अगर कुछ नहीं बदला, दो साल बाद मैं कहाँ हूँ?



अगर कुछ नहीं बदला, दो साल बाद मैं कहाँ हूँ?
क्या वही पुरानी राहें होंगी, या नया कोई जहाँ हूँ?

जो सपने देखे थे मैंने, क्या सब बिखर जाएंगे?
या उन सपनों की ख़ुशबू से, आँगन महक जाएंगे?

अगर ठहर गया मैं यहीं, तो क्या होगा मेरा हाल?
क्या मंज़िल पास आ पाएगी, या रह जाऊँगा बेहाल?

वक़्त की नदी बहती रही, मैं किनारे पे खड़ा रहा,
जो साहस जुटा ना पाया, वो नाव भँवर में पड़ा रहा।

क्या डर की आगोश में, जीवन यूँही निकल जाएगा?
या हिम्मत का दिया जलाकर, अंधेरा मैं मिटा पाऊँगा?

सोचो, अगर कदम नहीं बढ़े, तो क्या मैं वही पुराना हूँ?
या नए रास्तों की खोज में, कुछ नया बन जाना हूँ?

दो साल का ये सफर, प्रश्न बनके खड़ा रहा,
अगर कुछ नहीं बदला, तो क्या मैं वही बड़ा रहा?

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