मैं और मेरा वजूद



सोचो, अगर एक पल को मैं खुद से सुलह कर लूँ,
अपने शरीर से, अपने वजूद से,
न परफेक्शन की दौड़, न शर्म के परदे,
बस शुक्रिया अदा करूँ हर उस चीज़ का,
जो मेरा शरीर मेरे लिए करता है।

ये हाथ, जो सपने गढ़ते हैं,
ये पाँव, जो मंज़िलें ढूंढते हैं।
ये दिल, जो धड़कता है हर पल,
ये साँसें, जो जीवन का गीत सुनाती हैं।

कैसा लगेगा, अगर मैं मान लूँ,
कि मेरा शरीर मेरा साथी है,
दबाव नहीं, एक तोहफा है,
हर निशान, हर रेखा,
मेरी कहानी का हिस्सा है।

यहीं से शुरू होती है असली तब्दीली,
जब मैं अपनी खामियों को नहीं,
अपने अस्तित्व को देखती हूँ।
जब खुशी, शर्म से बड़ा हो जाए,
और आभार, हर दर्द को भुला दे।

मैं और मेरा शरीर,
एक पूरी दुनिया—
संपूर्ण, जैसा है वैसा।


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