"कुछ न बदला, अब मैं कहाँ?"

यदि कुछ न बदला, दो साल बाद मैं कहाँ?
मिट्टी में बीजों सा, सूखा सा बियाबान।
सपने जो संजोए थे, सारे अधूरे रह जाएँ,
बिना बारिश के जैसे, बंजर हो जाएं।

आँखों में उम्मीदें हों, पर दिल में ठहराव,
जैसे थमा हुआ सागर, जिसमें न बहाव।
नया कुछ न करने से, न होगा कोई निर्माण,
जैसे बिना लहरों के, थमा हुआ एक जहान।

जो हिम्मत ना जुटा पाए, ख्वाबों को पाने का,
वो अपनी ही परछाई से, डर के रहेगा।
अगर कदम न बढ़ा पाए, अंधेरों से पार,
तो कैसे देखेगा, उगता हुआ सवेरा, ये संसार?

दो साल बीत जाएँगे, यूँ ही वक्त की चाल,
हाथों में कुछ ना होगा, खालीपन का हाल।
जो साहस न कर पाए, वो क्या पायेगा आन,
उसके जीवन में रहेगा, सन्नाटा और विरान।

इसलिए आज सोच ले, क्या है तेरा मकसद,
कदम बढ़ा, कोशिश कर, पाने का ये है अवसर।
नही तो दो साल बाद, फिर वही सवाल होगा,
"कुछ न बदला, अब मैं कहाँ?" यही मलाल होगा।

No comments:

Post a Comment

Thanks

छाँव की तरह कोई था

कुछ लोग यूँ ही चले जाते हैं, जैसे धूप में कोई पेड़ कट जाए। मैं वहीं खड़ा रह जाता हूँ, जहाँ कभी उसकी छाँव थी। वो बोलता नहीं अब, पर उसकी चुप्प...