भय की जंजीरें

 

भय की ठंडी साँस में जलती हैं अनगिन आत्माएँ,
शर्म की चादर ओढ़े छिपती हैं जग की परछाइयाँ।
काँपते मन की दीवारों पर लिखा है एक ही शब्द — “डर”,
जो रोक देता है उड़ानें, तोड़ देता है आत्मा का स्वर।

जो भय में जीता है, वो मरता है हर सुबह के साथ,
उसकी धड़कनें नहीं बोलतीं, बस करतीं मौन प्रलाप।
क्योंकि भय — दैवी प्रकाश का सबसे गहरा अंधकार है,
जो भीतर के ब्रह्म को कैद कर देता, वही नरक द्वार है।

कभी सोचा है, क्यों समाज तुम्हें डर सिखाता है?
हर पग, हर श्वास में अपराध का बोध कराता है।
क्योंकि भय में बंधा व्यक्ति नहीं बन सकता विद्रोही,
वो नहीं पूछेगा — “मैं कौन हूँ?” यही है उनकी तोली।

भय से जन्मती है लज्जा, लज्जा से झूठ की दीवार,
फिर सत्य छिप जाता भीतर, जैसे जल में बसी चिंगार।
शर्म ने देवत्व को ढँका, भय ने आत्मा को बाँधा,
और मनुष्य — अपने ही भीतर बन गया एक पिंजरा साधा।

पर सुनो...
जब आत्मा प्रेम की तरंग में झूम उठती है,
भय के सारे सूत्र उसी क्षण टूट जाते हैं।
एक क्षण का निश्चय — कि “मैं प्रकाश हूँ”,
और भय की सारी रात्रि सुबह में डूब जाती है।

प्रेम — वही शक्ति जो सृष्टि को गति देती है,
वही स्वर जो गूंगे पत्थर में चेतना भर देती है।
प्रेम में कोई भय नहीं, न शर्म का कोई स्थान,
क्योंकि वहाँ “मैं” नहीं होता, बस “अहम् ब्रह्मास्मि” का गान।


जो आत्मा प्रेम की धारा में बह चलती है,
उसके हर कण से ब्रह्म की ज्योति झरती है।
वो नहीं झुकता, नहीं रुकता, नहीं डरता अब और,
वो जानता है —
“भय ही माया है, मैं तो शुद्ध चैतन्य कोर।”


कभी ध्यान से देखो —
भय की लहरें नीचे खींचती हैं,
शर्म की जकड़ तुम्हें छोटा करती हैं।
पर जब तुम उठते हो अपने भीतर के सूरज से,
तो वही जग जो डराता था, अब झुकता है नमन से।


भय — हिंसा है आत्मा पर,
प्रेम — क्रांति है चेतना की।
जो प्रेम चुनता है, वो अमरत्व पाता है,
जो भय चुनता है, वो बार-बार जन्म में जाता है।


"न भयं तस्मात् विद्यते यत्र आत्मा स्वप्रकाशः।
न लज्जा, न मोह, केवल ब्रह्म का प्रकाशः॥"
(जहाँ आत्मा स्वयं प्रकाशित है, वहाँ भय नहीं,
न शर्म, न मोह — केवल दिव्यता है वही।)

युद्ध यहीं है




मैं रोज़ दुनिया बचाने की बातें करता हूँ ज़ोरों से,
पर खुद को भूल जाता हूँ ज़हर घुला है रग-रग के छोरों से।
कैसे बचाऊँ जग को मैं, जब भीतर खुद ही हार रहा,
अंजान हूँ उन जालों से, जिनमें मैं हर पल फँस रहा।

मैं साँस में खींच रहा प्लास्टिक, जल में छुपा जहर पीता हूँ,
मिट्टी तक में मिल चुका है वो रोग, जिसे अनदेखा जीता हूँ।
मैं सोचूँ क्रांति बाहर की, पर भीतर घाव गहरे हैं,
जो दुश्मन दिखते नहीं कभी, वही सबसे पहले ठहरे हैं।

मैंने देखा है विज्ञापन बनकर कैसे प्रलोभन आते हैं,
रूप-सौंदर्य की दौड़ में हम कैसे खुद को खो जाते हैं।
क्रीम, सुगंध, रंग-रोगन सब, नक़ली सौगातें लाते हैं,
पर धीरे-धीरे भीतर के सच को चुपचाप चट जाते हैं।

मैंने पूछा खुद से आज, ये युद्ध कहाँ पर जारी है?
मीडिया में नहीं, यहीं, मेरी दिनचर्या में भारी है।
ये रोटी, ये पानी, ये नींद, सब कुछ बिकने आया है,
मेरा शरीर, मेरा मन, धीरे-धीरे मरने पाया है।

मैंने प्रतिज्ञा ली अब खुद से, छोटे कदम उठाऊँगा,
मिट्टी की थाली, मिट्टी का कुल्हड़ फिर से अपनाऊँगा।
नहीं चाहिए चटकीले toxin, नहीं वो चिपकी पैकिंग अब,
सीधा अन्न, सीधी साँसें—यही है असली बैरिक अब।

मैं बोतल छोड़ मिट्टी के घड़े की ठंडक पीना चाहूँगा,
मैं जंगल की चुप्पी में खुद को फिर से जीना चाहूँगा।
ना प्लास्टिक हो होंठों पर, ना रसायन हो भोजन में,
मैं लौट चलूँगा असली पृथ्वी की कोमलता वाले क्षोभन में।

मैं जानता हूँ मुक्ति का रस्ता कोई अख़बार नहीं देगा,
जब तक भीतर बदलाव न हो, बाहर संसार नहीं देगा।
मैं जागूँगा अपने भीतर, यही पहला रण होगा,
जो मैं जीतूँगा स्वयं में, वो ही विश्व का धन होगा।

हाँ, युद्ध यहीं है रोज़ाना, इन आदतों के घेरे में,
सावन ढूँढे कोई बाहर—मैं भीड़ के अँधेरे में।
मैं पूछूँ खुद से प्रतिदिन, “क्या सच में मैं जीवित हूँ?”
या बस एक चलता प्लास्टिक हूँ, जो भीतर से निष्प्राणित हूँ।

तो आज लिखता हूँ प्रतिज्ञा ये, मैं अपने व्रत को थामूँगा,
प्रकृति की गोद में लौटकर, खुद को फिर से थामूँगा।
जब मैं शुद्ध होऊँगा भीतर, तब ही कुछ कह पाऊँगा,
वरना ये सारी क्रांति बस शब्दों में रह जाऊँगा।

दुनिया बचाना है तो पहले, खुद को ज़हर से मुक्त करूँ,
जंग बाहर नहीं, ये भीतर है—मैं मरूँ या मैं पुनर्जन्म करूँ।