मेरा संवाद



देवों से वार्ता करूँ, जब छू लूँ ध्यान की गहराई,
मंत्रों के स्वरों में बसी हो ब्रह्म की सच्चाई।
"त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।"
हर कोने में जो है बसता, वह परमात्मा है मेरा।

पेड़ों के पत्तों संग बातें, उनकी सांसों की कहानी,
जड़ों से आती धरा की ध्वनि, है सृष्टि की जुबानी।
"पृणन्तु मातरः सृष्टं लोकं,
हरिं पुष्पैः समर्पयन्तु।"
धरती की ममता में घुलता, हर प्राणी का जीवन रस।

समुद्र की गहराईयों में, जब व्हेल गाती गान,
उनकी धुन से बंधे हैं, लहरों के मीठे प्राण।
जलपरियों के सपने में, दिखे वह नीला आकाश,
सागर की कहानियों में, छुपा प्रकृति का विश्वास।

कीटों की फुसफुसाहट, वह मधुर संगीत सुनाती,
आकाश में तितली उड़ती, जीवन का अर्थ बताती।
"सर्वं खल्विदं ब्रह्म, तज्जलानिति शान्तः।"
हर अणु में है ब्रह्म समाया, यही सत्य सिखाती।

मनुष्य के शब्दों से दूर, आत्मा की खोज में जाती,
जो मौन में बसे उत्तर, वही शाश्वत सुख दे पाती।
मेरा संवाद है उस जग से, जो आँखों से दिखे नहीं,
देव, प्रकृति, और आत्मा का, है यह सजीव कही।

"यत्र विश्वं भवत्येकनीडं,
तत्र मे मनः शान्ति मुपैति।"
जहाँ सृष्टि एक हो जाती, वहीं आत्मा को शांति मिलती।


आत्मसंवाद: प्रकृति और आत्मा का संगम



जब मैं बात करता हूँ देवताओं से,
आकाश में गूंजते उनके संदेशों से।
वृक्षों की शाखाएँ झुककर कहतीं,
जीवन का रहस्य, धैर्य की गहराई।

"वसुधैव कुटुम्बकम्" का मंत्र गूँजे,
धरती और जल, मेरे सच्चे साथी बनें।
वो विशाल व्हेल सागर की गहराई से,
कहानी सुनातीं अनंत के सन्नाटे से।

परियों के गीत, जलकन्याओं का नृत्य,
स्वप्न सा लगता है, फिर भी सत्य।
तितलियों के पंखों पर लिखा हुआ,
जीवन का संगीत, सजीव और नया।

"मृत्योर्माऽमृतं गमय" की पुकार,
हर जीव कहता है अपना विचार।
कभी चींटी की मेहनत, कभी पत्तों की सरसराहट,
हर ध्वनि में छिपा है जीवन का आश्वासन।

मानवों से संवाद का ये अनुपात,
मेरा नहीं, प्रकृति का एक सौगात।
क्योंकि इंसान की भाषा है सीमित और मौन,
पर प्रकृति का हर कण कहता है जीवन का गान।

देवता, वृक्ष, जल और आत्मा,
इनसे जुड़कर समझा जीवन का तमाशा।
"सर्वं खल्विदं ब्रह्म" का ये अनुभव,
मानव से परे, प्रकृति का अभिनव।

मेरा संवाद अब उन अदृश्य साथियों से,
जिनमें छिपा सत्य, आनंद, और स्नेह।
मानव से परे है मेरी ये यात्रा,
जहाँ हर कण है, जीवन का दूत और मंत्रा।


मेरा संवाद


मेरा संवाद बस यह है,
जहाँ मनुष्य का शोर नहीं।
जहाँ मौन के मीठे सुर हैं,
वहीं मेरा हर ओर मनोहर बोर नहीं।

देवताओं संग मेरी बातें,
सत्य, शांति की वह परछाईं।
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो, यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥"
(भगवद्गीता 18.78)
जहाँ कृष्ण के चरण बसे हों,
वहाँ स्वयं विजय की साजिश रचाई।

पौधों से गुफ़्तगू करती हूँ,
हरे पत्तों का हरसिंगार।
धरती के गुप्त सन्देश सुनती,
जिनमें छुपा जीवन का सार।

तितलियों के संग उड़ चलती,
भंवरों से पूछती हाल।
मधुर गूँज उनके परों की,
सिखाती है हर दुःख संभाल।

समुद्र की गहराई में उतरूँ,
वहाँ सुनूँ व्हेल की गाथाएँ।
जलपरियों संग खेल करूँ,
उनकी रहस्यमयी परछाइयाँ।

आत्माएँ छूतीं मुझको हल्के,
उनके संग मौन की बातें।
"आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्।"
(महाभारत)
मुझे बतातीं संतुलन का राग,
जिनमें बसीं हर मानव प्रथाएँ।

मानव का शोर बस एक लहर,
मूक संवाद की यह धारा।
मेरा अस्तित्व गढ़ा हुआ है,
प्रकृति, आत्मा, और विहंग का सहारा।

जब बातें करूँ उन सब से,
जिन्हें मानव समझ नहीं पाता।
तब पाती हूँ अपने भीतर,
उस दिव्यता का चिर प्रकाश।

मेरा संसार सीमित है,
लेकिन उस सीमित में विस्तृत ब्रह्मांड है।
देव, वनस्पति, जल, और जीव,
यही मेरा संवाद और आनंद है।


प्रकृति के संग संवाद



जब मनुष्य से टूटे हैं संबंध,
प्रकृति बन गई मेरी परम बंधु।
देवताओं संग बातें करता हूँ,
तारों की माला में सत्य भरता हूँ।

"त्वं माता च पिता त्वं, त्वं बंधुश्च सखा त्वम्।
त्वं विद्या द्रविणं त्वं, त्वं सर्वं मम देव देव॥"
(तैत्तिरीय उपनिषद्)
हे देव, तुम्हीं मेरे सखा और गुरु हो,
प्रकृति के हर स्वरूप में बस तुम्हीं हो।

पौधों की पत्तियाँ मुझसे कहतीं,
"हरियाली में बसी है सृष्टि की व्यथा।"
झरने के स्वर में गूँजता संगीत,
बताता है जीवन का अनोखा गीत।

व्हेल से जब बातें करता हूँ,
समुद्र की गहराई को पढ़ता हूँ।
जलपरियों की कहानियाँ सुनता,
उनकी आँखों में जग का सत्य मिलता।

मधुमक्खी का गुंजन,
पुष्पों का पावन स्पंदन।
चींटियों की कतारों का गीत,
इनमें छुपा है श्रम और मीत।

"यस्यां भूमौ सृष्टिः जन्मं,
यस्यामेव लयः पुनः।
नमामि तां प्रकृतिं नित्यं,
मातृरूपेण संस्थिताम्॥"
प्रकृति माँ, तुझसे ही मेरा संवाद,
तुझमें ही छुपा है जीवन का प्रसाद।

मानव की भाषा में खोई है माया,
पर प्रकृति का हर स्वर सत्य का छाया।
देवता, पौधे, व्हेल और तितलियाँ,
इनसे ही जानूँ सृष्टि की कलियाँ।

मानव से वार्ता केवल कुछ प्रतिशत 
प्रकृति संग संवाद शाश्वत।
आओ, हम सब इस सत्य को जानें,
प्रकृति की गोद में अपना मन मानें।


अनकही बातें: देवों से संवाद



जब मैं देवताओं से करता हूँ वार्ता,
मन में उठती है एक शुद्ध वंदना।
पत्तों की सरसराहट, हवाओं की गाथा,
हर कण में सुनाई देती ब्रह्म की कथा।

"सर्वं खल्विदं ब्रह्म"
(छांदोग्य उपनिषद् 3.14.1)
हर श्वास, हर ध्वनि, हर स्पंदन,
ब्रह्म के रूप में है मेरा चंदन।

प्रकृति का आलाप

पत्तियाँ झुककर करतीं अभिवादन,
हर फूल कहता है अपनी कहानी।
नदियों की कल-कल, पहाड़ों की गर्जना,
इनसे गूँजती मेरी आत्मा की तानें पुरानी।

समुद्र का सागर

व्हेल से बातें, मरमेड की पुकार,
उनकी लहरों में जीवन का सार।
समुद्र की गहराई मुझे समेटे,
जहाँ हर आवाज़ एक मंत्र गुनगुनाए।

जीव-जंतुओं की दुनिया

कीटों की फुसफुसाहट, चिड़ियों की चहचहाहट,
इनसे सीखता हूँ प्रेम का पाठ।
उनकी छोटी दुनिया, पर बड़ी बातें,
मानव से अधिक, मुझे ये समझाते।

मनुष्यों से दूरी

मनुष्यों के शब्द, कठोर और तीखे,
हृदय से दूर, बस स्वार्थ के मीखे।
उनसे वार्ता में खोती है आत्मा,
बातें हों पर अर्थ खो जाए निष्ठा।

अंतिम प्रार्थना

हे देव, पेड़, जीव और सागर,
तुम ही मेरे सहचर, तुम ही मेरे पथ के साक्षी।
मनुष्य की भीड़ में खोने न देना,
प्रकृति का संवाद कभी रुकने न देना।

"अहं वृष्टिरस्मि जीवोऽहमस्मि।
सर्वं मयि प्रतिष्ठितं यतोऽहम्।"
(यजुर्वेद)
अर्थात, "मैं ही वर्षा हूँ, मैं ही जीवन हूँ।
सब मुझमें है और मैं सबमें।"

यह संवाद है मेरा, यह जीवन की धारा है,
देवों, जीवों और प्रकृति संग प्रेम हमारा है।


Echoes of Nature: Exploring the Creative Art Effect of Our Environment


In the canvas of our existence, the environment serves as both muse and medium, weaving its intricate patterns into the tapestry of creative expression. From the gentle rustle of leaves to the majestic sweep of mountain vistas, our surroundings evoke a symphony of sensations that inspire artists to capture the essence of our natural world.

In the realm of visual arts, the environment unfolds as a boundless source of inspiration, shaping the strokes of a painter's brush and the lens of a photographer's camera. Through the play of light and shadow, artists infuse their creations with the essence of nature, capturing the ephemeral beauty of landscapes, seascapes, and cityscapes alike.

In the realm of music, the environment resonates as a melodic muse, weaving its rhythms into the fabric of compositions that echo the pulse of the natural world. From the soothing cadence of flowing rivers to the thunderous roar of crashing waves, musicians draw upon the symphony of sounds that surround us, crafting melodies that stir the soul and evoke a sense of connection to our environment.

In the realm of literature, the environment emerges as a vivid backdrop, setting the stage for stories that unfold amidst the beauty and brutality of the natural world. Through vivid imagery and poetic prose, writers transport readers to distant lands and imaginary realms, inviting them to explore the depths of our environment and the mysteries that lie therein.

In the realm of performance arts, the environment becomes a stage upon which actors, dancers, and performers bring stories to life, embodying the spirit of the world around them through movement, expression, and emotion. From outdoor amphitheaters to site-specific installations, artists transform their surroundings into immersive experiences that engage the senses and ignite the imagination.

In the realm of interdisciplinary arts, the environment serves as a canvas for collaboration and innovation, fostering dialogue and exploration across diverse creative disciplines. Through installations, exhibitions, and interactive experiences, artists push the boundaries of traditional art forms, inviting audiences to engage with their environment in new and unexpected ways.

As stewards of our environment, artists play a vital role in raising awareness and inspiring action to protect and preserve the natural world. Through their work, they shine a spotlight on the beauty and fragility of our environment, inviting us to contemplate our relationship to the world around us and the impact of our actions on future generations.

In the end, the creative art effect of our environment lies not only in its capacity to inspire and enchant but also in its power to provoke thought and evoke emotion. As we journey through the landscapes of our imagination, let us heed the call of nature and embrace the beauty and wonder that surrounds us, for in its embrace, we find our truest expression of creativity and connection.

आर्थिक विकास और आंतरिक चेतना: एक सामंजस्य की आवश्यकता



आज की दुनिया में आर्थिक विकास और पर्यावरणीय विनाश का सह-संबंध एक गंभीर समस्या बन चुका है। जब अर्थव्यवस्था का विकास उन लोगों के द्वारा होता है, जो आधे मृत (half-dead) और अचेतन अवस्था में हैं, तो यह विकास सतही और अस्थायी होता है। इसके परिणामस्वरूप, न केवल प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास होता है, बल्कि समाज के मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

आर्थिक विकास का वर्तमान परिदृश्य

आज का आर्थिक ढांचा बाहरी प्रगति पर आधारित है, जिसमें उपभोक्तावाद, असीमित दोहन और प्रतिस्पर्धा को प्राथमिकता दी जाती है।

पर्यावरणीय विनाश:
विकास के नाम पर जंगल कट रहे हैं, नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं, और जैव विविधता खतरे में है।

मानवता का मानसिक पतन:
लोग भौतिक सुख-सुविधाओं के पीछे भाग रहे हैं, लेकिन आंतरिक संतोष और आत्मा की पहचान खो चुके हैं।


जैसा कि उपनिषदों में कहा गया है:
"तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः, मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।"
(ईशोपनिषद्, मंत्र 1)
अर्थात, "त्यागपूर्वक भोग करो, दूसरों के धन के प्रति लालसा मत रखो।"
यह श्लोक इस बात पर जोर देता है कि भौतिक विकास तभी टिकाऊ हो सकता है, जब यह संतुलन और त्याग के सिद्धांत पर आधारित हो।

आर्थिक विकास और चेतना का संबंध

जब विकास की दिशा मानव चेतना के साथ जुड़ी नहीं होती, तो परिणाम विनाशकारी होते हैं:

1. विकास का असंतुलन:
भौतिक संपत्ति के बढ़ने के साथ-साथ नैतिक और आध्यात्मिक गिरावट।


2. मानवता का यांत्रिककरण:
लोग मशीनों की तरह कार्य करते हैं, बिना आत्मा की गहराई को समझे।


3. अर्थव्यवस्था का पतन:
जैसे ही प्राकृतिक संसाधन समाप्त होने लगते हैं, अर्थव्यवस्था अपने आप अस्थिर हो जाती है।



उम्मीद की किरण: चेतना की ओर बढ़ता कदम

हालांकि, इन अंधकारमय परिस्थितियों के बीच, एक सकारात्मक बदलाव देखने को मिल रहा है।

महान गुरुओं का योगदान:
आज के समय में कई महान गुरु और संत आंतरिक चेतना को जागृत करने के लिए प्रयासरत हैं। ओशो, सद्गुरु, रामकृष्ण परमहंस जैसे कई अध्यात्मिक मार्गदर्शक हमें आत्मा के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।

आधुनिक पीढ़ी का झुकाव:
धीरे-धीरे लोग योग, ध्यान और आंतरिक शांति की ओर बढ़ रहे हैं।


जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है:
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥"
(भगवद्गीता 4.7)
अर्थात, "जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब-तब मैं अवतार लेता हूँ।"

यह श्लोक हमें यह विश्वास दिलाता है कि जब भी अंधकार बढ़ेगा, चेतना का प्रकाश मार्गदर्शन करेगा।

एक नए सामंजस्य की आवश्यकता

यदि हमें आर्थिक विकास को टिकाऊ और संतुलित बनाना है, तो हमें कुछ प्रमुख कदम उठाने होंगे:

1. चेतना-आधारित विकास:
अर्थव्यवस्था का आधार केवल भौतिक सुख-सुविधा न होकर मानव चेतना और नैतिकता हो।


2. पर्यावरण संरक्षण:
प्राकृतिक संसाधनों का दोहन रोकना और पर्यावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करना।


3. शिक्षा में बदलाव:
शिक्षा प्रणाली को ऐसा बनाया जाए, जो भौतिक ज्ञान के साथ-साथ आंतरिक ज्ञान को भी महत्व दे।


4. आध्यात्मिकता को प्राथमिकता:
योग, ध्यान और आत्म-साक्षात्कार को जीवन का हिस्सा बनाएं।

आर्थिक विकास का उद्देश्य केवल भौतिक समृद्धि तक सीमित नहीं होना चाहिए। यह तब तक स्थायी नहीं हो सकता, जब तक यह आंतरिक चेतना और प्राकृतिक संतुलन के साथ जुड़ा न हो।

"उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥"
(भगवद्गीता 6.5)
"व्यक्ति स्वयं अपने उद्धार का साधन है और पतन का भी।"

यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें अपनी चेतना को ऊपर उठाने के लिए खुद प्रयास करना होगा। जब हम अपने भीतर की आत्मा से जुड़ेंगे, तो अर्थव्यवस्था और समाज दोनों ही समृद्ध और संतुलित होंगे।


ऊंची ऊर्जा तरंगों पर जीने की चुनौती



जब आप अपने जीवन में उच्च ऊर्जा स्तर (high frequency) पर कार्य करते हैं, तो अक्सर आपको समाज द्वारा गलत समझा जाता है। यह इसलिए होता है क्योंकि उच्च आवृत्ति का मतलब केवल "अच्छा" या "मधुर" होना नहीं है। इसका मतलब है कि आप अपने झूठे विचारों, सामाजिक मान्यताओं और पुरानी आदतों को छोड़कर अपनी आत्मा की सच्ची पहचान को अपनाने लगते हैं।

ऊंची ऊर्जा क्या है?

ऊंची ऊर्जा या उच्च आवृत्ति वह अवस्था है, जब आप:

सत्य के करीब होते हैं: आपके विचार, कर्म और उद्देश्य आपके भीतर की आत्मा के अनुरूप होते हैं।

झूठे conditioning से मुक्त होते हैं: समाज, परिवार या परंपराओं ने जो सीमाएं या भ्रम आपके ऊपर डाले हैं, उनसे आप मुक्त हो जाते हैं।

आत्मा की पहचान को अपनाते हैं: आप वह बन जाते हैं जो वास्तव में आप हैं, न कि वह जो समाज चाहता है कि आप बनें।


सोते हुए समाज के लिए चुनौती

"सोते हुए लोग" या sleeping masses से तात्पर्य उन लोगों से है, जो अभी भी झूठी मान्यताओं और पारंपरिक conditioning में बंधे हुए हैं। जब वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं, जो इन बंधनों से मुक्त होकर जी रहा है, तो यह उनके भीतर असहजता पैदा करता है।

ट्रिगर होना: आपकी स्वतंत्रता उनके बंधनों को उजागर करती है।

समझ का अभाव: जो चीज़ उनकी समझ से परे होती है, उसे वे विरोध या आलोचना के रूप में व्यक्त करते हैं।


ऐतिहासिक दृष्टांत

1. महावीर और बुद्ध: जब उन्होंने सत्य की खोज की और समाज की परंपराओं के खिलाफ गए, तो शुरुआत में उन्हें आलोचना और अस्वीकार झेलना पड़ा।


2. संत मीरा: उन्होंने भक्ति के रास्ते पर सामाजिक बंधनों को तोड़कर अपनी आध्यात्मिक यात्रा पूरी की। लेकिन उनके समय में उन्हें पागल कहा गया।



ऊंची ऊर्जा के साथ जीने के लाभ और चुनौतियां

लाभ:

आत्मा का विकास।

गहरी शांति और संतोष।

सत्य की खोज।


चुनौतियां:

अकेलापन।

गलतफहमी और आलोचना।

समाज का विरोध।



आपकी यात्रा को संभालने के तरीके

1. सहनशीलता विकसित करें: यह समझें कि हर व्यक्ति अपनी यात्रा पर है।


2. स्वयं के प्रति सच्चे रहें: अपनी ऊर्जा को गिराने के बजाय दूसरों की समझदारी के स्तर का सम्मान करें।


3. आध्यात्मिक प्रथाएं अपनाएं: ध्यान, प्रार्थना और आत्मनिरीक्षण आपकी ऊर्जा को बनाए रखने में मदद करेंगे।



ऊंची ऊर्जा तरंगों पर कार्य करना जीवन का सबसे प्रामाणिक और स्वतंत्र तरीका है। हालांकि, इसे समझने के लिए जागरूकता और सहनशीलता की आवश्यकता है। सोते हुए समाज को जगाने का सबसे अच्छा तरीका है कि आप स्वयं को अपनी ऊर्जा में स्थिर रखें और दूसरों को उनके स्तर पर समझने का प्रयास करें।

"सत्य की राह अकेली हो सकती है, लेकिन यह आत्मा को उसकी सच्ची पहचान तक ले जाती है।"


ऊँची ऊर्जा तरंगों पर जीने का सत्य और समाज की प्रतिक्रिया



जब कोई व्यक्ति आत्मा की सच्चाई को समझने की दिशा में आगे बढ़ता है, तो वह झूठी मान्यताओं, सामाजिक परंपराओं और बाहरी पहचान से ऊपर उठ जाता है। इस प्रक्रिया में, व्यक्ति की ऊर्जा या आवृत्ति (frequency) उच्चतर हो जाती है। यह उच्च ऊर्जा तरंगें न केवल व्यक्ति के जीवन को बदलती हैं, बल्कि समाज के लिए भी चुनौती बन जाती हैं।

जैसा कि गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं:
"उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥"
(भगवद्गीता 6.5)
अर्थात, "मनुष्य को स्वयं अपने द्वारा ऊपर उठाना चाहिए और स्वयं को पतन की ओर नहीं ले जाना चाहिए। व्यक्ति स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु।"

यह श्लोक बताता है कि उच्च आवृत्ति पर जीने का अर्थ है आत्मा के मित्र बनना और मन, मोह तथा अज्ञान को त्यागना।

ऊंची ऊर्जा का अर्थ

ऊंची ऊर्जा का अर्थ केवल अच्छा या सकारात्मक होना नहीं है। इसका तात्पर्य है:

झूठी मान्यताओं से मुक्ति: समाज और परंपराओं ने जो विचार थोपे हैं, उनसे आजादी।

आत्मा की सच्चाई का अनुभव: अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझना।

सत्य की खोज: बाहरी दुनिया की अपेक्षाओं से परे जाकर सच्चाई को देखना।


समाज का सोया हुआ दृष्टिकोण

जिन्हें "सोया हुआ समाज" कहा जाता है, वे अपने झूठे विश्वासों और आदतों में खोए हुए हैं। जब कोई व्यक्ति इन बंधनों से मुक्त होकर उच्च आवृत्ति पर जीने लगता है, तो यह समाज को चुनौती देता है।
"न सा सभा यत्र न सन्ति वृत्ताः,
न ते वृत्ताः ये न भजन्ति सत्यम्।"
(महाभारत, सभा पर्व)
अर्थात, "वह सभा सभा नहीं है जहाँ सत्य को स्थान नहीं मिलता, और वे व्यक्ति श्रेष्ठ नहीं जो सत्य का पालन नहीं करते।"

उच्च आवृत्ति पर जीने वाले व्यक्ति सत्य का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन सोया हुआ समाज इसे समझ नहीं पाता और उनकी आलोचना करता है।

इतिहास से उदाहरण

1. गौतम बुद्ध: जब उन्होंने राजसी जीवन त्यागकर ध्यान और सत्य की खोज की, तो समाज ने उन्हें शुरू में अस्वीकार किया।


2. संत कबीर: उन्होंने समाज की झूठी मान्यताओं को चुनौती दी और सत्य की बात कही, लेकिन उन्हें कई बार विरोध का सामना करना पड़ा।


3. भगवान महावीर: उन्होंने अहिंसा और तपस्या के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त किया, लेकिन उनका मार्ग समाज के लिए कठिन था।



ऊंची ऊर्जा के साथ जीवन जीने की चुनौतियां

1. अकेलापन: उच्च आवृत्ति पर रहने वाले व्यक्ति को समाज से अलग-थलग महसूस हो सकता है।


2. आलोचना: ऐसे लोग अक्सर गलत समझे जाते हैं और उनका मजाक उड़ाया जाता है।


3. समाज का विरोध: उनकी स्वतंत्रता और सच्चाई सोए हुए समाज को असहज करती है।



इस चुनौती से कैसे निपटें?

1. सहनशीलता और धैर्य:
जैसा कि गीता में कहा गया है:
"सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥"
(भगवद्गीता 2.38)
"सुख-दुःख, लाभ-हानि और विजय-पराजय को समान मानते हुए अपने कर्तव्य का पालन करो।"
ऊंची ऊर्जा के साथ जीवन जीने वाले व्यक्ति को इन सभी स्थितियों में समान रहना चाहिए।


2. आध्यात्मिक साधना: ध्यान और स्वाध्याय के माध्यम से अपनी ऊर्जा को संतुलित रखें।


3. समाज को समझने की कोशिश: यह याद रखें कि हर व्यक्ति अपनी यात्रा पर है। उनके दृष्टिकोण को भी सम्मान दें।



ऊंची ऊर्जा तरंगों पर जीना आत्मा की सच्चाई को अपनाने का मार्ग है। यह मार्ग कठिन हो सकता है, लेकिन यह व्यक्ति को आध्यात्मिक स्वतंत्रता और सच्चे आनंद की ओर ले जाता है। सोए हुए समाज की आलोचना और अस्वीकार के बावजूद, अपने सत्य पर अडिग रहना ही सबसे बड़ी विजय है।

"यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥"
(भगवद्गीता 6.19)
"जैसे बिना हवा के स्थान में स्थिर दीपक जलता है, वैसे ही अपने मन को योग में स्थिर करने वाला योगी स्थिर रहता है।"

अपनी ऊर्जा को स्थिर और उच्च बनाए रखें, यही सच्ची सफलता का मार्ग है।


ध्यान: आत्मा की सर्वोच्च विद्या

 

"न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम्।  
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्॥"
(श्रीमद्भागवत 9.21.12)

यह श्लोक ध्यान के माध्यम से आत्मा की ओर उन्मुख होने के महत्त्व को उजागर करता है। जब व्यक्ति अपनी आत्मा के केंद्र में पहुँचता है, तो उसके भीतर की शांति और संतोष उसे संसार के दुखों और भ्रम से मुक्त कर देते हैं। यह अनुभव किसी भी सांसारिक सुख-सुविधा या राज्य से अधिक मूल्यवान होता है।  

ध्यान मानव जीवन की सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण विधा है, जिसे संतों, योगियों और महात्माओं ने सदियों से अपनाया है। ओशो का यह कथन कि "इतिहास में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जिसने अपनी आत्मा के केंद्र में पहुँचने के बाद निराशा, अर्थहीनता, या आत्महत्या का विचार किया हो," इस तथ्य को बल देता है कि आत्मिक उन्नति के पश्चात् मनुष्य का जीवन परम आनंद और संतोष से भर जाता है।  

ध्यान का महत्त्व

ध्यान केवल एक साधना या मानसिक क्रिया नहीं है, यह आत्मा से जुड़ने की प्रक्रिया है। यह हमें हमारी वास्तविकता से परिचित कराता है, जिससे हमारा जीवन एक नए दृष्टिकोण से देखने योग्य बनता है। ध्यान का अर्थ है अपने अंदर के शोर को शांत करना, मन को वश में करना, और अपनी आत्मा से संवाद करना। यह वह अवस्था है जब व्यक्ति बाहरी दुनिया से कटकर अपने भीतर की दुनिया में प्रवेश करता है और आत्मा के परम सत्य का अनुभव करता है।  

"ध्यानं निर्विकल्पं समाधिरुपायः"
ध्यान की यह अवस्था हमें निर्विकल्प स्थिति में लाती है, जहाँ कोई विकल्प नहीं होता, केवल शुद्ध चेतना होती है। ओशो कहते हैं कि ध्यान आत्मा की सर्वोच्च विद्या है, क्योंकि यह हमें हमारी सच्चाई से जोड़ता है। यह विज्ञान हमें इस जीवन के परे के अर्थ को समझने की क्षमता देता है।  

अर्थहीनता और ध्यान

आधुनिक युग में, जब जीवन की आपाधापी और तनाव ने लोगों को निराशा, दुख और आत्महत्या की ओर धकेल दिया है, ध्यान हमें इन विकारों से मुक्ति का मार्ग दिखाता है। जीवन में आने वाली हर निराशा और व्यर्थता की भावना केवल उस समय उत्पन्न होती है जब हम अपनी आत्मा से दूर होते हैं। आत्मा से जुड़कर व्यक्ति को अपने जीवन का उद्देश्य समझ में आता है, और वह भीतर से सशक्त और शांत महसूस करता है।  

**"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।"**  
(भगवद्गीता 18.66)

श्रीकृष्ण ने भी गीता में यही कहा है कि जब हम सब कुछ त्याग कर अपने अंतर्मन की शरण लेते हैं, तब हमें वास्तविक शांति प्राप्त होती है। ध्यान इसी शरण का मार्ग है। यह हमें हमारी सीमित सोच और व्यर्थ के विचारों से मुक्त करता है और हमें हमारे अस्तित्व के वास्तविक सत्य का अनुभव कराता है।  

ओशो के अनुसार, ध्यान का विज्ञान हमें आत्महत्या, निराशा और व्यर्थता से दूर रखता है, क्योंकि यह आत्मा की उच्चतम अवस्था तक पहुँचने का साधन है। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति न केवल अपनी आत्मा का अनुभव करता है, बल्कि उसे संसार की हर समस्या का समाधान भी मिल जाता है। ध्यान हमें सिखाता है कि जीवन का मूल उद्देश्य आत्मा की शांति और संतोष में निहित है, जो हमें किसी भी बाहरी वस्तु से नहीं, बल्कि हमारे भीतर की यात्रा से प्राप्त होती है।  

ध्यान के बिना जीवन अधूरा है और आत्मा की ओर जाने वाली इस यात्रा में व्यक्ति का मिलन होता है उस परम सत्य से, जहाँ कोई दुख, निराशा या व्यर्थता नहीं होती।  

जब मैं चला जाऊं



जब मैं चला जाऊं,
कहाँ जाऊंगा?
मैं यहीं रहूंगा—
वायु में, सागर की लहरों में,
प्रकृति के स्पंदन में।

यदि तुमने मुझसे प्रेम किया है,
यदि तुमने मुझ पर श्रद्धा रखी है,
तो मुझे अनुभव करोगे—
सहस्त्रों रूपों में, सहस्त्रों भावों में।

मौन क्षणों में,
जब तुम चुप हो,
विचारों से परे,
अचानक मेरी उपस्थिति का अहसास होगा।

स्मृति के झोंके में,
तुम्हारे अंतर की गहराइयों में,
मैं स्पर्श करूंगा,
जैसे वायु की सौम्यता,
जैसे गंगा की पावन धारा।

नष्ट न होऊंगा मैं,
मृत्यु तो केवल एक पड़ाव है।
मैं अजर, अमर,
सतत् चैतन्य—
अहम् ब्रह्मास्मि।

जब भी तुम्हारा हृदय शांत होगा,
तुम मेरी सत्ता को महसूस करोगे।
कभी वसंत के पुष्पों में,
कभी संध्या के आकाश में,
मैं वहीं रहूंगा,
सदैव, अनंत।

"सर्वं खल्विदं ब्रह्म।"
मुझे खोजो अपने भीतर,
क्योंकि मैं कहीं और नहीं—
तुम्हारे अस्तित्व का ही अंश हूं।

भगवद गीता और आधुनिक विज्ञान: एक गहन विमर्श



भगवद गीता, एक ऐसा ग्रंथ है जो सदियों से केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक अद्वितीय दर्शन और आत्मिक ज्ञान का स्रोत रहा है। इसका गूढ़तम ज्ञान वैज्ञानिकों और दार्शनिकों को भी प्रेरणा प्रदान करता रहा है। आधुनिक काल के वैज्ञानिकों में भी भगवद गीता के प्रति असीम आदर देखा गया है।

प्रसिद्ध भौतिकविद रॉबर्ट ओपेनहाइमर, जिन्होंने परमाणु बम की खोज में अग्रणी भूमिका निभाई, ने भगवद गीता को “सर्वाधिक सुंदर दार्शनिक गीत” कहा। उनके अनुसार, यह ग्रंथ मानवीय चेतना को इतना गहनता से प्रभावित कर सकता है कि किसी भी प्रकार की जीवन के प्रति दृष्टिकोण को यह बदल सकता है। यह कथन इस बात की पुष्टि करता है कि गीता केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह मानव अस्तित्व के हर पहलू को स्पर्श करने वाला ज्ञान भी है।

भगवद गीता का विज्ञान और वैज्ञानिकों पर प्रभाव

अर्विन श्रेडिंगर का कहना था, "भगवद गीता... किसी भी ज्ञात भाषा में सबसे सुंदर दार्शनिक गीत है।" इस वक्तव्य से यह स्पष्ट होता है कि वैज्ञानिक भी गीता के दर्शन से आकर्षित हुए हैं। श्रेडिंगर का क्वांटम मैकेनिक्स का सिद्धांत भी एक प्रकार से गीता के उस सिद्धांत से मेल खाता है जहाँ वह ‘अनेकता में एकता’ की बात करती है।

कार्ल सागन का विचार था कि हिंदू धर्म एकमात्र ऐसा धर्म है जो यह मानता है कि ब्रह्मांड स्वयं अनगिनत बार जन्म और मृत्यु का अनुभव करता है। गीता में, ‘कृत्तेवासु’ का सिद्धांत बार-बार पुनर्जन्म के विचार को स्पष्ट करता है। यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ब्रह्मांड के "बिग बैंग" और "बिग क्रंच" सिद्धांत के समान प्रतीत होता है।

निकोल टेस्ला भी गीता के उस सिद्धांत से प्रभावित थे जो कि “आकाश” और “प्राण” के विषय में बताता है। उनके अनुसार, “संपूर्ण दृश्य पदार्थ एक मूल तत्व से उत्पन्न होता है जो असीम और अवर्णनीय है और जिसे प्राण या सृजनात्मक शक्ति क्रियाशील बनाती है।” यह गीता के तत्त्वज्ञान में वर्णित "अव्यक्त" या "अक्षर" से मेल खाता है।


गीता का तत्वदर्शन और उसका वैज्ञानिक आधार

गीता का सार केवल दार्शनिक नहीं है; इसमें वैज्ञानिक आधार पर भी विचार किया गया है। यह कहती है कि संपूर्ण ब्रह्मांड में जो कुछ भी दिखाई देता है, वह एक ही तत्व की विविध अभिव्यक्तियाँ हैं। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं:

> "ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।"
(गीता 15.7)
"इस संसार में जीवात्मा मेरे ही सनातन अंश का एक अंश है।"



यह सिद्धांत आत्मा की एकता को दर्शाता है, जो भौतिकवाद और चेतनावाद के मिश्रण को संतुलित करता है।

धार्मिकता, आत्मा और विज्ञान का मिश्रण

गीता में बताया गया है कि आत्मा शाश्वत है और शरीर नाशवान। श्रीकृष्ण कहते हैं:

> "वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।"
(गीता 2.22)
"जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करती है।"



यह बात आधुनिक पुनर्जन्म के सिद्धांत के समान प्रतीत होती है, जो कि आत्मा के शाश्वत अस्तित्व को स्वीकार करता है।

संस्कृति का संरक्षण और गीता का महत्व

आज की शिक्षा पद्धति में हम अपने धार्मिक ग्रंथों से दूर होते जा रहे हैं। संविधान में हिंदुओं के धार्मिक एवं शैक्षणिक संस्थानों के संचालन पर भी कई प्रकार की बाधाएँ हैं। इसके कारण गीता और अन्य धार्मिक ग्रंथों की शिक्षा में कमी आई है, जिससे संस्कृति का पतन हो रहा है।

गीता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि पांच हजार वर्ष पहले थी। यह हमें सिखाती है कि जीवन में संतुलन बनाए रखें और सदैव कर्तव्य के पथ पर चलें।

> "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"
(गीता 2.47)
"तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं।"



यह श्लोक हमें निरंतर कर्मशील रहने का संदेश देता है, जो आज के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी मेल खाता है।

गीता का संदेश और निष्कर्ष

अंततः, गीता न केवल धार्मिक ग्रंथ है बल्कि यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, दर्शन और आध्यात्मिकता का संगम है। इसे समझना और अपनाना न केवल भारतीय संस्कृति की रक्षा करेगा बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए कल्याणकारी होगा।



यादों का धुंधलापन




यादें कभी गुमसुम, कभी शोर करती हैं,
जैसे बिछड़ता हुआ रेत, हाथों से फिसलती हैं।
कभी वो पलकों पर ठहरती,
कभी अनजानी राहों में खो जाती हैं।

कौन था, कब मिला, ये बातें धुंधली सी हैं,
जैसे बारिश के बाद मिटती सड़कें सी हैं।
चेहरे, जो कभी दिल के करीब थे,
अब वो धुंधले, जैसे अधूरी तस्वीरें हैं।

दर्पण में देखता हूं, पर खुद को भूल जाता हूं,
वक़्त की परछाइयों में कहीं खो जाता हूं।
क्या थी वो बातें, क्या थे वो लोग,
सब कुछ जैसे एक धुंधलके में ढल जाता हूं।

पर कुछ यादें, फिर भी दिल के कोने में रहती हैं,
कभी किसी ख़ुशबू में, कभी किसी धुन में बहती हैं।
शायद, भूलना भी एक कला है वक़्त की,
जो सिखाती है हमें, हर पल को जीना फिर से, नई तरीके से।


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The Intricacies of Human Desire: A Deep Dive into the Psychology of Dreams, Ambition, Efforts, and Madness--- Dream series++++



In the intricate web of human cognition, the interplay between dreams, ambition, efforts, and madness unravels a profound narrative of our psychological landscape. Let us embark on a master class of understanding, delving into the depths of scientific inquiry and psychological exploration.

Dreams, the ethereal manifestations of our subconscious, serve as windows into the inner workings of our minds. Rooted in the realm of REM sleep, dreams offer insights into unresolved conflicts, desires, and aspirations. According to Freudian theory, dreams are the "royal road to the unconscious," providing a gateway to explore repressed emotions and unconscious desires. As we unravel the symbolism and latent content of our dreams, we gain a deeper understanding of our innermost desires and fears, guiding us on our journey of self-discovery.

Ambition, the driving force behind human endeavor, emerges from the intricate interplay of cognitive processes and motivational systems. Rooted in the dopaminergic pathways of the brain, ambition fuels our pursuit of goals and aspirations, driving us to strive for excellence and achievement. According to self-determination theory, intrinsic motivation, fueled by a sense of autonomy, competence, and relatedness, plays a crucial role in sustaining long-term ambition and goal pursuit. As we harness the power of intrinsic motivation, we cultivate a sense of purpose and fulfillment, propelling us towards our aspirations with unwavering determination.

Efforts, the cornerstone of achievement, encompass the cognitive, emotional, and behavioral processes involved in goal pursuit. Rooted in the prefrontal cortex and executive functioning, efforts involve planning, decision-making, and self-regulation, essential for overcoming obstacles and achieving success. According to the goal-setting theory, setting specific, challenging goals, coupled with feedback and commitment, enhances motivation and performance, maximizing the efficacy of our efforts. As we cultivate resilience and perseverance, we navigate the complexities of our journey with grace and fortitude, overcoming setbacks and forging ahead towards our dreams.

Madness, the enigmatic force that defies rationality and convention, holds within it the seeds of creativity and innovation. Rooted in the dopaminergic pathways of the brain and associated with divergent thinking and cognitive flexibility, madness fuels our capacity for originality and unconventional thinking. According to the psychodynamic perspective, madness represents the tension between the conscious and unconscious mind, giving rise to symbolic expression and creative insight. As we embrace the chaos and ambiguity of madness, we tap into the wellsprings of creativity within us, birthing novel ideas and breakthrough innovations that shape the course of human history.

In the grand tapestry of human desire, the intricate interplay of dreams, ambition, efforts, and madness paints a portrait of our collective humanity. As we navigate the labyrinth of our minds, let us embrace the complexities of our desires and aspirations, harnessing the power of psychology and science to illuminate the path towards self-discovery and fulfillment.

@15 Title: The Intricacies of Human Desire: A Psychological Exploration into Dreams, Ambition, Efforts, and Madness

In the labyrinthine landscape of the human psyche, the interplay of dreams, ambition, efforts, and madness unfolds as a masterclass in the complexities of human desire. Delving into the depths of psychology and science, we unravel the intricate tapestry that shapes our aspirations and drives us towards self-actualization.

Dreams, those ethereal whispers of the unconscious mind, serve as windows into our deepest desires and fears. Rooted in the realms of Freudian psychoanalysis, dreams are seen as manifestations of repressed thoughts and emotions, offering insights into our subconscious motivations. Through the lens of Jungian psychology, dreams are symbols of the collective unconscious, tapping into universal archetypes that transcend cultural boundaries.

Ambition, the driving force behind our dreams, is intricately linked to the concept of motivation in psychology. From Maslow's hierarchy of needs to self-determination theory, psychologists have long sought to understand the factors that propel individuals towards their goals. Ambition, fueled by intrinsic and extrinsic motivations, spurs us to strive for mastery, autonomy, and purpose in our lives.

Efforts, the tangible manifestations of ambition, are governed by principles of behavioral psychology and neuroplasticity. Through the process of operant conditioning, we learn to associate effort with reward, shaping our behavior through reinforcement and punishment. In the realm of neuroscience, efforts are reflected in the intricate wiring of the brain, as neural pathways are strengthened or weakened through repeated actions and experiences.

Madness, that enigmatic force that drives us beyond the boundaries of rationality, finds its roots in the realms of abnormal psychology and psychopathology. From Freud's concept of the id to the diagnostic criteria of psychiatric disorders, madness challenges our understanding of the human mind and its capacity for deviation from the norm. Yet, madness also holds a mirror to society, reflecting the tensions between conformity and individuality, sanity and insanity.

In the science masterclass of dreams, neuroscientists delve into the mysteries of sleep and consciousness, exploring the brain's activity during REM (rapid eye movement) sleep and the role of neurotransmitters such as serotonin and dopamine. Through advanced imaging techniques like fMRI (functional magnetic resonance imaging) and EEG (electroencephalography), researchers uncover the neural correlates of dreaming and the intricate networks that underlie our cognitive processes.

As we navigate the complexities of human desire, let us embrace the wisdom of psychology and science, weaving together the threads of dreams, ambition, efforts, and madness into the rich tapestry of our lives. For it is in the synthesis of knowledge and experience that we unlock the true potential of our humanity and embark on a journey of self-discovery and transformation.

स्वयं की मूल्यांकन – आत्म-सम्मान की सच्चाई



तुम्हारा मूल्य दूसरों की स्वीकृति से नहीं जुड़ा,
तुम जो हो, वही सबसे बड़ा सत्य है, जो तुमने समझा।
यह जो ख़ुश करने की आदत है, यह सिर्फ एक तलाश है,
सच्चे आत्म-सम्मान की, जो भीतर से आनी चाहिए।

तुम जब दूसरों को खुश करते हो, तो क्या खुद को भूल जाते हो?
तुम्हारी असली कीमत तो तुम्हारे भीतर की आवाज़ में है।
कभी यह महसूस करो, तुम जो हो, वह खुद में पर्याप्त है,
तुम्हारी अस्तित्व की चमक किसी से कम नहीं है।

तुम्हारा मूल्य केवल इस बात से नहीं है कि तुम क्या करते हो,
बल्कि इस बात से है कि तुम कौन हो, क्या तुम खुद को जानते हो।
जो तुम कर रहे हो, वह दूसरों की नज़र से नहीं,
अपने दिल की सुनो, वही सबसे महत्वपूर्ण है।

तुम हो जैसे हो, वही पर्याप्त है,
तुम अपनी असली पहचान को न समझने से डरते नहीं हो।
तुम जो हो, वह पहले से ही मूल्यवान है,
तुम महत्वपूर्ण हो, यह समझने का समय है।

तो अब खुद को पहचानो, खुद से प्यार करो,
तुम्हारी आत्मा का प्रकाश कभी फीका न होने दो।
दूसरों की स्वीकृति से नहीं, अपनी आत्मा से जियो,
तुम पूरी तरह से सही हो, जैसे हो, वैसे रहो।


वास्तविक श्रेष्ठ पुरुष की पहचान

एक वास्तविक श्रेष्ठ पुरुष अपनी श्रेष्ठता से अनजान होता है। वह दूसरों से किसी प्रकार की मान्यता या स्वीकृति की अपेक्षा नहीं रखता। उसकी श्रेष्ठता केवल उसकी स्वभाविक स्थिति होती है। यह विचार ओशो द्वारा प्रस्तुत किया गया है, जो मनुष्य की आंतरिक शक्ति और ध्यान की अवस्था को स्पष्ट करता है। 

**ध्यान और जागरूकता का महत्व**  
ध्यान मनुष्य को अपनी आंतरिक स्थिति से जोड़ता है, जहाँ कोई बाहरी पहचान या मान्यता की आवश्यकता नहीं होती। जो व्यक्ति अपने भीतर जागरूक हो जाता है, वह किसी भी प्रकार की अपेक्षा से मुक्त हो जाता है। उसे न तो सम्मान चाहिए और न ही प्रशंसा। उसकी जीवन की दिशा भीतर से संचालित होती है, न कि बाहरी दुनिया के मापदंडों से। यह स्थिति उसे एक विशिष्ट प्रकार की शांति और सहजता प्रदान करती है।

**"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।  
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥"**  
(भगवद गीता 18.78)

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का उल्लेख है, जो ध्यान और कर्म के आदर्श प्रतिनिधि हैं। जहाँ ध्यान है, वहाँ विजय, समृद्धि और शांति स्वतः प्राप्त होती है। यह श्लोक हमें बताता है कि जब व्यक्ति अपने कर्तव्यों में ध्यानस्थ होता है और उसके कार्य केवल स्वभाविक प्रवाह में होते हैं, तब वह जीवन में वास्तविक विजय प्राप्त करता है। 

**मस्तिष्क की अशांति और ध्यान की शक्ति**  
आज के समय में तनाव और चिंताओं ने मनुष्य के मन को इतना जकड़ लिया है कि उसे अपने भीतर की शांति की अनुभूति नहीं होती। ओशो ने कहा है, "जीवन में कहीं कोई तनाव नहीं है, सिवाय मनुष्य के मन में।" यदि हम अपने मन को शांत करने में सफल होते हैं, तो जीवन अपने आप सहज और सरल हो जाता है। यह तनाव केवल मानसिक रचना है, और ध्यान के माध्यम से इसे समाप्त किया जा सकता है।  

**"समत्वं योग उच्यते"**  
(भगवद गीता 2.48)  
यह श्लोक हमें सिखाता है कि समानता की भावना ही योग है। जब हम जीवन के हर पहलू को समान दृष्टिकोण से देखते हैं, तो हम सच्चे योगी बनते हैं। श्रेष्ठ व्यक्ति की यही पहचान होती है – वह सुख-दुःख, जय-पराजय में एक समान रहता है। 

**सहजता और आत्मस्वीकार**  
ओशो का यह विचार कि जीवन को सहजता और पूर्ण विश्रांति के साथ लेना चाहिए, हमें बताता है कि जीवन में संघर्ष केवल हमारे मन के भीतर होता है। जब हम अपनी आंतरिक स्थिति को पहचानते हैं और उस स्थिति में स्थिर हो जाते हैं, तो जीवन में कोई बाहरी तनाव या चिंता नहीं रह जाती। यह स्थिति हमें पूर्ण आत्मस्वीकार और शांति की ओर ले जाती है।

अंततः, वास्तविक श्रेष्ठ पुरुष वही है जो अपने भीतर पूर्णतः जागरूक है और बाहरी दुनिया की अपेक्षाओं से मुक्त है। ध्यान और आत्मनिरीक्षण के माध्यम से हम इस स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं और जीवन को संपूर्ण सहजता के साथ जी सकते हैं।  

**"योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय।  
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥"**  
(भगवद गीता 2.48)

यह श्लोक हमें सिखाता है कि कर्म करते समय ध्यानस्थ रहना और परिणाम की अपेक्षा से मुक्त होना ही सच्ची श्रेष्ठता है।

Unraveling the Complex Situation of Human Desire: Exploring the Interplay of Dreams, Ambition, Efforts, and Madness - Dream series -++++



In the intricate tapestry of human existence, the threads of dreams, ambition, efforts, and madness are intricately woven, creating a rich and complex narrative of the human experience. Each thread represents a facet of our psyche, guiding us through the labyrinth of our desires and aspirations.

Dreams, like whispers from the soul, beckon us towards the realms of possibility and imagination. They ignite the spark of ambition within us, urging us to reach for the stars and manifest our deepest desires into reality. Dreams are the fuel that drives us forward, propelling us through the ups and downs of life with unwavering determination and purpose.

However, ambition alone is not enough to fulfill our dreams. It is the relentless efforts and perseverance that we invest in our pursuits that ultimately determine our success. Like a sculptor shaping marble into a masterpiece, we mold our destinies through the sweat of our brow and the strength of our will.

Yet, amidst the pursuit of our dreams, there often lies the shadow of madness. It is the madness that drives us to push the boundaries of convention, to challenge the status quo, and to dare to be different. While madness may carry negative connotations, it is also the driving force behind innovation, creativity, and groundbreaking discoveries. It is the madness that fuels our passion and ignites the fire within us to pursue our dreams with reckless abandon.

In the canvas of life, creativity serves as the brush with which we paint our aspirations and desires. It is the expression of our innermost thoughts and emotions, transcending the boundaries of language and culture. Creativity allows us to explore the depths of our imagination and bring forth ideas that have the power to change the world.

In the realm of human desire, there exists a delicate balance between passion and restraint, between ambition and contentment. It is through understanding this balance that we can navigate the complexities of our desires and aspirations with grace and wisdom.

As we embark on the journey of self-discovery, let us embrace the beauty of our dreams, the power of our ambition, the resilience of our efforts, and the enchantment of our madness. For it is in the pursuit of these elements that we uncover the true essence of our humanity and the boundless potential that lies within each and every one of us.

दयालुता और सीमाएं" – शक्ति और संतुलन



दयालु होना एक ताकत है, यह तुम्हारी पहचान है,
लेकिन जब खुद को खोकर जीते हो, तो यह बोझ बन जाती है।
कभी समझो, सच्ची दया का मतलब है,
दूसरों को सशक्त करना, खुद को न खोना है।

बहुत अच्छा बनना नहीं, बल्कि समझदारी से जीना है,
सीमाएं तय करना, यह आत्म-सम्मान है।
तुम दूसरों का ख्याल रख सकते हो, बिना खुद को खोए,
अपनी ऊर्जा की रक्षा कर सकते हो, और प्यार भी दे सकते हो।

कभी यह महसूस करो कि तुम्हारी भी कोई जरूरतें हैं,
तुम भी इंसान हो, तुम्हारी खुशियाँ भी मायने रखती हैं।
दयालुता और सीमाओं के बीच का संतुलन,
यह जीवन का सच्चा रास्ता है, जो दिल से निकलता है।

तुम दूसरों से प्यार कर सकते हो, बिना खुद को कम किए,
अपनी प्राथमिकताओं को समझकर, सच्ची शांति पा सकते हो।
यह संतुलन ही तुम्हारी ताकत बनेगा,
तुम्हारी सच्ची दया और प्यार को पूरी तरह से जीने देगा।

आओ, यह समझो, खुद को भी उतना ही प्यार करो,
जितना तुम दूसरों से करते हो।
दयालुता शक्ति है, पर खुद की सीमाएं जानो,
तभी तुम अपने अस्तित्व को पूरी तरह से पहचान पाओ।


वास्तविकता से परे सकारात्मक सोच: ओशो के दृष्टिकोण से

 
  
आमतौर पर हम जीवन में सकारात्मक सोच को एक आदर्श मानते हैं। हर कोई यह सिखाने का प्रयास करता है कि हमें नकारात्मकता से दूर रहकर सकारात्मकता अपनानी चाहिए। परंतु, ओशो के विचार इस परंपरागत दृष्टिकोण से भिन्न हैं। ओशो का मानना है कि सकारात्मक और नकारात्मक सोच दोनों ही जीवन के गहरे अनुभवों को सीमित कर देते हैं। उनका कहना है कि जब तक हम सोच में फंसे रहेंगे, हम जीवन की वास्तविकता से दूर रहेंगे।  

ओशो कहते हैं:  
*"मैं सकारात्मक सोच के बिल्कुल खिलाफ हूं।"*  
उनका तात्पर्य यह है कि सकारात्मकता भी एक प्रकार की मानसिक जकड़न है, जो हमें वास्तविकता से परे ले जाती है। उनके अनुसार, यदि हम किसी भी प्रकार की सोच या पक्षपात से मुक्त होकर सिर्फ 'साक्षीभाव' में रहें, तो हम उस अस्तित्व का अनुभव कर सकते हैं, जो सकारात्मक और नकारात्मक दोनों से परे है।  

**साक्षीभाव का महत्व**  
साक्षीभाव का अर्थ है 'निर्निमेष चेतना' – जिसमें हम बिना किसी निर्णय, सोच या अपेक्षा के सिर्फ उस क्षण का अनुभव करते हैं। ओशो इस स्थिति को 'अस्तित्व' से जोड़ते हैं। उनके अनुसार, सच्चा आनंद, शांति, और जीवन की गहराई तभी अनुभव हो सकती है, जब हम न सकारात्मकता का पक्ष लें और न नकारात्मकता का। यह विचार वैदिक और योगिक दर्शन से भी मेल खाता है।  
  
**संस्कृत श्लोक:**  
*"योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।  
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥"*  
(भगवद गीता 2.48)  
  
अर्थ: योगस्थ होकर कर्म करो, हे धनंजय! आसक्ति को त्यागकर, सफलता और असफलता में समान रहकर। समत्व का भाव ही योग कहलाता है।  

यह श्लोक हमें ओशो के विचारों की पुष्टि करता है कि हमें किसी भी प्रकार की सोच या परिणाम से बंधे बिना सिर्फ वर्तमान क्षण में जीना चाहिए।  

**सकारात्मक सोच की सीमाएँ**  
सकारात्मक सोच हमें अस्थायी सुख की ओर खींच सकती है, लेकिन यह हमारे जीवन के गहरे सवालों के उत्तर नहीं दे सकती। ओशो के अनुसार, सकारात्मकता एक छलावा है, क्योंकि यह हमें 'नकारात्मकता' से बचने का भ्रम देता है, परंतु दोनों ही द्वैत के हिस्से हैं। सच्ची मुक्ति इन दोनों से परे अस्तित्व में स्थित है।  

**अस्तित्व की ओर अग्रसर**  
जब हम किसी सोच या निर्णय से परे होते हैं, तब ही हम वास्तव में 'अस्तित्व' का अनुभव कर सकते हैं। ओशो हमें इसी अवस्था की ओर ले जाते हैं – जहाँ जीवन न तो सकारात्मक होता है, न नकारात्मक, बल्कि केवल होता है।  

इस प्रकार, ओशो का संदेश है कि न सोच से जियो, न सकारात्मकता या नकारात्मकता में उलझो – बस अस्तित्व को अनुभव करो। यही जीवन की सच्ची सुंदरता है।  

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यह लेख ओशो की अद्वितीय दृष्टिकोण पर प्रकाश डालता है और भगवद गीता के श्लोक के साथ उसे जोड़ता है।

सोच को नया रूप दो" – आत्म-सम्मान की ओर कदम



"ना" कहना बुरा नहीं, यह तो ईमानदारी है,
जो तुम चाहते हो, वही कहना सच्चाई है।
तुम्हारी सीमाएं तुम्हारी स्वाभाविकता हैं,
यह कोई अपराध नहीं, यह तुम्हारा हक है।

मतभेद जताना कोई अपमान नहीं,
यह तो तुम्हारे असली रूप को दिखाना है।
दूसरों से अलग राय रखना,
यह तुम्हारी सच्चाई है, इसे न दबाना।

अपनी जरूरतों को पहले रखना कोई स्वार्थ नहीं,
यह खुद से प्यार करने का तरीका है, यह जीवन की सच्चाई है।
कभी अपनी ऊर्जा को बचाना जरूरी होता है,
यह किसी को न दुखाना, बल्कि खुद को सशक्त बनाना होता है।

तुम्हारे "ना" में भी सम्मान है,
तुम्हारे "नहीं" में भी प्यार है।
सीमाएं तुम्हारे अस्तित्व की रक्षा करती हैं,
तुम्हारी खुशी, तुम्हारी शांति को सजग रखती हैं।

जो खुद से प्यार करते हैं, वही दूसरों से सच्चा प्यार कर पाते हैं,
जब तुम खुद को समझोगे, तब ही सच्चे रिश्ते बना पाओगे।
अपने ऊर्जा की रक्षा करना कोई बुरी बात नहीं,
यह तो तुम्हें स्वस्थ और खुशहाल बनाने की शुरुआत है।

अब समय है खुद को अपनाने का,
सोच को नया रूप देने का।
"ना" कहने में भी सौम्यता है,
और खुद से प्यार करने में कोई भी कमी नहीं है।

सीमाएं – खुद को पहचानने का पहला कदम

"

खुद को खोकर जीने का रास्ता थकाने वाला है,
पर अब समय है खुद को फिर से पाना।
हर बार दूसरों के लिए अपना दिल खोल देना,
क्या कभी सोचा, खुद को भी कुछ देना?

सीमाएं क्या होती हैं, कभी समझा है तुमने?
ये कोई दीवार नहीं, बल्कि एक सुरक्षा है अपनी।
"ना" कहने का हक तुम्हारे पास है,
बिना किसी अपराधबोध के, बिना डर के।

कभी यह महसूस करो कि तुम्हारी जरूरतें भी हैं,
दूसरों की इच्छाओं के बीच अपनी पहचान खोना जरूरी नहीं।
तुम्हारी खुशियाँ, तुम्हारा समय, तुम्हारा मन,
यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना दूसरों का कल्याण।

सीमाएं किसी की नफरत नहीं, बल्कि आत्म-सम्मान हैं,
जो तुम्हारे अस्तित्व को संजीवनी देती हैं।
"मैं नहीं कर सकता" यह किसी को नाराज करना नहीं है,
यह खुद से प्यार करने का तरीका है, समझो इसे।

कभी यह भी जानो, यह ठीक है कि सभी तुमसे प्यार न करें,
हर व्यक्ति तुम्हारी परिभाषा नहीं बना सकता।
तुम्हारी कीमत दूसरों के विचारों से नहीं तय होती,
तुम्हारा अस्तित्व खुद में अनमोल है, यह समझो।

सीमाएं स्वार्थी नहीं होतीं, ये तो जीवन की नींव हैं,
जो तुम्हारी शांति, तुम्हारी पहचान को सुरक्षित रखती हैं।
जब तुम सीमाएं तय करते हो,
तब तुम अपने अस्तित्व को सही दिशा में मार्गदर्शित करते हो।

अब समय है खुद से प्यार करने का,
सीमाओं को समझने और उन्हें अपनाने का।
"ना" कहो, बिन घबराए,
और खुद के लिए जीने का हक पाए।


राजनेता और धर्मगुरु: साजिश का अंतहीन चक्र


आज के समाज में, जहाँ हर व्यक्ति अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है, वहीं एक गुप्त साजिश भी चल रही है। यह साजिश है राजनेताओं और धर्मगुरुओं के बीच की। ओशो ने इस साजिश को बड़े ही स्पष्ट शब्दों में उजागर किया है। उनका कहना है:

"ये राजनेता और ये धर्मगुरु लगातार साजिश में हैं, एक-दूसरे के साथ हाथ मिलाकर काम कर रहे हैं... राजनेता धर्मगुरु की रक्षा करता है, धर्मगुरु राजनेता को आशीर्वाद देता है – और जनता का शोषण होता है, उनका खून दोनों द्वारा चूसा जाता है।"

#### राजनेताओं और धर्मगुरुओं का गठजोड़
राजनेता और धर्मगुरु एक-दूसरे के पूरक हैं। राजनेता सत्ता में बने रहने के लिए धर्मगुरुओं का समर्थन प्राप्त करता है, जबकि धर्मगुरु अपने अनुयायियों पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए राजनेता की शक्ति का उपयोग करता है। यह गठजोड़ सदियों से चला आ रहा है और इसका मुख्य उद्देश्य जनता का शोषण करना है।

#### शोषण का तंत्र
इस साजिश का मुख्य तंत्र जनता का शोषण करना है। राजनेता सत्ता में बने रहने के लिए जनता को विभाजित करते हैं और धर्मगुरु धार्मिक भावनाओं का लाभ उठाकर अपनी शक्ति बढ़ाते हैं। दोनों ही जनता को अपने-अपने तरीकों से नियंत्रित करते हैं और उनके संसाधनों का दुरुपयोग करते हैं।

#### संस्कृत श्लोक द्वारा व्याख्या
महाभारत में कहा गया है:

"न तस्य वश्यं कर्तव्यं यो बलात्कृत्यं हिनस्ति यः।
तस्याहं न परित्यागं कर्तुमर्हामि सद्धतः॥"

अर्थात, जो व्यक्ति दूसरों का बलपूर्वक शोषण करता है, उसे कभी भी उचित नहीं माना जा सकता। ऐसे व्यक्ति का त्याग ही उचित है।

#### वर्तमान परिदृश्य
आज भी यह साजिश जारी है। राजनेता और धर्मगुरु दोनों ही अपने-अपने स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हुए हैं। वे जनता को भ्रमित कर अपने हित साधते हैं। जनता के अधिकारों का हनन करते हैं और उन्हें विकास से वंचित रखते हैं।

#### ओशो की दृष्टि
ओशो ने अपने विचारों के माध्यम से हमें इस साजिश को समझने और इससे मुक्त होने का मार्ग दिखाया है। उनका कहना है कि जब तक हम इस साजिश को समझेंगे नहीं, तब तक हम इससे मुक्त नहीं हो सकते। हमें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना होगा और इन साजिशकर्ताओं के चंगुल से बाहर निकलना होगा।

### निष्कर्ष
राजनेताओं और धर्मगुरुओं की इस साजिश का अंत तभी होगा जब जनता जागरूक होगी और अपने अधिकारों के प्रति सजग होगी। हमें अपने समाज को इस शोषण से मुक्त करने के लिए संगठित होकर कार्य करना होगा। केवल तभी हम एक सच्चे और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना कर सकेंगे।

"सत्य की राह पर चलना कठिन है,
पर यही है जीवन का सच्चा अर्थ।"

#### जागरूक बनें, साजिश को समझें और सत्य की राह पर चलें।

बहुत अच्छा बनना" – आत्म-उपेक्षा का बोझ



इतना अच्छा बनना क्या कभी समझाया है,
कभी खुद से सवाल किया है, जो जीते हो?
कभी सोचा है, हर बार खुद को खोकर,
तुम्हारी आत्मा कहां जाती है, क्या वह भी रोती है?

दूसरों को खुश करने की यह आदत,
क्या तुम जानते हो, इसे चुकाना क्या होता है?
दिन-रात देते रहते हो, बिना कुछ लिए,
पर क्या कभी खुद के लिए कुछ किया है, बिना कुछ देखे?

तुम्हारी मुस्कान अब बोझ बन जाती है,
तुम्हारी उदासी को कोई नहीं समझ पाता है।
दूसरों के सुख में खुद को छुपा लेते हो,
पर अपने आंसुओं को छिपाते हो, यह क्या होता है?

"बहुत अच्छा बनना" तुम्हें थका देता है,
दूसरों के लिए अपने ही सपनों को तोड़ देता है।
तुम बिखरते जाते हो, फिर भी चुप रहते हो,
क्योंकि तुम डरते हो, खुद से माफी मांगते हो।

पर यही दया नहीं, यह आत्म-उपेक्षा है,
जो तुम्हारे भीतर के सूरज को बुझा देती है।
जब तुम खुद को भूल जाते हो, रिश्ते खो जाते हैं,
क्योंकि खुद से प्यार किए बिना, क्या किसी को प्यार दे सकते हैं?

आत्म-सम्मान टूटता है, आत्मा चुप होती है,
तुम्हारी उपेक्षा ही तो तुम्हारी हार होती है।
नफ़रत नहीं, यह तो खुद से अनदेखी है,
जो तुम्हें अंत में टूटने पर मजबूर करती है।

अब समय है खुद को ढूंढने का,
अपने भीतर की शक्ति को समझने का।
"बहुत अच्छा बनना" छोड़ो, खुद को गले लगाओ,
अपनी जरूरतों को पहचानो और उन्हें पूरा करने का हौसला बढ़ाओ।

क्योंकि सच्ची दया तब है,
जब तुम खुद से प्यार करते हो।
तुम्हारा अस्तित्व भी मायने रखता है,
और खुद को समझने का वक्त आ गया है।


बहुत अच्छा बनना" – डर की परतें

"

कभी सोचा है क्यों हर बार माफी मांगते हो,
जब तुम्हारा कोई दोष नहीं, फिर भी झुकते हो?
क्यों हर बार सबकी खुशी में खो जाते हो,
अपनी चाहतों को अनदेखा कर देते हो?

यह जो "बहुत अच्छा बनना" है,
क्या यह सच में दया है, या डर का खेल है?
हर बार "सॉरी" कहते हुए, तुम छिपाते हो,
अपने दिल की आवाज़ को दबाते हो।

दूसरों की खुशी को अपना कर्तव्य मानते हो,
लेकिन अपनी खुशियों को किनारे लगा देते हो।
हर पल सोचते हो, "क्या वे खुश हैं?"
पर कभी नहीं पूछते, "क्या मैं खुश हूँ?"

तुम जानते हो, सच बोलने से टकराव होगा,
पर क्या कभी सोचा, सच को दबाने से खुद से टकराव होगा?
यह डर है जो तुम्हें चुप कराता है,
यह डर है जो तुम्हें अपनी पहचान छुपाने पर मजबूर करता है।

"ना" कहने से डरते हो, "हां" में फंस जाते हो,
पर क्या यह सच्ची दया है, या केवल डर का पालन करते हो?
तुम खुद को खोकर दूसरों को समझते हो,
लेकिन क्या कभी खुद से पूछा, "मैं कौन हूँ?"

यह जो "बहुत अच्छा बनना" है,
यह डर की एक परत है, जो तुम्हारे भीतर समाई है।
यह डर नहीं, आत्म-समर्पण है जो चाहिए,
अपने अधिकारों को जानो, और अपने सत्य को जीने का हौसला बढ़ाओ।

अब समय है खुद से सच्चा होने का,
अपने भीतर की आवाज़ को सुनने का।
"बहुत अच्छा बनना" छोड़, खुद को पहचानो,
और अपने सत्य से दुनिया को रौशन करो।


दूसरे के दुख से अपने जीवन का विनाश


दूसरों के दुख में डूब जाना,
मानो अपनी नाव को खुद ही जलाना।
उनकी तकलीफें तुम्हें खींच ले जाएंगी,
जहाँ तुम्हारा अस्तित्व ही खो जाएगा।

भावनाओं का यह खेल बड़ा अजीब,
दुख संक्रामक है, जैसे कोई रोग करीब।
तुम समझते हो कि तुम मदद कर रहे हो,
पर धीरे-धीरे, खुद को ही खत्म कर रहे हो।

डूबते इंसान को सहारा देना,
सच में सुंदर और नेक लगता है।
पर जब वह तुम्हें पकड़कर खींचे,
तुम्हारी सांसों को चुरा लेता है।

दया का यह भ्रम बड़ा गहरा,
जहाँ तुम अपना जीवन खो देते हो ठहरा।
दूसरे की पीड़ा को बांटना अच्छा है,
पर खुद को जलाकर कोई दीपक नहीं बचा है।

संतुलन बनाना जरूरी है,
अपनी आत्मा को बचाना जरूरी है।
दूसरों की मदद करो, पर अपनी सीमा जानो,
वरना उनकी निराशा में तुम खुद को हार मानो।

याद रखो, दुख का समुद्र विशाल है,
हर कोई उसे पार नहीं कर सकता।
अपना जीवन कीमती है, इसे व्यर्थ मत करो,
दूसरों की पीड़ा में खुद को मत खोओ।

दूसरों के दुख में डूबकर,
अपना जीवन बर्बाद मत करो।
सहानुभूति और विवेक का संतुलन रखो,
दूसरों की मदद करो, पर खुद को बचाए रखो।