मैं उन गलियों से आया हूँ जहाँ सपने चिल्लाते हैं,
पर बेजान कमरों में, ख़ामोशी ज़्यादा सुनी जाती है।
जहाँ दरवाज़े धड़ाम से बंद होते थे बिना वजह,
और किसी की आँखों में भरोसा मिलना एक मुसाफ़िरी जैसी बात थी।
मैंने न कभी चाँद माँगा, न ताजमहल का हक़,
मैंने तो एक दर, एक घर, एक दिल की माँग रख।
जहाँ कोई जाए नहीं, रूठे नहीं, छोड़कर मुड़ न देखे,
जहाँ मेरा नाम सुनकर कोई बस इतना कहे— “तू है, तो सब ठीक है।”
मैंने झगड़ों के बीच रोटी खाई, आँसुओं से भूख बुझाई,
मैंने हँसना सीखा मज़बूरी में, डर को चादर बन ओढ़ाई।
किसी ने पूछा नहीं कभी, "तेरी चाहतें क्या हैं?"
मेरी चाहत? बस ये कि एक दिन लौटते वक़्त कोई कहे— “जल्दी आना।”
मैं बड़े सपने नहीं देखता, न ऊँचे आसमान माँगता हूँ,
मैं तो बस एक कोना माँगता हूँ, जहाँ खुद को मैं आकर बाँधता हूँ।
जहाँ रातें चीख़ों में न बीतें, सुकून की कोई सरगम हो,
जहाँ दिल डरे नहीं प्यार से, उस प्यार में कोई करम हो।
मैंने देखा है बाप का जाना बिना बताये,
माँ का टूटना, खुद को देवताओं में छुपाये।
मैंने जाना है छोड़ दिया जाना क्या होता है,
इसलिए मैं आज भी रिश्तों को सीने में टांका करता हूँ—
कच्चे धागों से, पर उम्मीद के सुई में।
कहते हैं, "क्यूँ नहीं सपने बुनता, दुनिया जीतने वाले?”
मैं कैसे समझाऊँ—
मैं पहाड़ नहीं, मैं बस दीवार चाहता हूँ गिरने को...
मैं ताज नहीं, मैं बस छत चाहता हूँ सिर रखने को।
मैं उस वक्त से गुज़रा हूँ जहाँ त्यौहारों में भी खामोशी बजती थी,
जहाँ राखी की थाली में राख बची थी, राखी नहीं थी।
जहाँ स्कूल की भीड़ में मैं हर रोल नंबर से डरता था,
कहीं किसी ने पुकार लिया तो टूटे नाम की गूंज में मरता था।
इसलिए मैं आज भी घर को सपने नहीं, हकीकत बनाना चाहता हूँ,
इमारत नहीं, इमामत चाहता हूँ— यादों को फिर से चैन दिलाने की,
दरवाज़ों को शिकवे से बचाने की, दीवारों को रोने से छुड़ाने की।
मैं दुनिया नहीं जीतना चाहता,
बस इतना चाहता हूँ —
किसी दिन किसी की साँस में मैं भरोसा बन कर टिक जाऊँ,
किसी की आँखों में अपनी थकान छिपा के सो जाऊँ।
क्योंकि टूटे घरों में पले लोग बादशाह नहीं बनना चाहते,
वो तो बस इतने से ख्वाब देखते हैं —
कि कोई हो... जो सुबह पूछे, “नींद आई?”
और रात में कहे, “चल सो जा, मैं हूँ यहीं।”
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