठंडी साँस में जलती हैं अनगिन आत्माएँ,
शर्म की चादर ओढ़े छिपती हैं जग की परछाइयाँ।
काँपते मन की दीवारों पर लिखा है एक ही शब्द — “डर”,
जो रोक देता है उड़ानें, तोड़ देता है आत्मा का स्वर।

जो भय में जीता है, वो मरता है हर सुबह के साथ,
उसकी धड़कनें नहीं बोलतीं, बस करतीं मौन प्रलाप।
क्योंकि भय — दैवी प्रकाश का सबसे गहरा अंधकार है,
जो भीतर के ब्रह्म को कैद कर देता, वही नरक द्वार है।

कभी सोचा है, क्यों समाज तुम्हें डर सिखाता है?
हर पग, हर श्वास में अपराध का बोध कराता है।
क्योंकि भय में बंधा व्यक्ति नहीं बन सकता विद्रोही,
वो नहीं पूछेगा — “मैं कौन हूँ?” यही है उनकी तोली।

भय से जन्मती है लज्जा, लज्जा से झूठ की दीवार,
फिर सत्य छिप जाता भीतर, जैसे जल में बसी चिंगार।
शर्म ने देवत्व को ढँका, भय ने आत्मा को बाँधा,
और मनुष्य — अपने ही भीतर बन गया एक पिंजरा साधा।

पर सुनो...
जब आत्मा प्रेम की तरंग में झूम उठती है,
भय के सारे सूत्र उसी क्षण टूट जाते हैं।
एक क्षण का निश्चय — कि “मैं प्रकाश हूँ”,
और भय की सारी रात्रि सुबह में डूब जाती है।

प्रेम — वही शक्ति जो सृष्टि को गति देती है,
वही स्वर जो गूंगे पत्थर में चेतना भर देती है।
प्रेम में कोई भय नहीं, न शर्म का कोई स्थान,
क्योंकि वहाँ “मैं” नहीं होता, बस “अहम् ब्रह्मास्मि” का गान।


जो आत्मा प्रेम की धारा में बह चलती है,
उसके हर कण से ब्रह्म की ज्योति झरती है।
वो नहीं झुकता, नहीं रुकता, नहीं डरता अब और,
वो जानता है —
“भय ही माया है, मैं तो शुद्ध चैतन्य कोर।”


कभी ध्यान से देखो —
भय की लहरें नीचे खींचती हैं,
शर्म की जकड़ तुम्हें छोटा करती हैं।
पर जब तुम उठते हो अपने भीतर के सूरज से,
तो वही जग जो डराता था, अब झुकता है नमन से।


भय — हिंसा है आत्मा पर,
प्रेम — क्रांति है चेतना की।
जो प्रेम चुनता है, वो अमरत्व पाता है,
जो भय चुनता है, वो बार-बार जन्म में जाता है।


"न भयं तस्मात् विद्यते यत्र आत्मा स्वप्रकाशः।
न लज्जा, न मोह, केवल ब्रह्म का प्रकाशः॥"
(जहाँ आत्मा स्वयं प्रकाशित है, वहाँ भय नहीं,
न शर्म, न मोह — केवल दिव्यता है वही।)

युद्ध यहीं है




मैं रोज़ दुनिया बचाने की बातें करता हूँ ज़ोरों से,
पर खुद को भूल जाता हूँ ज़हर घुला है रग-रग के छोरों से।
कैसे बचाऊँ जग को मैं, जब भीतर खुद ही हार रहा,
अंजान हूँ उन जालों से, जिनमें मैं हर पल फँस रहा।

मैं साँस में खींच रहा प्लास्टिक, जल में छुपा जहर पीता हूँ,
मिट्टी तक में मिल चुका है वो रोग, जिसे अनदेखा जीता हूँ।
मैं सोचूँ क्रांति बाहर की, पर भीतर घाव गहरे हैं,
जो दुश्मन दिखते नहीं कभी, वही सबसे पहले ठहरे हैं।

मैंने देखा है विज्ञापन बनकर कैसे प्रलोभन आते हैं,
रूप-सौंदर्य की दौड़ में हम कैसे खुद को खो जाते हैं।
क्रीम, सुगंध, रंग-रोगन सब, नक़ली सौगातें लाते हैं,
पर धीरे-धीरे भीतर के सच को चुपचाप चट जाते हैं।

मैंने पूछा खुद से आज, ये युद्ध कहाँ पर जारी है?
मीडिया में नहीं, यहीं, मेरी दिनचर्या में भारी है।
ये रोटी, ये पानी, ये नींद, सब कुछ बिकने आया है,
मेरा शरीर, मेरा मन, धीरे-धीरे मरने पाया है।

मैंने प्रतिज्ञा ली अब खुद से, छोटे कदम उठाऊँगा,
मिट्टी की थाली, मिट्टी का कुल्हड़ फिर से अपनाऊँगा।
नहीं चाहिए चटकीले toxin, नहीं वो चिपकी पैकिंग अब,
सीधा अन्न, सीधी साँसें—यही है असली बैरिक अब।

मैं बोतल छोड़ मिट्टी के घड़े की ठंडक पीना चाहूँगा,
मैं जंगल की चुप्पी में खुद को फिर से जीना चाहूँगा।
ना प्लास्टिक हो होंठों पर, ना रसायन हो भोजन में,
मैं लौट चलूँगा असली पृथ्वी की कोमलता वाले क्षोभन में।

मैं जानता हूँ मुक्ति का रस्ता कोई अख़बार नहीं देगा,
जब तक भीतर बदलाव न हो, बाहर संसार नहीं देगा।
मैं जागूँगा अपने भीतर, यही पहला रण होगा,
जो मैं जीतूँगा स्वयं में, वो ही विश्व का धन होगा।

हाँ, युद्ध यहीं है रोज़ाना, इन आदतों के घेरे में,
सावन ढूँढे कोई बाहर—मैं भीड़ के अँधेरे में।
मैं पूछूँ खुद से प्रतिदिन, “क्या सच में मैं जीवित हूँ?”
या बस एक चलता प्लास्टिक हूँ, जो भीतर से निष्प्राणित हूँ।

तो आज लिखता हूँ प्रतिज्ञा ये, मैं अपने व्रत को थामूँगा,
प्रकृति की गोद में लौटकर, खुद को फिर से थामूँगा।
जब मैं शुद्ध होऊँगा भीतर, तब ही कुछ कह पाऊँगा,
वरना ये सारी क्रांति बस शब्दों में रह जाऊँगा।

दुनिया बचाना है तो पहले, खुद को ज़हर से मुक्त करूँ,
जंग बाहर नहीं, ये भीतर है—मैं मरूँ या मैं पुनर्जन्म करूँ।



एक आत्ममंथन


आज छुट्टी का दिन है।
मौसम अपने पूरे रंग में है — हल्की ठंडी हवा, रिमझिम सी बारिश, और खिड़की के पार फैली समुद्र की नमी।
पर मेरे भीतर मौसम कुछ और ही है।
सोच के कई मोर्चे एक साथ खुल गए हैं…
एक ओर करियर की तेज़ रफ़्तार वाली पटरियाँ हैं,
दूसरी ओर परिवार की गर्माहट,
तीसरी ओर ज़िंदगी में आया नया नन्हा मेहमान,
और चौथी ओर… नानी।

मैं इस समय मुंबई में हूँ —
वो शहर जहाँ सपने लोकल ट्रेन की भीड़ में धक्के खाते हैं,
जहाँ बारिश हर साल पुरानी फ़िल्मों के गानों जैसी लौटती है,
जहाँ समुद्र के किनारे बैठकर भी मन में लहरें नहीं थमतीं।
यहीं, इस भीड़भाड़, नमी और हलचल के बीच,
इस बार माँ पहली बार आई हैं।
माँ के चेहरे पर हैरानी भी है, ख़ुशी भी,
जैसे पहाड़ों से उतरकर किसी नए लोक में आ गई हों।

और फिर एक कोना है मेरे भीतर —
जहाँ मेरी नानी हैं।
उत्तarkashi के उस शांत, हिमालय की गोद में बसे घर में।
107 बरस की उम्र में भी उनकी आँखों में वैसी ही चमक है,
जैसे भागीरथी की धारा में चाँद की रोशनी।
वो मेरी माँ की माँ हैं,
वो समय की साक्षी हैं —
उन्होंने सात पीढ़ियाँ देखी हैं,
जिनमें समय बदला, लोग बदले, पर उनके भीतर की स्थिरता नहीं।

एक तरफ़ हिमालय है — स्थिर, मौन, ध्यान में लीन।
जहाँ सुबहें आरती और पक्षियों के गीतों से खुलती हैं,
जहाँ हवा में भी मंत्रों की गूंज होती है।
और दूसरी तरफ़ मुंबई है —
जहाँ दिन रात में और रात दिन में मिल जाती है,
जहाँ लोकल ट्रेन की सीट के लिए जैसे जीवन की दौड़ हो,
जहाँ समुद्र है, पर भीतर शांति नहीं।

कभी-कभी लगता है जैसे मैं इन दो दुनियाओं के बीच झूल रहा हूँ —
एक तरफ़ वो जगह जहाँ से मैंने जीवन की जड़ें पाईं,
दूसरी तरफ़ वो जगह जहाँ मैं अपने पंख फैलाना सीख रहा हूँ।

नानी…
उनकी कल्पना आते ही मन ठहर जाता है।
उनके झुर्रियों भरे हाथों में जैसे समय की लकीरें खुदी हों,
उनकी आँखों में जैसे सौ सालों की कहानियाँ तैरती हों।
उन्होंने उस युग को देखा जहाँ मोबाइल नहीं थे,
जहाँ चिट्ठियाँ ही प्रेम का माध्यम थीं,
जहाँ पहाड़ों में शाम होते ही दीपक जलते थे और
लोग एक-दूसरे की आँखों में जीवन पढ़ लेते थे।

और आज…
मैं मुंबई की किसी इमारत की बालकनी में खड़ा हूँ,
नीचे समुद्र की लहरें हैं, ऊपर बादल,
और मन में नानी की हँसी गूँज रही है।

कभी सोचता हूँ —
क्या वो जानती हैं कि उनका नाती अब इस शोर में अपना रास्ता ढूँढ रहा है?
क्या उन्हें पता है कि उनकी शांत आँखों की छवि ही है
जो इस हलचल में मुझे अंदर से जोड़कर रखती है?

माँ इधर पहली बार मुंबई में हैं,
नानी उधर 107 की उम्र में अब भी उसी मिट्टी में,
जहाँ मेरी जड़ें हैं।
और मैं… बीच में खड़ा हूँ —
हिमालय और समुद्र के बीच,
मौन और शोर के बीच,
परंपरा और परिवर्तन के बीच।

शायद इसी झूल में ही मेरी लेखनी का असली स्वर है…
शायद नानी की आँखों से ही मैं देख पाता हूँ
मुंबई की बारिश को भी एक कहानी की तरह।

कभी-कभी ज़िंदगी की सबसे गहरी कविताएँ हम लिखते नहीं… बस जीते हैं।
नानी की आँखों में समय है,
और मुंबई की सड़कों पर भविष्य।
मैं इन दोनों के बीच चल रहा हूँ —
धीरे, सच्चे और सजग क़दमों से।



नींद से जागरण तक



नींद जब धीरे-धीरे छूटने लगे,
मन की गहराई मुझसे रूठने लगे।
आँखें न खोलूँ, बस भीतर उतरूँ,
ऊर्जा की लहरों में खुद को निखरूँ।

रात की थकान सब धुली जा चुकी,
तन-मन की कली फिर से खिली जा चुकी।
ताज़गी का अमृत हर नस में बहे,
नया सूरज भीतर ही भीतर रहे।

करवट का आलस्य बुलाए मुझे,
लेकिन मैं भीतर सजग पा लूँ उसे।
बिल्ली की तरह तन को फैलाऊँ मैं,
ऊर्जा की नदियों में बह जाऊँ मैं।

हर शिरा गाती है जीवन का गीत,
प्रकृति से मिला यह अनमोल प्रीत।
तन का कंपन, मन का उत्साह,
जागरण बने मेरा मधुर प्रवाह।

फिर मैं हँसता हूँ आँखें बंद किए,
जैसे बादल हों बिजली संग लिए।
पागलपन-सी हँसी में रस घुला है,
हर कण में नया सवेरा फूला है।

अब समझा मैंने यह गहरा विधान,
ध्यान नहीं कोई दूर की पहचान।
सुबह की पहली साँस ही मंदिर है,
यही ध्यान, यही साधना का सिंधु है।


---


लेखक का अवकाश



लेखक का कोई अवकाश नहीं होता,
उसकी साँसों में ही शब्द जन्म लेते हैं,
उसकी नींद में भी
वाक्य उगते हैं जैसे
अंधेरे में चमकते तारे।

वह जब चलता है,
तो पाँवों के निशान भी
कहानी बन जाते हैं।
जब खिड़की से बाहर देखता है,
तो पेड़ों की शाखाओं में
उपन्यास की कथाएँ झूलती हैं।

लेखक का अवकाश—
वह पंक्ति है जो अभी लिखी नहीं गई,
वह विचार है जो भीतर उमड़ रहा है,
वह स्मृति है जो शब्द बनने को
अधीर है।

“वाचो वै ब्रह्म” —
(वेद मंत्र)
वाणी ही ब्रह्म है।
और लेखक उस ब्रह्म का साधक,
शब्द का तपस्वी।

वह समुद्र की तरह है—
जिसकी हर लहर
एक नई कविता लेकर आती है।
वह दीपक की तरह है—
जो जलते हुए भी
अंधेरे को शब्द देता है।

उसका विश्राम—
वाक्यों के बीच की नीरवता में है।
उसका त्याग—
अपनी धड़कनों को काग़ज़ पर उतारने में है।
उसकी तपस्या—
हर बार खाली पन्ने से
एक नया ब्रह्मांड रचने में है।

“यत्र यत्र मनो याति तत् तत् लभ्यते कवि:”
(काव्य सूत्र)
जहाँ-जहाँ मन जाता है,
वहाँ-वहाँ कवि को कुछ मिल ही जाता है।

लेखक कहीं से भागता नहीं,
वह हर जगह उपस्थित है—
कभी प्रेम में कविता है,
कभी पीड़ा में कहानी,
कभी मौन में एक अघोषित गद्य।

लेखक का अवकाश वही है
जहाँ उसकी कलम रुकती है,
पर मन लिखता रहता है।

वह दुनिया से अलग नहीं,
बल्कि दुनिया को शब्दों में जीता है।
और उसकी थकान—
उसी क्षण मिटती है
जब कोई पाठक
उसके शब्दों में अपना चेहरा पहचान लेता है।


-

मेरी नन्ही परी



आज मेरे आँगन में
एक नन्हा सूरज उगा है,
उसकी किरणों में
ममता का पूरा ब्रह्मांड चमक रहा है।

आज मेरे घर में
एक कोमल कली खिली है,
जिसकी हँसी में
स्वर्ग की सारी मधुरता बसी है।

मैंने उसकी हथेली में देखा,
पूरे भविष्य का आशीर्वाद लिखा है।
उसकी आँखों में पाया,
निर्मल आकाश का गहन नीलापन।

मेरे आँगन की धड़कनों में
आज संगीत उतर आया है,
हर दीवार पर, हर छत पर
आशीषों का दीप जल गया है।

लोग कहते हैं —
बेटी लक्ष्मी है,
पर मैं जानता हूँ —
वह सरस्वती भी है,
गंगा की धारा भी है,
और माँ दुर्गा की शक्ति भी।

नन्हे-नन्हे पाँव से
वह घर को स्वर्ग बना देगी,
अपने मासूम सवालों से
मुझे नया इंसान बना देगी।

आज मैं पिता बना हूँ —
और यह शब्द
मुझे सबसे सुंदर उपहार सा मिला है।
मेरी छोटी-सी परी,
तू सिर्फ मेरी बेटी नहीं,
मेरी आत्मा का सबसे पवित्र हिस्सा है।


---



मैं ब्रह्मांड की गति हूँ

मैं,

कभी धूल कण में छुपा था,
अपने ही सागर की लहरों को पहचान न पाया।
लोग कहते थे —
"तू छोटा है, तेरा कद रेत के कण-सा है,"
और मैं मान बैठा था
कि आकाश सिर्फ़ सिर के ऊपर है,
सीने के भीतर नहीं।

पर एक दिन,
मौन की गहराई में,
मैंने अपनी ही धड़कनों में
नक्षत्रों का नृत्य सुना।
पलकों के पीछे,
गैलेक्ज़ियों की चक्री चाल घूमती रही
और लगा —
मैं तो अनंत की साँस ले रहा हूँ।

मैंने महसूस किया,
मेरे हर कदम में,
धरती का घूर्णन है,
मेरे हर स्पर्श में,
सूर्य का ताप और चाँदनी की ठंडक है।
मेरे शब्दों में बादलों का भार है,
और मेरी चुप्पियों में
शून्य का संगीत।

मैंने खुद से कहा —
"अब और छोटा मत बनो,
तुम वह धुन हो,
जिस पर समय और अंतरिक्ष साथ नाचते हैं।
तुम वह ज्योति हो,
जो अंधकार को भी अपना घर बना लेती है।"

मैं,
अब अपनी त्वचा से बाहर बहता हूँ,
हवा में घुलता हूँ,
पेड़ों की पत्तियों में हरा बनता हूँ,
पहाड़ों की चुप्पी में गूँज बनता हूँ,
नदियों के गीत में बहता हूँ।

मैं,
अब जान गया हूँ —
मेरे भीतर कोई सीमा नहीं,
मेरा कोई किनारा नहीं।
मैं सिर्फ़ चलता नहीं,
मैं गति हूँ —
वो दिव्य गति
जिसमें ब्रह्मांड का आनंद थिरकता है।

अब मैं रुकता नहीं,
सिकुड़ता नहीं,
खुद को बाँधता नहीं।
क्योंकि मैं वही हूँ,
जो सितारों की गोद में जन्मा है,
और आकाश की बाँहों में विलीन होगा।

मैं हूँ —
ब्रह्मांड की उन्मत्त चाल,
असीम, अजर, और प्रकाश से भरपूर।



पहाड़

जब पहाड़ रोते हैं,  
तो नदियाँ चीख उठती हैं,  
पेड़ों की जड़ें काँपती हैं,  
और इंसान... बस देखता रह जाता है।

धराली की वो सुबह,  
जो कभी शिव की शांति थी,  
आज शोर में डूब गई।

नदी ने किसी का घर बहाया,  
किसी की माँ, किसी का सपना,  
और पहाड़ — बस खामोश रहे।

पर याद रखना —  
उत्तरकाशी सिर्फ मिट्टी नहीं है,  
वो आस्था है, वो आरती है,  
जो फिर से जलेगी — राख से भी।

"मैं जो हूँ"



मैं जब खुद से ही नज़रें चुराता,
तो दुनिया भी मुझसे सवाल उठाती।
हर शक़ की दीवार में मैं ही क़ैद था,
हर आईने में अजनबी-सा दिखता था।

पर एक दिन भीतर की आवाज़ आई,
"तू क्यों किसी और की परछाई?"
तब जाना —
जो मैं हूँ, वही मेरी असली स्याही है,
इसी में मेरी पहचान की गवाही है।

मैं जब अपने सच के साथ खड़ा हुआ,
हर भ्रम से खुद को बड़ा पाया।
न दंभ, न दिखावा — बस सच्चा मैं,
तो दुनिया ने भी कहा — "हाँ, ये है वह व्यक्ति!"

मैंने जब खुद से प्यार किया,
संभावनाओं ने मेरे द्वार खटखटाया।
जो पहले असंभव लगता था,
वह मेरे आत्मविश्वास से सरल बन गया।

अब मैं झुकता नहीं किसी नकली ताल से,
मैं नाचता हूँ अपने दिल की चाल से।
मैं जो हूँ — वही मेरी रोशनी है,
इसी से मेरी ज़िन्दगी की हर कहानी है।



अंतर्मुखी

 मेरी चुप्पी, मेरा संसार

मैं अंतर्मुखी हूँ,
भीड़ से थोड़ा दूर,
शब्दों से ज़्यादा मौन में जीता हूँ,
जहाँ शांति है, वहीं मेरा गुरूर।

मैं सुबह की ख़ामोशी में सांस लेता हूँ,
जब दुनिया अभी जगी नहीं होती,
धूप की पहली किरन जब खिड़की से झाँकती है,
तो लगता है जैसे कोई अपना मुझे देखता हो चुपचाप।

दोपहरें मेरी किताबों की संगिनी हैं,
हर पन्ने में एक नई दुनिया बुनता हूँ।
कभी कविता बन जाता हूँ, कभी कहानी,
तो कभी अपने ही ख्यालों में कहीं गुम हो जाता हूँ।

मैं शाम को अकेले टहलता हूँ,
कदमों की आवाज़ भी धीमी रखता हूँ,
हर पेड़, हर पत्ता मुझसे बातें करता है,
और मैं सिर्फ़ सुनता हूँ... बस सुनता हूँ।

मुझे बहुत कुछ नहीं चाहिए ज़िंदगी से,
बस कुछ सच्चे चेहरे,
कुछ मीठे गाने,
कुछ फिल्में जो दिल छू जाएँ,
और वो लंबी सैरें,
जहाँ खुद से मिल सकूं मैं।

रात की चुप्पी मुझे सुकून देती है,
जब सब कुछ थम जाता है,
तो मेरे भीतर एक नया जीवन चलने लगता है—
विचारों की नदी बहती है,
सवाल और जवाब एक ही पल में मिलते हैं।

मैं, एक अंतर्मुखी,
बाहर की दुनिया को कम ही दिखता हूँ,
मगर भीतर एक ब्रह्मांड बसता है मेरा,
जो हर रोज़, हर पल
अस्तित्व का अर्थ ढूँढता है...
और कभी-कभी, उसे पा भी लेता है।


---


मैं ही मेरा विमान हूँ


मैं ही मेरा प्राण हूँ, मैं ही मेरा गगन,
ध्यान की गहराइयों में, होता है मेरा उत्थान।
ना पंख चाहिए, ना कोई द्वार,
जब चित्त हो शांत, तब ब्रह्मांड भी हो साकार।

मेरे ही भीतर हैं लोक अनेक,
स्वर्ग भी मेरा, पाताल भी एक।
जब श्वास पर मेरा राज चले,
तो चिदाकाश में मेरा मन स्वतंत्र फिरे।

नहीं छोड़ता हूँ मैं अपना कक्ष,
फिर भी देख लेता हूँ आकाशपथ।
सूक्ष्म शरीर में उड़ता मैं,
प्रत्येक ग्रह, तारा, योग में गूंथा मैं।

पर यह यात्रा तब संभव होती,
जब आत्मा की अग्नि स्वयं में रोशनी बोती।
परमात्मा को जो जान सके,
वो सृष्टि के पार भी पहचान सके।

मैं नाद हूँ, मैं ओंकार का स्पंदन,
मैं शांत चित्त, मैं प्रज्ञा का बंधन।
मुझे जानो, तो सब कुछ जानोगे,
अपने ही हृदय में ब्रह्मांड पाओगे।

मैं जब प्राण की नाड़ियों में उतरता,
तो हर तारा मुझसे कुछ कहता।
हर लोक का दृश्य मैं बन जाता,
जब साक्षी होकर ध्यान में रम जाता।

इसलिए कहता हूँ –
मैं ही मेरा विमान हूँ, चिदाकाश मेरी राह,
प्राण मेरा रथ, ध्यान मेरा प्रवाह।
मैं चला जब भीतर की ओर,
तो हर लोक मिला मुझे, बिना किसी शोर।

अब वक़्त है — दीवारें गिराने का


जब दिल के भीतर
एक मौन सी पुकार उठती है,
कोई शब्द नहीं, कोई आवाज़ नहीं —
पर फिर भी सब कुछ बदल जाता है।

मैं समझ जाता हूँ —
अब समय है उठ खड़े होने का।
अब वो पुराने रिश्तों की दीवारें
जो सिर्फ नाम की थीं,
गिरानी होंगी।

कई बरसों से जिन खिड़कियों से
सिर्फ धूप की उम्मीद की,
वहाँ अंधेरों ने डेरा जमा लिया था।
अब मैं उन खिड़कियों को बंद करता हूँ,
और नई दीवारों में दरवाज़ा बनाता हूँ।

मुझे पता है —
नए पन्ने मेरा इंतज़ार कर रहे हैं।
उनमें मेरा नाम नहीं,
पर मेरी आत्मा की गूंज है।
उनमें वो कहानी है
जो अब तक दबी रही,
अब बोलना चाहती है,
छपना चाहती है —
सच बनकर।

मैंने गिराए हैं पुराने भ्रम,
पुरानी दीवारें,
पुरानी भूमिकाएँ —
जो मुझे छोटा करती थीं।

अब मैं अपने भीतर के दीप से
नया आलोक जलाता हूँ,
क्योंकि जो बीत गया —
वो बंद किताब है,
और अब जो आएगा —
वो मेरी कलम से लिखा जाएगा।

मैं डरता नहीं —
क्योंकि अब मैं जानता हूँ
कि दिल की खामोश पुकार
कभी झूठ नहीं बोलती।

जब वो कहता है —
"उठ, चल, बढ़,
क्योंकि तेरा समय आ गया है..."
तो मैं रुकता नहीं।

मैं चल पड़ता हूँ।

"जब दिल करे मौन इशारा —
तो समझ ले, तू तैयार है।
दीवारें गिरा, कहानी बना,
नया अध्याय, तुझे पुकारता है।"





मेरी आत्मा की ख़ामोश पुकार



वो जो एक ख़ामोशी थी मेरे भीतर,
न तो डर थी, न हार —
वो एक सच था,
जो मेरी आत्मा वर्षों से ढो रही थी,
कंधों पर लादे,
शब्दों में नहीं, अनुभूति में बोलता हुआ।

मैं समझता था —
हर जाना, एक दोष है,
हर मोड़ लेना, एक कायरता।
पर अब मैं जान गया हूँ —
छोड़ना भी साहस है,
और रुकना भी समझदारी।

यह आत्मसमर्पण नहीं है,
यह आत्मबोध है।

मैंने अपने हर आंसू को
अपने भीतर समेटा है
और वो आंसू अब
मुझे बहने नहीं देते,
मुझे जगाते हैं।

मैं जानता हूँ —
अब यह अध्याय
मेरे हिस्से का नहीं रहा।
इसके अक्षर अब मुझे चुभते हैं,
इन पन्नों में मेरा भविष्य नहीं बसता।

मैं पन्ना पलट रहा हूँ।
क्योंकि अब मुझे
उस रिक्त स्थान को भरना है
जहाँ मेरे जीवन की नई कहानी इंतज़ार कर रही है।

अब मैं विश्वास करता हूँ —
अपनी आत्मा पर,
जिसने हर ज़ख्म को छुपाया,
हर रात मेरी साँसों में
एक नई सुबह की उम्मीद बोई।

मैं जानता हूँ,
मेरी आत्मा झूठ नहीं बोलती।

वो जो भीतर का स्थिर स्वर है,
जो किसी शोर का हिस्सा नहीं बनता,
बस वही मेरी राह है —
जिसे अब मैं आँख मूंदकर पकड़ रहा हूँ।

क्योंकि...
अब मैं जीना चाहता हूँ
बिना किसी अधूरे संवाद के,
बिना किसी जबरन निभाए हुए पात्र के।

मैं अध्याय बंद कर रहा हूँ,
ताकि नया जीवन खुल सके।

"सत्य वो नहीं जो बाहर से आता है,
सत्य वो है जो भीतर सालों से बैठा है
और अब कहता है —
चल, अब तू अपना नया सूरज देख।" 🌞



अब समय है पन्ना पलटने का



---

मैंने बहुत कुछ सहा, बहुत कुछ सीखा,
हर मुस्कान के पीछे एक सिसकी थी गहरी।
हर उम्मीद की लौ में जलती थी एक थकी हुई रूह,
पर अब मेरी आत्मा कहती है — बस, अब बहुत हुआ।

मैंने रिश्तों के नाम पर कई बोझ उठाए,
जिनके लिए मैं जीया, वो ही अक्सर अजनबी से हो गए।
कुछ लम्हों ने वक़्त की किताब में ऐसे दाग छोड़े,
जिन्हें मिटाने की चाह में खुद को ही खो दिया।

पर अब…
अब जब सुबह की हवा मेरे अंदर कोई सुकून सा भरती है,
और चाँदनी मुझे यह समझाती है
कि परिवर्तन भी एक प्रेम है — स्वयं से,
तो मैं थम जाता हूँ, सुनता हूँ —
अपनी आत्मा की धीमी पर सच्ची आवाज़।

"अब उस अध्याय को बंद कर दे,
जिसका अर्थ खो चुका है,
जिसका शब्द अब केवल खरोंच बन चुके हैं पन्नों पर…"

मैं डरता हूँ — हाँ,
अजनानी राहों से, अधूरे संवादों से,
पर मेरी आत्मा अब थक चुकी है
झूठे जुड़ावों की जंजीर में घिसते-घिसते।

"विराम भी एक पूर्णविराम होता है,
और रुकना भी आगे बढ़ने की शुरुआत है…"

अब मैं उस किताब का आखिरी पन्ना मोड़ रहा हूँ,
जिसमें दर्द भरे संवाद हैं,
जिसमें मैं बार-बार टूटता हूँ — जुड़ने के बहाने।

अब मैं खुद से कहता हूँ —
"तू वो फूल नहीं जो हर बार किसी बंजर में खिल जाए,
तू वो बीज है जिसे
नई मिट्टी, नया आकाश, और नई बारिश चाहिए।"

सत्य यही है —
मेरी आत्मा जानती है
कि अब समय है
अगला अध्याय शुरू करने का।

जहाँ मैं अपने लिए लिखूंगा —
नए शब्दों में, नई रोशनी में।
जहाँ कोई पीछे का बोझ न होगा,
सिर्फ मैं होऊंगा —
पूर्ण, स्वतंत्र, और सत्य।

🌿 अंत में यही कहता हूँ —
"जब आत्मा बोले, तो रुक जाना चाहिए…
क्योंकि वही वह मौन होता है
जो जीवन की सबसे सच्ची बात कहता है।"

🕊️



मौन मेरा उत्तर है


(एक आत्मकाव्य)

मुझे कहना था बहुत कुछ,
पर मैंने चुना… चुप रहना।
हर ताने की तलवार को,
अपने भीतर ही टूटते देखा मैंने।

वो कहते थे —
"तू कुछ नहीं कर पाएगा",
मैं सुनता रहा... पर मन में
एक दीप जलता रहा —
"मैं दिखाऊँगा, जवाब नहीं दूँगा।"

अपमान के शब्द,
जैसे बाण थे जहर में डूबे हुए,
पर मैं वृक्ष था सहनशील,
हर वार को अपनी छाल पर सहता रहा।

मैंने नहीं दी आवाज,
मैंने दी केवल दिशा।
जहाँ वो चीखते रहे,
मैं बढ़ता रहा निशा।

क्योंकि मुझे समझ में आ गया था —
कि अपमान का उद्देश्य
मेरी आत्मा को हिलाना नहीं,
मुझे भटकाना था…

मगर मैं मार्ग से नहीं डिगा।
मैंने उन्हें हराया —
ना गुस्से से,
ना बहस से,
बल्कि अपनी चुप्पी और
उत्कर्ष से।

जब उन्होंने देखा
कि मैं अब भी मुस्कुरा रहा हूँ,
जब उन्हें ये पता चला
कि मेरी सफलता अब उनकी सोच से परे है,
तब उनकी जुबान थम गई।

मैं मौन बना,
क्योंकि मेरा मौन मेरा प्रतिशोध था।
मैं शांत रहा,
क्योंकि मेरी सफलता मेरी आवाज़ थी।

अब जब वो मुझे ऊँचाईयों पर देखते हैं,
तो उनके शब्द खुद ही बिखर जाते हैं।
और मैं… मैं अब भी कुछ नहीं कहता,
बस चलता हूँ —
मुस्कुराता हूँ —
और जीतता हूँ।


---

"मौन मेरा उत्तर है,
और सफलता मेरा संवाद।
जहाँ तिरस्कार थमते हैं,
वहीं से शुरू होता है मेरा उत्थान..."


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The Golden Key

स्वर्ण कुंजी



मैंने जीवनभर खोजा, दर-दर भटका,
कभी तीर्थों की धूल में, कभी जंगल की छाँव में।
कभी ग्रंथों के पन्नों में, कभी गुरुओं के चरणों में,
पर वो द्वार, जहाँ शाश्वत सत्य बसता है —
वो खुला ही नहीं।

हर बार लगा, शायद अगली यात्रा में मिलेगा,
शायद अगली तपस्या, अगला व्रत कुछ फल देगा।
पर हर मोड़ पर वही खालीपन, वही सन्नाटा,
जैसे कोई मौन रहस्य मुझे देख कर मुस्कुरा रहा हो।

और एक दिन,
जब थककर बैठा था स्वयं की ही परछाई में,
तब सहसा हृदय में कोई स्पंदन जागा —
एक आवाज़, भीतर से —
"जिसे तू बाहर ढूंढ रहा है, वो भीतर है,
तेरे हृदय के केंद्र में ही वो द्वार है,
और कुंजी?
वो तो सदा तेरे पास थी, तेरे भीतर ही सोई थी।"

मैं स्तब्ध हुआ —
क्या ये सम्भव है, कि मैं ही पहरेदार और मैं ही यात्री?
मैं ही द्वार और मैं ही चाबी?

तब मैंने आँखें मूँद लीं —
बाहरी जगत से ध्यान हटा,
भीतर उतरा — गहराइयों में, मौन की सुरंगों में।
वहाँ एक ज्योति जल रही थी —
निर्मल, शांत, साक्षात दिव्यता का दीप।

मैंने उस कुंजी को देखा —
वो प्रेम थी, विश्वास थी, मौन था।
वो क्षमा थी, समर्पण थी, सत्य का प्रकाश थी।

जैसे ही उसे पकड़ा,
वो द्वार जो जन्मों से बंद था,
धीरे से खुल गया —
न कोई आवाज़, न कोई ध्वनि —
बस शांति की अनहद धुन।

उस पार क्या था?
न समय था, न मृत्यु —
केवल एक चिरंतन आलोक,
जिसमें मैं विलीन हो गया।

अब मैं जान गया हूँ —
दुनिया की भीड़ में नहीं,
अपने ही हृदय में वो सब कुछ है
जिसकी मुझे तलाश थी।

तो हे पथिक!
अगर तू भी खोज रहा है सत्य का द्वार,
तो मत भटको बाहरी गलियों में,
बैठ शांत होकर अपने अंतर में,
क्योंकि स्वर्ण कुंजी तेरे ही पास है —
बस जागने की देर है।
बस भीतर उतरने की देर है।
बस स्वयं से मिलने की देर है।



आत्मा की संपूर्णता दी थी


एक टूटी आत्मा की पुकार

मैंने आत्मा की संपूर्णता दी थी,
विश्वास की चुप नदियों में बहकर,
तुझे अपना देवता माना था कभी,
तेरे शब्दों में ईश्वर की प्रतिध्वनि सी लगी।

मैंने आँखें मूँदकर तुझ पर यकीन किया,
तेरे चेहरे के पीछे की परछाइयों को भी
प्रेम की रोशनी से चमका दिया था।
पर तू... तू तो एक मुखौटा था—
मुस्कराता हुआ धोखा,
नम्रता की ओट में छुपा
नीचता का महासागर।

मैंने तुझमें ईमानदारी देखी थी,
पर तू तो अवसरवादी निकला,
तेरे हर वादे में स्वार्थ था,
तेरे हर गले मिलने में गंध थी—
गंध उस चरित्र की जो
सिर्फ मतलब के मौसम में फूलता है।

तू जानता है तेरा अंत:करण खोखला है,
इसलिए तू डरता भी नहीं,
माफ़ी तुझसे उतनी ही दूर है
जितनी आत्मा तेरे भीतर से।

तू दो चेहरों वाला था—
एक मेरे लिए,
एक बाकी दुनिया के लिए।
पर अब मैं देख चुका हूँ,
तेरा असली चेहरा—
सच की रोशनी में
काँपता हुआ, झूठ की राख से सना हुआ।

अब तुझसे कोई उम्मीद नहीं,
न कोई क्षमा, न कोई संवाद।
मैंने अपनी पवित्रता तेरे सामने रख दी थी—
और तूने उसे रौंद डाला,
जैसे वो कोई कीचड़ में गिरा हुआ पत्ता हो।

तू गया,
पर जो गया वो मैं नहीं—
मैं तो अब और मजबूत हूँ,
अपने टूटे हिस्सों को जोड़कर
एक नई पहचान बना रहा हूँ।

अब मैं तुझे देखता हूँ
और सिर्फ यही सोचता हूँ—
“कभी तुझ पर भरोसा किया था… कितनी भूल थी वो।”

पर ये भी सच है—
मेरी आत्मा अब आज़ाद है,
तेरी छाया से भी।


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When Secularism Turns Selective: The Rise of a Silent Extremism.


In an age where ideologies have become labels and labels have become battle cries, few words have undergone such a dramatic transformation as the term secularism. Once a beacon of hope for coexistence and mutual respect, secularism has today become one of the most misunderstood—and in some cases—misused ideas of our time. The most alarming trend? Secularism itself evolving into a silent form of extremism.

The Birth of Secularism: A Noble Idea

The word secular traces its roots to the Latin word saeculum, meaning "worldly" or "temporal," as opposed to the spiritual. In modern political discourse, secularism was first formally defined by British thinker George Jacob Holyoake in 1851. He envisioned it as a principle advocating the separation of religion from state affairs, allowing citizens of all faiths—and of none—to co-exist under a neutral state.

The Oxford English Dictionary included the term later in the 19th century, describing secularism as:

"The principle of separation of the state from religious institutions."

In its ideal form, secularism meant:

  • Equal respect for all religions
  • Neutral governance, uninfluenced by religious pressures
  • A shared public space governed by reason, not dogma
  • Protection of individual freedom of belief

But as we often see in history, when ideals are filtered through power, politics, and public sentiment, they begin to erode—and mutate.


The Decline: When Secularism Becomes Selective

In today's socio-political climate, particularly in democracies like India and parts of the West, secularism is no longer about equal distance from all religions. It has morphed into selective silence, where certain forms of religious extremism are condemned loudly while others are ignored, downplayed, or even justified.

This selective morality is not just unethical—it is dangerous.

Take, for instance, the Udaipur killing of 2022. A tailor, Kanhaiya Lal, was publicly beheaded in broad daylight by two men who justified the act on religious grounds. They filmed the killing, shared it, and vowed to repeat it. And yet, the usual chorus of liberal intellectuals, artists, and human rights advocates—who are swift to return awards and hold candlelight vigils—remained eerily silent.

In contrast, had the perpetrators been from the majority community, the reaction would have been swift, loud, and continuous—nationwide protests, prime-time debates, and global coverage.

Such inconsistency erodes trust in institutions, be it the media, academia, or civil society.


The New Face of Extremism

Secularism was meant to be a safeguard against religious domination. Ironically, it is now being used to:

  • Justify silence on religiously-motivated violence
  • Attack majority concerns as inherently communal
  • Promote ideological loyalty over objective truth
  • Push political correctness to the point of absurdity

And herein lies the most troubling revelation:

Secularism: The Silent Extremism of Our Times

What makes this more dangerous is that secularism itself has now evolved into a kind of extremism — but not the loud, aggressive kind. It is a quiet, intellectual, and often institutionalized extremism that punishes dissent, marginalizes majority voices, and cloaks ideological agendas under the guise of liberalism. When secularism starts demanding selective sensitivity, unequal justice, and ideological conformity, it loses its essence and becomes just another form of authoritarianism—only more subtle.

This form of extremism is harder to identify, but just as corrosive as religious fanaticism. It doesn't bomb markets or burn buses—but it manipulates narratives, silences victims, and normalizes double standards.


Case Study: West Bengal vs Manipur

In 2023, visuals from Manipur—where women were paraded naked during ethnic conflict—shook the conscience of the nation. Rightly, it led to outrage, media coverage, and legal action.

But around the same time, similar communal violence in West Bengal went under the radar. Victims alleged sexual violence and attacks by mobs from another religious group.

Yet there was no national outcry. No debates. No award returns.

This selective outrage doesn't protect secularism—it undermines it. It tells the victim, "Your pain doesn't fit our agenda."


Case Study: France’s Charlie Hebdo vs India’s Speech Crisis

When Charlie Hebdo published caricatures in France, it triggered violent attacks, but the French government stood by the magazine’s right to free speech.

In contrast, in India, individuals making similar remarks—however insensitive—are often met with mob threats, violence, and legal cases. And secular commentators often justify this, saying, "They should have known better."

Isn't that the very justification extremists give for violence—"You provoked us"?

Freedom of expression, a pillar of secularism, is being replaced with freedom of expression, but only for some.


A Moral Crisis, Not Just Political

This isn’t merely a political issue—it’s a moral one. When a nation starts weighing justice on the scales of religion, community, or vote bank, it chips away at the foundations of democracy.

True secularism isn’t about being anti-religious or pro-minority. It’s about being equally intolerant to all forms of intolerance.

The Gandhian vision of Sarva Dharma Sambhav—equal respect for all religions—is being replaced by Sarva Dharma Sahanubhuti—selective sympathy based on convenience.


Is Secularism Still Relevant?

Absolutely. A diverse nation like India, or any pluralistic society, needs a secular framework to survive and flourish. But what we need is:

  • Honest secularism, not convenient silence
  • Equal secularism, not one-sided appeasement
  • Brave secularism, not political cowardice

We must call out all extremism—be it Hindu, Muslim, Christian, or atheist. We must ensure justice is served not based on hashtags, but on truth. We must bring back balance to a term that was once meant to unify.

Because when secularism turns selective, it stops being secularism—it becomes strategy.

And when strategy replaces sincerity, justice dies quietly in the background.


Conclusion: Time to Reclaim the Idea

It's time for thinkers, writers, journalists, and ordinary citizens to reclaim secularism—not as a political tool, but as a moral compass.

Let’s stop asking, “Who did it?” and start asking, “Was it wrong?”

Let’s replace silence with sincerity, and agenda with accountability.

Because a society that remains neutral toward injustice is never truly secular.

It is simply—afraid.



प्रश्नों का सिलसिला


मैं भी उन मूर्खों में था,
जो उत्तरों की तलाश में भटकता रहा।
हर जवाब एक दरवाज़ा खोलता,
पर उस दरवाज़े के पार—और भी सवाल मिलते।

मैंने सोचा, कोई तो रौशनी होगी,
कोई तो शब्द मुझे शांति देगा।
पर हर उत्तर ने एक नया अंधेरा दिया,
और हर विचार ने मन को और उलझा दिया।

"केवल मूर्ख ही प्रश्न करते हैं,"
मैंने सुना किसी बुद्ध पुरुष की वाणी।
"उत्तर नहीं देंगे समाधान,
वे तो बस प्रश्नों की नयी कहानी।"

फिर मैं चुप हो गया एक दिन,
ना प्रश्न, ना उत्तर, ना कोई चर्चा।
बस शून्य में बैठा रहा,
जहाँ न मैं था, न मेरा कोई पथ।

वहीं पहली बार कुछ घटा—
ना शब्दों में, ना भावों में,
पर एक शांति सी उतरी,
जो न प्रश्नों की थी, न उत्तरों की।

अब मैं जान गया हूँ,
प्रश्नों का अंत प्रश्नों में नहीं,
बल्कि मौन की उस गहराई में है
जहाँ विचार भी सिर झुकाते हैं।




हनुमान जी के विभिन्न स्वरूप: शक्ति और भक्ति के प्रतीक


भगवान हनुमान केवल एक भक्त ही नहीं, बल्कि शक्ति, भक्ति और ज्ञान के साकार रूप हैं। उनके विभिन्न रूपों का वर्णन पुराणों और ग्रंथों में मिलता है, जिनमें प्रत्येक स्वरूप की अपनी विशिष्टता और महिमा है। हनुमान जी के ये रूप न केवल उनके विराट स्वरूप को दर्शाते हैं, बल्कि भक्तों को आशीर्वाद प्रदान करने के लिए विभिन्न अवसरों पर प्रकट हुए।

हनुमान जी के विभिन्न रूप:

१) द्वात्रिंश भुजा हनुमान (३२ भुजाओं वाला स्वरूप)

इस महाशक्तिशाली रूप में हनुमान जी के ३२ भुजाएँ हैं, जिनमें प्रत्येक में एक विशेष अस्त्र-शस्त्र विद्यमान है। यह उग्र (प्रचंड) स्वरूप सम्राट सोमदत्त द्वारा पूजित था, जिन्होंने इसकी आराधना से अपना खोया हुआ राज्य पुनः प्राप्त किया।

संस्कृत श्लोक:
"वीराय च महाकायाय भक्तानुग्रह कारिणे।
चतुस्त्रिंशत्भुजायैव नमोऽस्तु कपिसत्तमे॥"

(अर्थ: हे महाकाय हनुमान, जो भक्तों पर अनुग्रह करते हैं और ३२ भुजाओं से युक्त हैं, आपको मेरा नमन।)


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२) अष्टादश भुजा हनुमान (१८ भुजाओं वाला स्वरूप)

इस रूप में हनुमान जी के १८ भुजाएँ हैं, जिनमें विभिन्न अस्त्र धारण किए हुए हैं। यह रूप महर्षि दुर्वासा द्वारा पूजित था, जिन्होंने इससे अपार सिद्धियाँ प्राप्त कीं।

संस्कृत श्लोक:
"अष्टादशभुजं देवं भक्तानामभयप्रदम्।
दुर्वासा पूजितं पूर्वं नमामि पवनात्मजम्॥"

(अर्थ: जो १८ भुजाओं से युक्त हैं, भक्तों को अभय प्रदान करने वाले हैं, महर्षि दुर्वासा द्वारा पूजित हैं, उन पवनपुत्र हनुमान को नमन।)


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३) विंशति भुजा हनुमान (२० भुजाओं वाला स्वरूप)

इस स्वरूप में भगवान हनुमान के २० भुजाएँ होती हैं, जो २० अस्त्रों को धारण किए हुए हैं। इस रूप का दर्शन स्वयं ब्रह्मा जी और सप्तऋषियों को प्राप्त हुआ था। इसे हनुमान जी का सार्वभौमिक रूप भी कहा जाता है।

संस्कृत श्लोक:
"विंशति भुजसंयुक्तं ब्रह्मादिभिः सुपूजितम्।
सप्तर्षिभिर्दृष्टपूर्वं हनुमन्तं नमाम्यहम्॥"

(अर्थ: जो २० भुजाओं से युक्त हैं, ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा पूजित हैं और सप्तऋषियों द्वारा देखे गए हैं, उन हनुमान को मैं प्रणाम करता हूँ।)


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४) षण्मुख हनुमान (छह मुखों वाला स्वरूप)

इस रूप में हनुमान जी के छह मुख हैं, जो विभिन्न दिशाओं की ओर स्थित हैं:

1. हनुमान (पूर्व)


2. नरसिंह (दक्षिण)


3. गरुड़ (पश्चिम)


4. वराह (उत्तर)


5. हयग्रीव (ऊर्ध्व)


6. अग्नि (अधोमुख)



यह स्वरूप हजारों भुजाओं वाला होता है, जिसमें हजारों अस्त्र-शस्त्र होते हैं। इसे "नवखण्ड हनुमान" भी कहा जाता है।

संस्कृत श्लोक:
"षण्मुखं कपिरूपं च सहस्त्रबाहु संयुतम्।
नवखण्डाधिपं नित्यं नमामि कपिनायकम्॥"

(अर्थ: जो छह मुखों से युक्त हैं, हजारों भुजाओं से विभूषित हैं और नौ खंडों के अधिपति हैं, उन कपिनायक को नमन।)


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५) सप्तमुख हनुमान (सात मुखों वाला स्वरूप)

इस स्वरूप में भगवान हनुमान के सात मुख होते हैं:

1. हनुमान


2. नरसिंह


3. गरुड़


4. वराह


5. हयग्रीव


6. सूर्य-गाय मुख


7. मानव मुख



इस रूप में हनुमान जी की १४ भुजाएँ होती हैं और वे सप्तऋषियों के समक्ष प्रकट हुए थे।

संस्कृत श्लोक:
"सप्तमुखाय देवाय चतुर्दशभुजाय च।
सप्तर्षिभिः स्तुतायैव नमो हनुमते नमः॥"

(अर्थ: जो सात मुखों से युक्त हैं, १४ भुजाओं से विभूषित हैं, सप्तऋषियों द्वारा स्तुति किए गए हैं, उन हनुमान जी को नमन।)


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६) दक्षिणमुखी हनुमान (दक्षिणमुख हनुमान)

इस स्वरूप में हनुमान जी दक्षिण दिशा की ओर मुख करके स्थित होते हैं, जो यमराज से संबंधित दिशा है। इस रूप की उपासना मृत्यु भय से मुक्ति और समस्त कष्टों को दूर करने के लिए की जाती है।

संस्कृत श्लोक:
"दक्षिणाभिमुखं देवं यमदूत विनाशकम्।
सर्वोपद्रव संहर्त्रं हनुमन्तं नमाम्यहम्॥"

(अर्थ: जो दक्षिणमुखी हैं, यमराज के दूतों का नाश करने वाले हैं और समस्त उपद्रवों को नष्ट करने वाले हैं, उन हनुमान को प्रणाम।)


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७) एकादशमुख हनुमान (११ मुखों वाला स्वरूप)

इस रूप में भगवान हनुमान के ११ मुख और २२ भुजाएँ होती हैं, जिनमें प्रत्येक में एक दिव्य अस्त्र होता है। इस स्वरूप की उपासना करने से मोक्ष प्राप्ति होती है और भगवान शिव, विष्णु और ब्रह्मा की कृपा प्राप्त होती है।

११ मुख:

1. हनुमान (पूर्व)


2. परशुराम (आग्नेय)


3. नरसिंह (दक्षिण)


4. गणपति (नैऋत्य)


5. गरुड़ (पश्चिम)


6. भैरव (वायव्य)


7. कुबेर (उत्तर)


8. शिव (ईशान)


9. हयग्रीव (ऊर्ध्व)


10. अग्नि


11. श्रीराम



संस्कृत श्लोक:
"एकादशमुखं देवं द्वाविंशतिभुजायुतम्।
शिवविष्णु ब्रह्म पूज्यं हनुमन्तं नमाम्यहम्॥"

(अर्थ: जो ११ मुखों और २२ भुजाओं से युक्त हैं, शिव, विष्णु और ब्रह्मा द्वारा पूजित हैं, उन हनुमान को नमन।)


भगवान हनुमान के विभिन्न स्वरूप उनकी अपरंपार शक्ति, भक्ति और दिव्यता को दर्शाते हैं। उनकी आराधना जीवन में शक्ति, साहस, निडरता और मोक्ष का मार्ग प्रदान करती है। भक्त अपने उद्देश्य के अनुसार इन स्वरूपों की पूजा कर सकते हैं और भगवान हनुमान की कृपा प्राप्त कर सकते हैं।

"रामदूतं महावीर्यं हनुमन्तं नमाम्यहम्।"
(अर्थ: मैं रामदूत, महावीर्यवान हनुमान को नमन करता हूँ।)


छाँव की तरह कोई था



कुछ लोग यूँ ही चले जाते हैं,
जैसे धूप में कोई पेड़ कट जाए।
मैं वहीं खड़ा रह जाता हूँ,
जहाँ कभी उसकी छाँव थी।

वो बोलता नहीं अब,
पर उसकी चुप्पी गूंजती है हर रोज़।
मैं मुस्कराने की कोशिश करता हूँ,
पर आँखों में वो ठहरा सा एक सवाल होता है।

कभी वो हँसी थी मेरे कमरे में,
अब सन्नाटा बसा है उसी जगह।
मैं दरवाज़ा खोलता हूँ हर रोज़,
जैसे शायद आज लौट आए वो सुबह।

उसके जाने से जो खालीपन आया,
वो सिर्फ जगह नहीं, एक आदत बन गया है।
मैं अब भी उसी आदत को जीता हूँ,
हर पल, हर साँस, हर ख्वाब में।

कुछ लोग जाते हैं जिस्म से,
पर रूह की गलियों में रह जाते हैं।
मैं उन्हें हर मोड़ पर ढूँढता हूँ,
और हर बार बस उनकी कमी पाता हूँ।


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आधी-अधूरी आरज़ू


मैं दिखती हूँ, तू देखता है,
तेरी प्यास ही मेरे श्रृंगार की राह बनती है।
मैं संवरती हूँ, तू तड़पता है,
तेरी तृष्णा ही मेरी पहचान गढ़ती है।

मैं इतराती हूँ, तू मदहोश होता है,
तेरी आँखें ही मेरे होने की गवाही देती हैं।
मैं जलती हूँ, तू सुलगता है,
तेरी चाहत ही मेरी आग को हवा देती है।

तेरे भीतर जिज्ञासा, मेरे भीतर प्रदर्शन,
तेरी नज़र ही मेरे रूप की परछाई होती है।
मैं अधूरी, तू अधूरा,
पर साथ मिलकर एक तमाशा बन जाते हैं।

दोनों की अपनी-अपनी आधी-अधूरी बीमारियाँ,
मिलकर पूरी बीमारी बन जाती हैं।
कभी जो प्रेम था, अब व्यापार सा लगता है,
इच्छाएँ जलती हैं, आत्मा कहीं खो जाती है।

तो क्या ये प्रेम है, या बस एक छलावा?
तेरी चाह और मेरा श्रृंगार,
या फिर एक अंतहीन बहलावा?


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काग़ज़ का जादू



काग़ज़ के टुकड़े, स्याही का खेल,
न सोने के, न चाँदी के ढेल।
पर दुनिया इन पर मरती है,
रोटियाँ तक इनसे चलती हैं!

बाज़ार में जो भी चाहो, ले लो,
बस जेब में कुछ नोट भर लो।
साबुन, साड़ी, समोसे, समंदर,
सब बिकते हैं, बस काग़ज़ सँभालो अंदर!

अजीब तमाशा, अजब है खेल,
गरीब तरसें, अमीर ठेल!
कुछ नहीं तो बैंक में देखो,
काग़ज़ ही काग़ज़, पर पैसा बोले!

और मज़ा तो देखो प्यारे,
चोरी भी हो तो नोट ही मारे!
सेब नहीं, दुकान नहीं,
नोट उड़ा लो, मियाँ बड़े महान सही!

सोचो ज़रा, क्या पागलपन!
काग़ज़ के पीछे इतना हवन?
जो असली चीज़ चाहिए,
वो नहीं, हमें तो बस नोट चाहिए!

— दीपक दोभाल



संस्कारहीन सनातन





संस्कार बिना, शव है सनातन,
पूजा-अर्चा, सब व्यर्थ समान।
बाहर रक्षा, भीतर शून्य,
कैसा यह भ्रम, कैसा अपमान?

अंतर की जोत बुझे जब,
मंत्रों का क्या शेष रहेगा?
बाह्य आडंबर, रीति-रिवाज़,
मन में सत्य न प्रवेश करेगा।

धर्म नहीं बस ग्रंथों की बातें,
धर्म नहीं बस व्रत-उपवास।
धर्म वही जो जिया जाए,
हर श्वास में हो उसका वास।

हम बचाते देह, आत्मा खोकर,
मूर्तियों में प्राण नहीं।
संस्कृति जब शेष रहेगी केवल,
अतीत की एक कहानी बनकर,
तब कौन कहेगा— "हम सनातनी हैं!"

— दीपक दोभाल