— "मैं" रूप में
वो मुस्कानें…
जो आई थीं उस जगह से
जहाँ न अहं था,
न तुलना,
न कोई टूटा हुआ सपना।
जहाँ दिल था —
निर्दोष, निस्वार्थ, और निर्मल।
जहाँ खुश होने के लिए
बस एक खिलौना,
या मिट्टी में खेलना ही काफी था।
मैं जानता हूँ —
अब भी मुस्कराता हूँ,
पर अब वो मुस्कान
सोच कर आती है,
समझदारी से गुजर कर,
दुनियादारी के चश्मे से छनकर।
पर तब…
तब मुस्कराता था
बस यूँ ही,
क्योंकि मन मुस्कराना जानता था।
वो मुस्कानें पवित्र थीं,
जैसे सुबह की पहली धूप,
जैसे माँ की गोद,
जैसे नींद में आई कोई परीकथा।
काश…
वो मुस्कानें बोतल में भरकर
कभी-कभी खोल पाता —
जब दुनिया ज़्यादा भारी लगती है।
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