धार्मिक भाव (मैं के स्वरूप में)



मैंने उठाया था एक पत्थर,
खुदा की मूरत गढ़ने को।
मगर उस पत्थर में कंपन आया,
जब किसी ने सवाल उठा दिया।
क्या सच में मेरा ईश्वर पत्थर में बसता है?
या मेरे भीतर के डर ने उसे गढ़ा है?

मैंने किताबें थामी थीं,
धर्म के नियम पढ़ने को।
पर जब किसी ने कहा,
"ये पन्ने तुम्हारे ईश्वर तक नहीं जाते,"
तो मेरी आत्मा कांप उठी।
क्या सच में ये ग्रंथ मेरा आधार हैं?
या बस मेरे खाली मन के सहारे हैं?

मैंने झंडे फहराए थे,
धर्म के नाम पर।
पर जब कोई हवा उन झंडों को उड़ाने आई,
तो मेरी आस्था बिखरने लगी।
क्या ये झंडे मेरे विश्वास के प्रतीक थे?
या मेरे अहंकार की ढाल मात्र?

कोई आया और कहा,
"तेरे धार्मिक भाव झूठे हैं।"
मैंने उसकी आवाज दबाने की कोशिश की,
न्यायालय में फरियाद की।
पर मेरे भीतर से एक सवाल उठा,
क्या मेरा धर्म इतना कमजोर है?
कि किसी शब्द की चुभन से टूट जाए?

धर्म तो होना चाहिए
मजबूत इस्पात जैसा,
जिस पर वार हो, तो वह और चमके।
पर मैंने तो रेत पर महल बनाए थे,
पानी पर लकीरें खींची थीं।
कोई भी आया और उन्हें मिटा गया।
तो दोष किसका था?
उसका, जिसने मिटाया?
या मेरा, जिसने कमजोर नींव रखी?

मैंने खोजा भीतर,
एक ऐसा धर्म,
जो उधार न हो।
जो किसी ग्रंथ, पत्थर,
या झंडे का मोहताज न हो।
जो मेरा हो,
मेरा अपना अनुभव हो।

अब मैं अदालत नहीं जाता,
न किसी से लड़ाई करता।
मैं बस मुस्कुराता हूं,
जब कोई मेरे धर्म पर वार करता है।
क्योंकि मेरा धर्म मेरा सत्य है।
और सत्य को चोट नहीं लगती।
सत्य तो चमकता है,
हर सवाल, हर वार के बाद।

तो आओ, तुम भी सोचो,
क्या तुम्हारा धर्म सच में तुम्हारा है?
या बस उधार की दीवारों पर खड़ा एक महल है?
क्या तुम्हारा विश्वास इतना मजबूत है,
कि कोई भी आए, और उसे हिला न सके?
यदि नहीं, तो खोजो।
खोजो अपने भीतर।
क्योंकि धर्म का सत्य तो
बस तुम्हारी आत्मा में ही छुपा है।


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