वासना और विरक्ति



मैंने चाहा तुझे, देह के हर कोने में,
तेरी साँसों की तपिश को महसूस करूँ,
तेरी उँगलियों की थरथराहट में,
अपना नाम पढ़ सकूँ।

रात की स्याही में लिपटे बदन,
चाँदनी भी शर्माए यहाँ,
तेरी धड़कनों का संगीत सुने,
मेरी बेचैन सी प्यास यहाँ।

पर क्या प्रेम बस इतना ही है?
क्या तृप्ति बस पल भर की है?
जब जिस्म सुकून पा लेता है,
तो रूह फिर तड़प क्यों उठती है?

मैंने तुझे बाहों में बाँधा,
पर मन अब भी अधूरा सा है।
तेरी त्वचा की गर्मी मिली,
पर आत्मा अब भी तनहा सा है।

वासना बहती नदी जैसी,
हर तट से टकराती है।
पर जिसे सागर चाहिए,
वो गहराई में उतर जाता है।


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