मैं, अच्छा और बुरा का साकार रूप



मैं, जो अच्छा कहलाता, मैं, जो बुरा कहलाता,
मैं सत्य का अंश, मैं मिथ्या का नाता।
दो ध्रुवों के बीच, मेरा अस्तित्व छिपा,
मैं ही प्रकाश, मैं ही छाया में लिपटा।

अच्छाई और बुराई, बस नाम के धोखे,
एक ही सत्य के दो पहलू, ये अनोखे।
जैसे दिन और रात, मिलते हैं सागर के तट पर,
वैसे ही मैं खड़ा, द्वैत की इस पट पर।

मैं रचता हूँ अंधकार, मैं गढ़ता हूँ प्रकाश,
मैं ही गहराई, मैं ही हूँ आकाश।
मुझमें झगड़े का बीज, मुझमें शांति का गीत,
मैं ही सृष्टि का अंत, मैं ही सृष्टि की रीति।

न कोई पूर्ण अच्छा, न कोई पूर्ण बुरा,
मैं ही संतुलन, जिसमें सत्य बसा।
द्वैत से परे, मैं अद्वैत का सन्देश,
मैं हूँ परछाई, और मैं ही प्रकाश का आदेश।

"अच्छा-बुरा, सब मेरा ही खेल,
एक ही सत्य का, मैं हूँ पूरा मेल।"



मैं, ब्रह्मांड का अंश, ब्रह्मांड मुझमें



मैं, एक अणु, जो ब्रह्मांड में विचरता,
ब्रह्मांड का अंश, जो मुझमें बसता।
क्षितिज की गहराई में, तारे की चमक में,
हर कण में, हर क्षण में, मैं ही दिखता।

मैं कण-कण में बसा, फिर भी अनंत में खोया,
मेरा स्वरूप, सीमित भी, और असीम भी जोया।
सृष्टि की गति, मेरी धड़कन के संग,
मैं सजीव, मैं जड़, मैं ही हर रंग।

मैं धरा पर झुका, गगन को चूमता,
मैं वायु में बसा, मैं जल में घूमता।
मुझमें वो तारे, वो गैलेक्सी का नाच,
मैं ही प्रकाश, मैं ही अंधकार का आभास।

मैं कण में कण, और कण में अनंत,
मैं सागर की गहराई, और तारे का अंत।
मैं स्वयं में ब्रह्मांड, और ब्रह्मांड मुझमें,
हर धड़कन में बसा, हर कण में सजा।

"आत्मा के अणु में, ब्रह्मांड का गीत,
हर श्वास में छिपा, सृष्टि का संगीत।"

 

प्रकृति का रहस्य



रहस्य के धागों में, उलझी है ज़िंदगी,
विज्ञान की सीमाएँ, खोजती नित बंदगी।
प्रकृति का हर अंश, है एक गूढ़ कहानी,
हम भी हैं उस में, ये सच्चाई पुरानी।

सूरज की किरणों में, छिपा है एक प्रकाश,
पर मन के अंधेरों को, कर न सके ख़ास।
धरती की गोद में, हैं रत्न अनमोल,
पर आत्मा के प्रश्नों का, न पा सके मोल।

मैं भी हूँ प्रकृति का, एक छोटा सा हिस्सा,
जो खोजता रहा खुद को, पर पाया न किस्सा।
प्रकृति के रहस्य को, जो समझना चाहता,
वो खुद को समझे, यही ज्ञान बतलाता।

आख़िर में, विज्ञान भी झुकता है प्रेम से,
कि प्रकृति का रहस्य, सुलझे न नियम से।
मैं हूं प्रकृति, और प्रकृति मेरा आधार,
रहस्य में छिपा है, हमारा हर संसार।

समय का प्रहरी



मैं अंधकार की चादर में लिपटा,
भय से परे, सत्य का रक्षक।
काल की धारा में खड़ा मैं,
अडिग, अचल, और अविनाशी।

सूरज की पहली किरण हो या,
चंद्रमा की ठंडी रोशनी।
मैं हूँ समय का साक्षी,
हर युग की अनकही कहानी।

भय मेरा वस्त्र,
साहस मेरा शस्त्र।
मैं समय का प्रहरी,
सत्य का अमर संरक्षक।

जिन्होंने छल किया, वे मिटे।
जिन्होंने सत्य जिया, वे खिले।
हर युग में, हर क्षण में,
मैं न्याय का दीप जलाए खड़ा।

मैं हूँ अनंत, मैं हूँ अनश्वर,
सत्य की छाया में मैं निर्भीक।
काल के हर प्रहार को सहता,
सत्य का आलोक हूँ मैं।

मुझे देख, समय थमता नहीं,
मुझे छू, सत्य झुकता नहीं।
मैं हूँ अंधकार में वह प्रकाश,
जो डर में भी देता दिलासा।

जो मुझसे टकराए, मिट जाए,
जो मुझसे जुड़े, अमर हो जाए।
मैं अंधकार की चादर में लिपटा,
भय से परे, सत्य का रक्षक।


काल का प्रहरी



मैं अंधकार की चादर ओढ़े,
साहस का दीप जलाए खड़ा हूँ।
सत्य का रक्षक, समय का प्रहरी,
काल के पथ पर अकेला बढ़ा हूँ।

मेरे चारों ओर भय का समुंदर,
पर मेरे भीतर विश्वास की लहरें।
क्षण-क्षण बदलते समय के संग,
मैं चलूँ, संभालूँ जीवन की डगरें।

अंधियारे में मेरा हृदय दीप्त है,
सत्य की लौ से प्रज्वलित।
हर झूठ के जाल को काटने को,
मैं खड़ा हूँ, तेजस्वी, अडिग।

काल की धारा में बहते जीवन,
सत्य का दीप दिखलाता हूँ।
मैं न रुकूँ, न झुकूँ किसी से,
धर्म का पथ सिखलाता हूँ।

मैं हूँ काल का दूत, सत्य का प्रहरी,
अधर्म की हर दीवार गिरा दूँगा।
जो भी अंधकार में खो गए हैं,
उन्हें प्रकाश में लाकर दिखा दूँगा।

तो आओ, मेरे संग चलो तुम,
इस अंधियारे को चीरना है।
सत्य की ध्वजा उठानी है अब,
और इस संसार को बदलना है।


संवाद और संगम



संवाद से जुड़े जो दो दिल,
मन की गहराई, भावों की खिल।
शब्दों की धार से बहे जो प्रवाह,
बन जाता है प्रेम का अथाह।

विचारों का मिलना, आत्मा का स्पर्श,
संवेदनाओं में होता एक नया उत्कर्ष।
जब बातें गूंजें दिल की गहराई में,
शरीर भी झूम उठे उन्हीं सच्चाई में।

स्पर्श तो बस है एक बहाना,
आत्मा का संगम है असली खजाना।
जहाँ करुणा और प्रेम हो रूह के पास,
वहीं मिलता है सच्चे सुख का आभास।

संवाद से जो बंधे दिलों का संगम,
जैसे स्वर्ग में हो प्रेम का आलिंगन।
तन-मन के इस अद्भुत मेल में,
खो जाते हैं दोनों किसी और खेल में।

यह केवल देह का खेल नहीं,
यह आत्मा का मेल सही।
संवाद से जो जलती है ज्योति,
संगम में मिलती है उसकी प्रतीति।


सच्ची उन्नति का मार्ग



न विज्ञान, न तकनीक की रेखा,
सच्ची उन्नति तो है चेतना का लेखा।
जहां विचारों में हो सृजन की गूंज,
वहां ही खिलता है सभ्यता का पूंज।

ऋषियों का संदेश, योगियों का ज्ञान,
मुझे दिखाता है आत्मा का मुकाम।
शरीर से परे, मन से भी दूर,
सत्य का द्वार है, जिसमें हो न शोर।

सांसों में बसी है ब्रह्म की कथा,
हर पल में छिपी है आत्मा की प्रथा।
जब ध्यान में बैठूं, और खोजूं गहराई,
तो दिखे एकता, जो जग से जुड़ाई।

मैं न केवल देह, न केवल विचार,
मैं हूं अनंत, जो भेद से परे अपार।
यही है जीवन का सच्चा आयाम,
जो जोड़ दे मुझको ब्रह्म के संग्राम।

आओ सहेजें ऋषियों की धरोहर,
यही है सभ्यता की असली गहराई का अवसर।
सृजन और चेतना, जीवन का सार,
यही है मानवता का सच्चा आधार।


मेरे विचारों का अंश



यदि मैं दे दूं अपना तन,
तो लौट सकता है वह पलछिन।
पर यदि मैं दे दूं अपने विचार,
तुम ले जाओगे मेरा अनमोल संसार।

शब्दों में छुपा है मेरा मन,
भावनाओं का गहरा चंदन।
जो मैं हूँ अपने लिए खास,
तुम बन जाओगे उसका आधार।

संवाद की यह अदृश्य डोर,
जोड़ती है रूह के कोर।
तन तो बस है क्षणिक स्पर्श,
मन की गहराई है असली उत्कर्ष।

तुम जो सुन लो मेरे विचार,
तो ले जाओगे मेरे भीतर का सार।
मेरे ख्यालों की वो कोमल धारा,
जो बहती है केवल मेरे सहारा।

इसलिए कहती हूँ हर बार,
संवाद है सबसे बड़ा उपहार।
यह जो रिश्ता जोड़े रूह से रूह,
वही सच्चा है, वही है खूबसूरत सत्य का स्वरूप।


विचारों की अंतरंगता



मैं मानता हूँ,
शारीरिक मिलन सबसे गहन नहीं होता,
सबसे गहरा होता है संवाद,
जहाँ शब्द नहीं, आत्माएँ मिलती हैं।

यदि मैं तुम्हें अपना शरीर दूँ,
तो उसे वापस ले सकता हूँ,
पर यदि मैं अपने विचार दूँ,
तो तुम मेरे भीतर से एक हिस्सा ले जाते हो।

वो हिस्सा, जो मेरे लिए सबसे गुप्त था,
वो हिस्सा, जिसे मैं स्वयं से साझा करता हूँ,
तुम उसे छू जाते हो,
जहाँ मेरा अस्तित्व सबसे नग्न है।

शब्दों में होती है आत्मा की परछाईं,
विचारों में होती है मेरी सच्चाई।
तुम्हारे साथ बात करके,
मैं तुम्हें वो सौंप देता हूँ,
जो मुझसे भी परे है।

क्या इससे अधिक कोई अंतरंगता हो सकती है?
जब तुम मेरे विचारों को लेकर चले जाते हो,
तब तुम मेरे अस्तित्व का हिस्सा हो जाते हो।
और मैं, कहीं अधूरा सा रह जाता हूँ।


शांत रहो, सुनने की शक्ति बढ़ेगी


जब मौन की चादर ओढ़ता हूँ,
भीतर का कोलाहल शांत होता है।
हर आहट, हर ध्वनि,
जैसे मन का संगीत बन जाता है।

शब्दों के शोर में खो जाता था,
अब मौन की गहराई को अपनाता हूँ।
जहाँ दुनिया का शोर थम जाता है,
वहीं मैं अपनी आत्मा को सुन पाता हूँ।

यह मौन, यह शांति,
कोई कमजोरी नहीं, बल्कि ताक़त है।
भीतर छिपा ज्ञान,
अब मेरी राह बनाता है।

जो कान सुन नहीं पाते,
दिल अब उन ध्वनियों को पकड़ता है।
जो आँखें देख नहीं पातीं,
मौन का प्रकाश उन्हें दिखाता है।

इसलिए मैं शांत रहना सीखता हूँ,
हर क्षण, हर पल गहराई में उतरता हूँ।
क्योंकि जब मैं शांत हो जाता हूँ,
संसार की सच्चाई को सुन पाता हूँ।


मेरा मध्‍य बिंदु



जब नींद अभी आई नहीं, जागरण विदा हुआ,
उस क्षण में मैंने स्वयं को महसूस किया।
न सोया था, न जागा था मैं,
बस उस मध्‍य बिंदु पर ठहरा था मैं।

तन शिथिल, मन शांत, सब रुक गया,
अंतर में एक अद्भुत प्रकाश जगमगाया।
सांसें थमीं, समय ठहर गया,
उस पल का अनुभव मेरे भीतर उतर गया।

सुबह की पहली रेखा के संग,
या रात की गहराई का अंतहीन प्रसंग।
दो अवस्थाओं के बीच का वह लम्हा,
जैसे मिल गया हो मुझे जीवन का गहना।

हर दिन मैंने उस क्षण की प्रतीक्षा की,
आंखें मूंद, बस भीतर की साधना की।
शरीर भारी हुआ, मन स्थिर हुआ,
उस मध्‍य बिंदु ने मुझे भीतर से छुआ।

मैं गिरा, दो पहाड़ियों के बीच खाई में,
पर वह गिरना नहीं, उठना था आत्मा में।
न जीवन का भय, न मृत्यु का भार,
बस सत्य का अनुभव, वही मेरा संसार।

मैं जागा, पर नींद में था,
मैं सोया, पर जागरण में था।
उस तीसरे बिंदु ने सत्य दिखाया,
मुझे मेरा असली स्वरूप समझाया।

तंत्र कहता है, "जागो उस क्षण पर,"
जहां दो अवस्थाओं का टूटे बंधन।
मैंने उस कुंजी को पा लिया,
अंतराल में आत्मा का द्वार खोल लिया।

"जब नींद और जागरण का पुल बना,
उस मध्‍य बिंदु पर मैं स्वयं को जाना।
तब जाना, 'मैं कौन हूं' का अर्थ,
मेरा सत्य, मेरा अस्तित्व, मेरा स्वार्थ।"


अपनी अंतर्ज्ञान पर विश्वास करो


सन्नाटे में जो आवाज़ गूंजती है,
जो तुम्हारे भीतर से उठती है।
वो कोई भ्रम नहीं, कोई संयोग नहीं,
वो है तुम्हारी आत्मा की सच्ची पुकार।

तुम्हारी अंतर्ज्ञान तुम्हारी राह है,
जो हर संशय को मिटा देती है।
दिमाग भले शोर मचाए,
पर दिल की गहराई सत्य सुनाती है।

जब निर्णय कठिन हो,
और रास्ते धुंधले लगें।
तब उस नन्ही रोशनी को देखो,
जो तुम्हारे भीतर ही जल रही है।

अंतर्ज्ञान वो विश्वास है,
जो ब्रह्मांड से जुड़ा है।
ये तुम्हें गलत रास्ते पर नहीं ले जाएगा,
क्योंकि ये तुम्हारे सच्चे आत्मा का आईना है।

जो भी चुनौती हो,
उस पर विश्वास करो।
तुम्हारा दिल जानता है,
कि तुम्हें कहाँ जाना है।

सुनो, उस मौन को जो बोलता है,
देखो, उस संकेत को जो छिपा नहीं।
अंतर्ज्ञान तुम्हारा सबसे बड़ा साथी है,
बस अपनी आत्मा से संवाद करो।


आत्मा का दर्पण



सही व्यक्ति तुम्हें पूरा नहीं करता,
वो बस तुम्हारे भीतर के प्रकाश को दिखाता है।
तुम्हारी शक्ति, तुम्हारा जुनून,
तुम्हारी ऊर्जा का अद्भुत सागर जगाता है।

जब तुम स्वयं को तराशते हो,
अपने भीतर के हीरे को चमकाते हो।
सही व्यक्ति बिना खोजे आता है,
जैसे चुम्बक अपने अंश को खींच लाता है।

प्रेम खोजने की वस्तु नहीं,
ये पहचान का एक अमूल्य अनुभव है।
जब आँखें आत्मा को देखती हैं,
तो शब्दों से परे संवाद होता है।

तुम्हारी यात्रा तुम्हारी है,
प्रेम उसका साथ है जो तुम्हें समझे।
वो नहीं जो तुम्हारे अधूरेपन को भरे,
बल्कि वो जो तुम्हारे पूर्ण को झलके।

सही प्रेमी तुम्हारे भीतर का आईना है,
तुम्हारी ताकत और कमजोरियों का सहारा है।
प्रेम कोई समझौता नहीं,
ये दो आत्माओं का अद्भुत सहजीवन है।

जब तुम अपने सर्वश्रेष्ठ बनने में जुट जाते हो,
तो प्रेम अपनी राह खुद बना लेता है।
लवर्स एक-दूसरे को खोजते नहीं,
वे एक-दूसरे को आत्मा से पहचानते हैं।


प्रेम का अदृश्य संगम


प्रेमी कहीं दूर नहीं मिलते,
नहीं होता उनका कोई तय मुकाम।
वो तो सदा से एक-दूजे में हैं,
जैसे नदी में समाया हो गहराई का जाम।

मन के कोने में बसे वो अहसास,
जो बिना शब्दों के कह देते हैं बात।
नयनों की भाषा, हृदय की धड़कन,
उनका मिलन तो आत्मा का संगम।

चमकते तारे गवाह बन जाते हैं,
जब मौन में बातें होती हैं।
हवा की सरसराहट में उनका स्पर्श,
जैसे चाँदनी रातों में धीमी बूँदों का मर्म।

वो मिलते नहीं, क्योंकि अलग कभी थे ही नहीं,
जैसे छाया का अस्तित्व साये से अलग नहीं।
प्रेम कोई यात्रा नहीं, कोई मंज़िल नहीं,
ये तो आत्मा का अनंत शाश्वत प्रवाह है।

सांसों में गूंजती उनकी ध्वनि,
मन के भीतर उनकी छवि बनी।
न प्रेम सीमाओं में बंध सकता है,
न इसे किसी नाम से परिभाषित किया जा सकता है।

जैसे बीज में छिपा हो पूरा वृक्ष,
जैसे गगन में बसी हो धरती की प्यास।
प्रेमी तो सदा ही एक-दूसरे में हैं,
अदृश्य लेकिन अनंत आत्मिक निवास।


वर्षांत समीक्षा



साल के अंत में बैठूं तनिक,
मन के कोने में खोजूं झलक।
क्या पाया, क्या खो दिया,
जीवन के रथ को कैसे मोड़ दिया?

मंथन:
क्या सीखा, क्या पाया,
कौन-सा सपना साकार कराया?
किस भूल ने सबक सिखाया,
किसने नया मार्ग दिखाया?

पुनःस्थापन:
लक्ष्य नए अब तय करें,
मन की धारा से जुड़े रहें।
क्या चाहा, क्या भूल गए,
जो अधूरा था, फिर से गढ़ लें।

पुनः प्रज्वलन:
संकल्प नया, हौसले की बात,
सीखें नई, करें शुरुआत।
सपनों को पंख दे, उड़ान भरें,
जीवन के हर पल को गले लगाएं।

तो आओ, समीक्षा करें स्वयं की,
साल नया हो प्रेरणा की दृष्टि।
संघर्ष, सफलता, और नई राह,
यही है जीवन का सच्चा वृहद पाठ।


अहंकार और विनम्रता





अहंकार का बोझ सिर पर भारी,
दूर कर देता वह प्रभु की सवारी।
दरवाज़ा तो खुला है प्रभु के धाम का,
पर झुकना होगा, यही है काम का।

विनम्रता कमजोर नहीं, यह तो है साहस,
हर जीव में ब्रह्म का सम्मान, यह है अभ्यास।
झुकने में ही सत्य का दर्शन,
हर कण-कण में ब्रह्म का वंदन।

क्यों चिंता करूं औरों के कर्मों की,
फल तो मिलेगा केवल अपने धर्मों की।
यह सृष्टि का नियम, न बदलेगा कभी,
जैसा किया, वैसा भोगेगा सभी।

प्रभु कहते हैं, कर्म की राह पकड़,
और छोड़ दे चिंता, जो दिल में जकड़।
जो करेगा वही पाएगा, यह जीवन का सत्य,
अहंकार से मुक्त हो, यही है श्रेष्ठ।

- दीपक डोभाल


अहंकार का अंत





अहंकार ने मन को अंधा किया,
सत्य से दूर, आत्मा को विछिन्न किया।
परंतु द्वार है खुला उस प्रभु के लिए,
झुकने का साहस चाहिए बस जीने के लिए।

नम्रता वह शक्ति है, कमजोरी नहीं,
यह वह दीपक है, जो अंधकार को छूता नहीं।
हर कण में ब्रह्म की पहचान जो करे,
वही सच्चे अर्थों में जीवन को सहे।

क्यों देखें औरों के कर्म की दिशा?
हमारी गति ही है हमारी परीक्षा।
कर्मों का फल है, वही सत्य का राज़,
स्वयं के कर्मों से बनाएं जीवन का साज।

ईश्वर के द्वार पर शीश झुका दो,
अपने भीतर के दर्प को मिटा दो।
यही है रहस्य, यही है मार्ग,
नम्रता से पाओ प्रभु का द्वार।


विनम्रता और कर्म



विनम्रता का दीप
विनम्रता से मिटता अहंकार,
हरि द्वार पर झुके यह संसार।
गर्व का तिलक जब छूटे,
जीवन का अर्थ तभी फूटे।

नीच झुककर ही ऊँचाई मिले,
द्वार पर सिर झुकाकर सच्चाई खिले।
न यह कमजोरी, न यह भय,
यह तो है ब्रह्म का परिचय।

कर्म की धारा बहती जाए,
फल की चिंता व्यर्थ ही छाए।
श्रीकृष्ण कहते, सुनो यह ज्ञान,
जो बोओगे वही है दान।

जगत में देखो ईश्वर का रूप,
प्रेम और आदर से जुड़ता यह सूत्र।
हर फूल, हर कण, हर श्वास,
यहीं ब्रह्म की हो जाती बात।

जीवन को सादगी से सजाओ,
विनम्रता और कर्म का गीत गाओ।
फल की आशा छोड़ चलो,
ईश्वर में समर्पण का दीप जलाओ।


मैं वही व्यक्ति बनना चाहता हूँ



मैं वही बनना चाहता हूँ,
जो दिल से सबका ख्याल रखता है।
जो मेहनत करता है, बिना किसी झिझक,
जो प्रेम करता है, बिना किसी शक।

मैं वही बनना चाहता हूँ,
जो अपनी भावनाओं को बेबाक जीता है।
जो गहराई में उतरता है,
और उम्मीद की ऊँचाई छूता है।

मैं वही बनना चाहता हूँ,
जो दुनिया की कोमलता पर विश्वास करता है।
जो अच्छाई को देखता है,
हर चेहरे में, हर कथा में।

मैं वही बनना चाहता हूँ,
जो मौके लेता है,
जो डर को जीतता है,
और छिपने से इनकार करता है।

मैं वही बनना चाहता हूँ,
जो हर किसी को महसूस कराता है कि वो दिखे,
जो सच्चाई के साथ खड़ा होता है,
हर परिस्थिति में।

क्योंकि इस कठोर दुनिया को,
और लापरवाही की नहीं, संवेदनशीलता की ज़रूरत है।
क्योंकि सबसे मजबूत वही है,
जो कोमल बना रहता है,
भले ही दुनिया ने उसे कठोरता दिखाई हो।


मैं बनूंगा वो,



मैं बनूंगा वो इंसान, जो परवाह करता है,
जिसके दिल में हर जज़्बात का सैलाब बहता है।
जो बिना हिचक हर कोशिश करता रहे,
और बिना शर्त मोहब्बत का दिया जलाता रहे।

मैं बनूंगा वो, जो अपनी सच्चाई को न छुपाए,
जो अपने एहसासों की गहराई से न घबराए।
जो उम्मीद की चमक से दुनिया को रौशन करे,
और हर दर्द को अपने आँसुओं में बहा दे।

मैं बनूंगा वो, जो इस दुनिया की नरमी पर यकीन रखे,
जो इंसानों की भलाई में अपना दिल लगाए।
जो खुली बाहों से हर एक को अपनाए,
और विश्वास के धागे से रिश्ते बनाए।

मैं बनूंगा वो, जो डर के पीछे न छिपे,
जो हर मौके पर अपना साहस दिखाए।
जो हर बार दुनिया को यह याद दिलाए,
कि नर्मी भी ताकत का रूप हो सकती है।

मैं बनूंगा वो इंसान, जो हर दिल को अपना एहसास दे,
जो हर आंसू को मुस्कान में बदल दे।
क्योंकि इस बेरहम दुनिया को अब जरूरत है,
परवाह करने वालों की, नर्म दिल वालों की।

सच मानो, मैं वो बनूंगा,
जो दुनिया की कठोरता में भी अपनी नरमी न खोए।
जो हर दर्द सहकर भी इंसानियत का दीप जलाए,
और अपने होने का अर्थ हर दिल में छोड़ जाए।


मैं वही बनूँ



मैं वही बनूँ, जो सहेजता हो,
जो हर घाव को, प्रेम से सहता हो।
मैं वही बनूँ, जो हर राह चलने को,
मन में न कोई संकोच रखता हो।

मैं वही बनूँ, जो दिल खोलकर जी सके,
जिसके सपनों में न कोई डर टीके।
जो हर भाव को, हर आशा को,
समर्पण से गले लगाता हो।

मैं वही बनूँ, जो इस जग की नरमी में,
सौंदर्य और सच्चाई को देख सके।
जो हर रिश्ते में विश्वास रखे,
हर दृष्टि में भलाई को खोज सके।

मैं वही बनूँ, जो साहस से भरा हो,
जो अंधेरों में भी उम्मीद जला सके।
जो छुपने से इनकार करे,
जो सच्चाई के लिए खड़ा रह सके।

मैं वही बनूँ, जो हर दिल को देख सके,
जिसकी उपस्थिति, प्रेम का एहसास कराए।
जो हर बार, हर क्षण में,
अपना स्नेहमय हाथ बढ़ाए।

मैं वही बनूँ, जो इस कठोर जग में,
अपनी नरमी न खोने दे।
जो हर चोट पर मुस्कान रखे,
हर कांटे को भी गुलाब माने।

दुनिया को चाहिए ऐसे लोग,
जो संवेदनाओं से भरे हों।
मैं वही बनूँ, क्योंकि यही मेरा सत्य है,
हर दुख, हर प्रेम का साथी हो।


मातृदेवो भव।

मां की आवाज़—सबसे बड़ी नेमत
"मातृदेवो भव।"
(मां देवता समान है।)


घर में गूंजती मां की आवाज़,
जैसे किसी मंदिर में बजता घंटा।
हर शब्द में छिपा होता है प्यार,
हर पुकार में छिपा होता है आशीर्वाद।

मां की आवाज़,
सिर्फ एक ध्वनि नहीं,
यह वो जादू है
जो घर को घर बनाती है।
रसोई से आती उनकी पुकार,
खाने की सुगंध में घुला उनका स्नेह,
जिंदगी का सबसे बड़ा वरदान है।


जब मां बोलती है,
तो लगता है जैसे सृष्टि मुस्कुरा रही हो।
उनकी लोरी,
जैसे आत्मा को सुकून दे।
उनकी डांट भी,
सिखाने का सबसे प्यारा तरीका है।

अगर तुम्हारे घर में
मां की आवाज़ गूंज रही है,
तो जान लो,
तुम सबसे अमीर हो।
क्योंकि यह आवाज़,
सिर्फ आज का सहारा नहीं,
बल्कि जीवनभर की दुआ है।


लेखनी - जो स्वयं लिखती है



मुझे नहीं लिखना होता,
शब्द अपने आप संवरते हैं।
विचार नहीं बुनने पड़ते,
भाव अपने आप उमड़ते हैं।

जैसे गगन में बादल घुमड़ते,
वैसे मन में अर्थ उतरते।
न कोई चेष्टा, न कोई प्रयास,
बस कलम संग चलती है सांस।

यह कहानी मेरी नहीं,
यह तो उस अनंत की वाणी है।
जो मुझसे होकर बहती,
जैसे नदी से जल की रवानी है।

जब शब्द मुझसे पूछते हैं,
"क्या हम तुम्हारे हैं?"
तो मैं मुस्कुरा कर कहता हूँ,
"मैं बस माध्यम हूँ, सृजन तुम्हारे हैं।"

यह जो बहती धारा है,
यह उस शाश्वत का इशारा है।
जहाँ मैं नहीं, केवल वह है,
और हर शब्द उसका सहारा है।

तब समझता हूँ,
यह लेखन मेरा नहीं,
यह उसकी पुकार है।
जो अपने आप लिखती है,
वही तो सच्ची रचना का आधार है।


निज मन को मुक्त करो



दर्द की परछाइयों में क्यूं उलझा है मन,
भूत के भार से क्यों झुका है तन।
आओ, छोड़ दें वो बीते हुए घाव,
जो अब नहीं दे सकते जीवन का सही प्रभाव।

अंधेरों से बाहर, उजाले की ओर,
छोड़ो वो जंजीरें, तोड़ो हर छोर।
हर घाव की गहराई से झांके प्रकाश,
जहां नया सवेरा दे जीवन का आभास।

निष्प्राण हो मन, बनो शांत झील,
जहां न हो लहर, न कोई हठील।
निष्क्रियता में छुपा है सच्चा आराम,
जहां न हो अतीत का कोई भी नाम।

निःशब्द मन, निःशूल प्राण,
यही है स्वतंत्रता, यही है ज्ञान।
छोड़ो दर्द, मुक्त करो आत्मा,
हर क्षण नया है, हर क्षण मातमा।

चलो, निःमन में खोजें नई राह,
जहां न हो अतीत का कोई प्रवाह।
मुक्त हो जाओ, बंधन तोड़ दो,
अपने भीतर का आकाश खोज लो।


अखंड, अचल, अजेय वही



अखंड है, अचल है, अजेय वही,
जिसे न झुका सके कोई शक्ति कभी।
माया की मोहिनी भी हारती है,
वेदों की सीमा वहाँ रुक जाती है।

जो अनादि है, अनंत है, पूर्णतम,
शांत है, शाश्वत है, दिव्यतम।
सबसे ऊपर, परम से भी परे,
उस ब्रह्म में शरण मेरी सदा रहे।

न दीप की लौ, न शब्दों की रीत,
न मन की गति, न तर्कों की जीत।
जो समझ से परे, जो दृष्टि से दूर,
वह सत्य है, वही शुद्ध, वही सूर।

उसकी महिमा का कैसे वर्णन करूँ?
शब्द असमर्थ, मैं कैसे उसे धरूँ?
बस सिर झुकता है, हृदय गा उठता है,
"हे ब्रह्म, तू ही मेरा सब कुछ है।

मैं, अच्छा और बुरा का साकार रूप

मैं, जो अच्छा कहलाता, मैं, जो बुरा कहलाता, मैं सत्य का अंश, मैं मिथ्या का नाता। दो ध्रुवों के बीच, मेरा अस्तित्व छिपा, मैं ही प्रकाश, मैं ही...