नींद जब धीरे-धीरे छूटने लगे,
मन की गहराई मुझसे रूठने लगे।
आँखें न खोलूँ, बस भीतर उतरूँ,
ऊर्जा की लहरों में खुद को निखरूँ।
रात की थकान सब धुली जा चुकी,
तन-मन की कली फिर से खिली जा चुकी।
ताज़गी का अमृत हर नस में बहे,
नया सूरज भीतर ही भीतर रहे।
करवट का आलस्य बुलाए मुझे,
लेकिन मैं भीतर सजग पा लूँ उसे।
बिल्ली की तरह तन को फैलाऊँ मैं,
ऊर्जा की नदियों में बह जाऊँ मैं।
हर शिरा गाती है जीवन का गीत,
प्रकृति से मिला यह अनमोल प्रीत।
तन का कंपन, मन का उत्साह,
जागरण बने मेरा मधुर प्रवाह।
फिर मैं हँसता हूँ आँखें बंद किए,
जैसे बादल हों बिजली संग लिए।
पागलपन-सी हँसी में रस घुला है,
हर कण में नया सवेरा फूला है।
अब समझा मैंने यह गहरा विधान,
ध्यान नहीं कोई दूर की पहचान।
सुबह की पहली साँस ही मंदिर है,
यही ध्यान, यही साधना का सिंधु है।
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