आज छुट्टी का दिन है।
मौसम अपने पूरे रंग में है — हल्की ठंडी हवा, रिमझिम सी बारिश, और खिड़की के पार फैली समुद्र की नमी।
पर मेरे भीतर मौसम कुछ और ही है।
सोच के कई मोर्चे एक साथ खुल गए हैं…
एक ओर करियर की तेज़ रफ़्तार वाली पटरियाँ हैं,
दूसरी ओर परिवार की गर्माहट,
तीसरी ओर ज़िंदगी में आया नया नन्हा मेहमान,
और चौथी ओर… नानी।
मैं इस समय मुंबई में हूँ —
वो शहर जहाँ सपने लोकल ट्रेन की भीड़ में धक्के खाते हैं,
जहाँ बारिश हर साल पुरानी फ़िल्मों के गानों जैसी लौटती है,
जहाँ समुद्र के किनारे बैठकर भी मन में लहरें नहीं थमतीं।
यहीं, इस भीड़भाड़, नमी और हलचल के बीच,
इस बार माँ पहली बार आई हैं।
माँ के चेहरे पर हैरानी भी है, ख़ुशी भी,
जैसे पहाड़ों से उतरकर किसी नए लोक में आ गई हों।
और फिर एक कोना है मेरे भीतर —
जहाँ मेरी नानी हैं।
उत्तarkashi के उस शांत, हिमालय की गोद में बसे घर में।
107 बरस की उम्र में भी उनकी आँखों में वैसी ही चमक है,
जैसे भागीरथी की धारा में चाँद की रोशनी।
वो मेरी माँ की माँ हैं,
वो समय की साक्षी हैं —
उन्होंने सात पीढ़ियाँ देखी हैं,
जिनमें समय बदला, लोग बदले, पर उनके भीतर की स्थिरता नहीं।
एक तरफ़ हिमालय है — स्थिर, मौन, ध्यान में लीन।
जहाँ सुबहें आरती और पक्षियों के गीतों से खुलती हैं,
जहाँ हवा में भी मंत्रों की गूंज होती है।
और दूसरी तरफ़ मुंबई है —
जहाँ दिन रात में और रात दिन में मिल जाती है,
जहाँ लोकल ट्रेन की सीट के लिए जैसे जीवन की दौड़ हो,
जहाँ समुद्र है, पर भीतर शांति नहीं।
कभी-कभी लगता है जैसे मैं इन दो दुनियाओं के बीच झूल रहा हूँ —
एक तरफ़ वो जगह जहाँ से मैंने जीवन की जड़ें पाईं,
दूसरी तरफ़ वो जगह जहाँ मैं अपने पंख फैलाना सीख रहा हूँ।
नानी…
उनकी कल्पना आते ही मन ठहर जाता है।
उनके झुर्रियों भरे हाथों में जैसे समय की लकीरें खुदी हों,
उनकी आँखों में जैसे सौ सालों की कहानियाँ तैरती हों।
उन्होंने उस युग को देखा जहाँ मोबाइल नहीं थे,
जहाँ चिट्ठियाँ ही प्रेम का माध्यम थीं,
जहाँ पहाड़ों में शाम होते ही दीपक जलते थे और
लोग एक-दूसरे की आँखों में जीवन पढ़ लेते थे।
और आज…
मैं मुंबई की किसी इमारत की बालकनी में खड़ा हूँ,
नीचे समुद्र की लहरें हैं, ऊपर बादल,
और मन में नानी की हँसी गूँज रही है।
कभी सोचता हूँ —
क्या वो जानती हैं कि उनका नाती अब इस शोर में अपना रास्ता ढूँढ रहा है?
क्या उन्हें पता है कि उनकी शांत आँखों की छवि ही है
जो इस हलचल में मुझे अंदर से जोड़कर रखती है?
माँ इधर पहली बार मुंबई में हैं,
नानी उधर 107 की उम्र में अब भी उसी मिट्टी में,
जहाँ मेरी जड़ें हैं।
और मैं… बीच में खड़ा हूँ —
हिमालय और समुद्र के बीच,
मौन और शोर के बीच,
परंपरा और परिवर्तन के बीच।
शायद इसी झूल में ही मेरी लेखनी का असली स्वर है…
शायद नानी की आँखों से ही मैं देख पाता हूँ
मुंबई की बारिश को भी एक कहानी की तरह।
कभी-कभी ज़िंदगी की सबसे गहरी कविताएँ हम लिखते नहीं… बस जीते हैं।
नानी की आँखों में समय है,
और मुंबई की सड़कों पर भविष्य।
मैं इन दोनों के बीच चल रहा हूँ —
धीरे, सच्चे और सजग क़दमों से।
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