मृगतृष्णा

मृगतृष्णा के इस वीराने में  
दिल का दरिया बहक रहा है,  
तृष्णा के इस नशे में खोकर  
हर इक सपना भटक रहा है।  

आस का दीप बुझने को है,  
साँस की डोरी उलझ रही है।  
तिनके-तिनके की उम्मीदें,  
अधूरी राहों में बिखर रही हैं।  

धोखे की गलियों में सन्नाटा,  
रिश्तों के सौदे हो रहे हैं।  
सच की बुनियादें हिलने लगीं,  
झूठ के महल सज रहे हैं।  

तमन्नाओं का कोई किनारा नहीं,  
दर्द की बारिश थमने को नहीं,  
हर इक मोड़ पर इंतजार है,  
पर मंजिल का निशां कहीं नहीं।

No comments:

Post a Comment

Thanks

छाँव की तरह कोई था

कुछ लोग यूँ ही चले जाते हैं, जैसे धूप में कोई पेड़ कट जाए। मैं वहीं खड़ा रह जाता हूँ, जहाँ कभी उसकी छाँव थी। वो बोलता नहीं अब, पर उसकी चुप्प...