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मैं उतरा भीतर, बहुत भीतर,
जहाँ न विचार थे, न शब्द,
न ध्वनि, न स्पर्श,
सिर्फ़ मैं था...
या शायद वो भी नहीं।
बाहरी दुनिया —
जिसे कभी मैं सबकुछ मानता था,
धीरे-धीरे धुंधली पड़ने लगी,
और फिर एक दिन...
वो अस्तित्वहीन हो गई।
पर फिर —
वही दुनिया,
एक लहर बनकर लौट आई,
कभी हँसी में, कभी आँसू में,
कभी धूप के स्पर्श में,
कभी किसी अजनबी की आँखों में।
मैंने जाना —
अद्वैत का मतलब
केवल "एक" होना नहीं,
बल्कि हर रूप में "मैं" होना है।
मैं एक नहीं हूँ,
मैं बहु-आयामी हूँ,
मैं तुम हूँ, वो हूँ, सब हूँ...
और अंत में — कुछ भी नहीं हूँ।
और जब सब कुछ छूटता है,
शब्द, अनुभव, सत्य और भ्रम,
तब बचता है —
सिर्फ़ एक श्वेत प्रकाश...
निर्विकार, निष्पक्ष, निर्विचार।
मैं वही हूँ।
शायद तुम भी।
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