स्त्री: प्रेम की प्रतिमूर्ति



मैं कोमल हूँ, मैं कठोर हूँ,
मैं जीवन की हर डोर हूँ।
मैं पुष्प हूँ, मैं नव रस हूँ,
मैं सृष्टि की अटल आस हूँ।

जहाँ अंधकार प्रबल हुआ,
जहाँ हर आशा शिथिल हुआ।
वहीं मैं दीप बनकर आई,
पथ में प्रेम-प्रकाश जगाई।

मेरा चित्त स्वयंप्रभा से भरा,
जो फैला हर दिव्यता में तिरा।
मैं आधार हूँ इस संसार का,
हर नर के मधुर व्यवहार का।

मैं प्रेम हूँ, मैं समर्पण हूँ,
हर व्यथा का मैं अंतिम वरण हूँ।
मैं स्त्री हूँ, माया की ज्योति,
हर राह को दिखलाती होती।

जहाँ पुरुष ने खोई दृष्टि,
जहाँ मन में छाई थी सृष्टि।
वहाँ मैं बनी उसकी राह,
उसकी हर पीड़ा का उपवाह।

प्रिये, तुम्हारे बिना ये संसार अधूरा,
मैं तुम्हारी शक्ति, तुम्हारा अधिपूरा।
मैं स्त्री हूँ, सृजन की लहर,
इस जगत की अनन्त प्रखर।


स्त्री का आलोक



स्त्री तुम कोमलता का सागर हो,
जहाँ प्रेम के मोती बिखरते हैं।
तुमसे ही सृष्टि की गाथा है,
तुमसे ही जीवन सँवरते हैं।

तुम पुष्प की मृदु सुगंध हो,
तुम रस की मधुशाला हो।
तुममें समर्पण की गहराई है,
और सम्मोहन की मधुर वाणी हो।

जब-जब अंधकार घेरता पुरुष को,
माया का मोह जकड़ता मन को।
तब-तब स्त्री बनती दीपक प्रज्वलित,
दिखाती राह उजालों की धरा को।

तुम प्रकृति की गूँज हो,
तुम जीवन की चेतना हो।
तुम शक्ति की देवी हो,
और ममता की सरिता हो।

तुमसे ही जगत प्रकाशित है,
तुमसे ही हर आधार है।
स्त्री, तुम्हारे बिना संसार अधूरा,
तुम्हीं जीवन का सार हो।

प्रिये तुम्हीं से मैं भी हूँ 
और ये संसार तुम्हीं से है।


श्रेष्ठ पुरुष के प्रतीक

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