काव्य - जीवन चक्र


यहां से वहां जाना, वहां से यहां आना,  
फिर वहीं पहुंचना, जहां से शुरू किया था,  
यही जीवन चक्र है, सतत चलती माया,  
कालचक्र का खेल है, जिसमें बंधी है काया।

जन्म से जीवन का रथ, आगे बढ़ता चलता,  
जीवन के हर मोड़ पर, नव अनुभव का झरना बहता,  
सुख-दुख की परछाईं में, हर पल रंग बदलता,  
मृत्यु की चादर में, अंत में समा जाता।

**श्लोकः**

अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं धनसंपदः।  
सर्वमेव विनाशंति यथाऽभ्रमिव पाण्डवः॥

(भावार्थ: यौवन, रूप, जीवन, धन-संपत्ति सभी नश्वर हैं। यह सब ऐसे नष्ट हो जाते हैं जैसे बादल छट जाते हैं।)

जीवन की धारा में, निरंतर बहता है राग,  
हर सुबह नव उत्साह, हर शाम नया त्याग,  
यहां से वहां जाना, वहां से यहां आना,  
यही जीवन चक्र है, सतत चलती माया।

रिश्तों की डोर में बंधा, प्रेम का सागर गहरा,  
कभी हंसता, कभी रोता, कभी मूक बना रहता,  
जन्म का खेल है शुरू, मृत्यु के संग सिमटता,  
फिर नया जन्म लेकर, पुनः खेलना प्रारंभ करता।

**श्लोकः**

सर्वं दुःखं जीवितं, संसारं भयनाशनम्।  
धर्मेण साधु यज्यन्ते, मोक्षं प्राप्नुवन्ति धीराः॥

(भावार्थ: जीवन दुखमय है, संसार भय से भरा है। धर्म के आचरण से साधुजन यज्ञ करते हैं और धीर व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करते हैं।)

यही चक्र है अनवरत, समय की धुरी पर घूमता,  
जीवन की रीत है, सत्य और माया का मेल,  
यहां से वहां जाना, वहां से यहां आना,  
यही जीवन चक्र है, सतत चलती माया।

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