यादों का धुंधलापन




यादें कभी गुमसुम, कभी शोर करती हैं,
जैसे बिछड़ता हुआ रेत, हाथों से फिसलती हैं।
कभी वो पलकों पर ठहरती,
कभी अनजानी राहों में खो जाती हैं।

कौन था, कब मिला, ये बातें धुंधली सी हैं,
जैसे बारिश के बाद मिटती सड़कें सी हैं।
चेहरे, जो कभी दिल के करीब थे,
अब वो धुंधले, जैसे अधूरी तस्वीरें हैं।

दर्पण में देखता हूं, पर खुद को भूल जाता हूं,
वक़्त की परछाइयों में कहीं खो जाता हूं।
क्या थी वो बातें, क्या थे वो लोग,
सब कुछ जैसे एक धुंधलके में ढल जाता हूं।

पर कुछ यादें, फिर भी दिल के कोने में रहती हैं,
कभी किसी ख़ुशबू में, कभी किसी धुन में बहती हैं।
शायद, भूलना भी एक कला है वक़्त की,
जो सिखाती है हमें, हर पल को जीना फिर से, नई तरीके से।


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