अतिरेक का फूल


जीवन का अर्थ क्या, बस जीते जाना?
दो रोटियों में ही, दिन बिताना?
पर जीवन का अर्थ है, ओवरफ्लो होना,
अतिरेक की गंगा में, बहते रहना।

देखा है कभी, पौधे पर फूल खिला?
वह अतिरिक्त का जादू, जिसने सबको छला।
शाखाओं का विस्तार, जड़ों का गहराना,
जब सब पूर्ण हो, तब ही फूल मुस्काना।

मैं भी तो बस एक पौधा सा था,
जड़ों में पानी, शाखाओं में हवा था।
पर जब भीतर कुछ अतिरिक्त जगा,
तभी तो जीवन ने नया अर्थ कहा।

ताजमहल की मीनारें भी कहती यही,
सौंदर्य अतिरेक से ही उपजती सही।
काव्य, संगीत, साहित्य के हर शिखर,
अतिरेक की बूँदों से ही हो रहे निखर।

तो मैं जीना चाहता हूँ इस तरह,
अतिरेक से भर जाए, हर उमर।
जहां जीवन बने, एक बहता झरना,
फूल सा खिले, ओवरफ्लो का सपना।


No comments:

Post a Comment

Thanks

छाँव की तरह कोई था

कुछ लोग यूँ ही चले जाते हैं, जैसे धूप में कोई पेड़ कट जाए। मैं वहीं खड़ा रह जाता हूँ, जहाँ कभी उसकी छाँव थी। वो बोलता नहीं अब, पर उसकी चुप्प...