दिल्ली की धूप में

पहाड़ों के बीच, उसके घर से दूर,
एक युवक निकला, सपनों की धुंधली छाँव में।
सड़कों की गहराई में, उसने खोजा नया सफर,
अपनी मंजिल की ओर, चलते हुए निकला परवरिश की परिवार से बाहर।

शहरों की भीड़ में, वह खोजा अपना रास्ता,
अपने सपनों की पूर्ति के लिए, किया उसने महनत बेहद तेज।
जीवन की रोशनी में, उसने खोजा अपना आत्मा,
वहां ले वहां, बस खोजते रहे, अपने सपनों की दुनिया नयी।

दिल्ली की धूप में, उसने भीगे अपने सपने,
नये रंग, नयी धधकन, बसे थे हर जगह।
सिखा वहने, जीने का सही अंदाज़,
अपने क़दमों में, लिया उसने हर रास्ते का साथ।

उसकी कविता, उसकी कहानी,
प्यार से रची, नए सपनों की कहानी।
जो शुरुआत थी पहाड़ों की उस धूप में,
आज वह है दिल्ली की धूप में, खिलते हुए खुद के सपनों के संग।

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