मैंने जब चाहा मन को पढ़ना,
शब्दों के पीछे की गूंज को सुनना।
तो पाया कि स्पर्श से परे भी,
रिश्तों की एक अनकही धुन है बहना।
जिसे लोग प्रेम समझ बैठे,
वो क्षणिक आग का खेल था।
तन की लपटों में खो गए,
मन की रोशनी का मेल था।
मैंने जब आत्मा को टटोला,
तो पाया प्रेम था मौन वहाँ।
ना कोई देह, ना कोई वासना,
बस आत्मीयता का था घर वहाँ।
पर समाज का चेहरा देखूँ,
तो हर नज़र में भूख ही है।
भावनाओं को छोड़ सबको,
बस जिस्म की तलाश ही है।
मैं ढूंढता हूँ वो स्पर्श,
जो आत्मा को छू सके।
वो संवाद, जो मौन में भी,
मन के भीतर कुछ कह सके।
क्योंकि क्षणिक लपटों में रिश्ते जलते हैं,
पर आत्मा की लौ सदा जलती रहती है।
मैं देह से नहीं, मन से प्रेम करता हूँ,
जो सदा के लिए मेरे संग बहती है।
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