जिसे समझा था हमने दानव,
वो था केवल एक छाया।
अहम ने गढ़ी थी तस्वीरें,
मन ने रची थी माया।
जो दिखता है बाहर भयावह,
वो भीतर का ही अंश है।
पर जानो अगर,
यही सत्य तुम्हारा बलवंश है।
जब देखो इसे मात्र प्रक्षेपण,
नहीं कोई सत्ता इसकी।
महत्त्व खो देता है तुरंत,
जब पहचान हो गहरी इसकी।
परछाई को जब समझ लिया,
नहीं कोई ठोस हकीकत।
तब तुम खुद को पाओ वापस,
मिट जाए मन की कुत्सित दहशत।
हर डर, हर द्वंद, हर भ्रम,
है मन का खेल पुराना।
जाग्रत होकर जब देखो इसे,
तब जीवन हो सुहाना।
ताकत है इसमें, स्वीकारने की,
कि जो देखा, वो सब मृगतृष्णा।
दानव नहीं, नायक हो तुम,
मनोमुक्ति की है ये प्रक्रिया।
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