मैं लौटना चाहता हूँ,
जहाँ हिमालय की चोटियाँ
मेरी आत्मा से संवाद करती थीं,
जहाँ बर्फ की सफेदी में
मेरा मन निस्पंद विश्राम पाता था।
मैं फिर से उन बर्फीली राहों पर चलना चाहता हूँ,
जहाँ हर कदम एक तपस्या था,
जहाँ ठंडी हवाएँ भी
मुझे मेरा असली स्वरूप याद दिलाती थीं।
मैं फिर से भागीरथी की लहरों में उतरना चाहता हूँ,
जहाँ हर स्पर्श में थी
सौ युगों की पवित्रता,
जहाँ जल नहीं,
समय बहता था।
मैं फिर से घोड़े की पीठ पर
उन देवदारों के बीच दौड़ना चाहता हूँ,
जहाँ हर वृक्ष मुझे नाम से जानता था,
जहाँ हर पत्ता मेरी यात्रा का साक्षी था।
मैं फिर से खुले आसमान के नीचे सोना चाहता हूँ,
जहाँ तारे कहानियाँ बुनते थे,
जहाँ रातें चाँदी की चादर ओढ़े
मुझे निःशब्द गले लगाती थीं।
मैं लौटना चाहता हूँ उन अपनों के बीच,
जो आत्मा को सम्मान देते थे,
जो शब्दों से नहीं,
नजरों से अपनापन देते थे।
मैं हिमालय की उन घाटियों में लौटना चाहता हूँ,
जहाँ मेरी पहचान किसी नाम से नहीं,
बल्कि बहती हवाओं और गंगा की धारा से थी।
मैं लौटना चाहता हूँ…
अपने असली जीवन में,
जहाँ मैं बस "मैं" था,
निर्बंध, मुक्त, शाश्वत।
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