यह कविता रूमी की पंक्तियों से प्रेरित है –
"It's your road, and yours alone. Others may walk it with you, but no one can walk it for you."
मेरी राह
चल पड़ा हूँ मैं, एक अनजानी राह पर,
ना नक्शा पास है, ना कोई सहारा।
कभी धूप सी जलती ज़मीन है नीचे,
कभी बादल छू लें मेरी पलकों का किनारा।
कई चेहरे मिले हैं इस सफ़र में,
कुछ मुस्कराए, कुछ चुप रहे।
कुछ ने हाथ थामे कुछ दूर तक,
पर फिर सब अपनी मंज़िलों को चले।
यह रास्ता मेरा है, सिर्फ़ मेरा,
ना कोई और इसे मेरे लिए चल सकता।
हाथ थामकर चल सकते हैं लोग,
पर मेरी पीड़ा, कोई नहीं समझ सकता।
हर मोड़ पर खड़े हैं सवाल कई,
कभी आत्मा पुकारे, कभी मन भटकाए।
कभी लगता हूँ ठहरा हुआ पानी,
कभी जैसे कोई नदी हूँ जो बहती जाए।
कभी डर से काँपते हैं पाँव मेरे,
कभी हौंसले की आग में जलते हैं।
कभी खुद से मिलकर रोता हूँ मैं,
कभी खुद को ही सीने से लगाते हूँ।
मैंने देखा है उन आँखों को,
जो मुझे गिरता देख मुस्कराईं।
और कुछ आँखें थीं जो चुपचाप,
मेरी थकान में भी दुआ बन आईं।
पर अंततः…
जो ज़ख्म हैं, उन्हें मैं ही धोता हूँ,
जो सीख है, वो मेरी ही होती है।
जो हार है, मेरी होती है,
और जो जीत है, वो भी मैं ही रोता हूँ।
मैंने समझा है…
कि जीवन एक यात्रा है भीतर की,
बाहर की दुनिया बस एक दृश्य है।
जहाँ हर कोई साथी हो सकता है,
पर मेरी आत्मा की पुकार, मेरी ही सृष्टि है।
मेरी राह में पत्थर भी हैं, फूल भी,
और मैं चल रहा हूँ, थक कर, संभल कर।
कभी रुक कर साँस लेता हूँ मैं,
कभी अश्रु में भी शांति खोजता हूँ मैं।
मैंने सीखा है —
सत्य की राह पर कोई और नहीं चलेगा,
यह तपस्या मेरी है, मेरी ही होगी।
और जब अंत में मिलूँगा मैं खुद से,
तब समझूँगा क्यों ये राह इतनी अकेली थी।
फिर भी…
मैं नहीं चाहूँगा कि कोई और चले मेरी राह,
क्योंकि इस राह ने ही मुझे मुझसे मिलाया है।
और यही मेरी सबसे सुंदर उपलब्धि है —
कि मैं अब जानता हूँ… "मैं कौन हूँ…"