मैंने जो बोया, वही काटा



मैंने दिया था जो उजाला, अंधेरों में जलकर,
उनके ख्वाबों को आकार दिया था मैं बनकर।
अपने हिस्से का अंधेरा ओढ़ लिया था चुपचाप,
कि उनके जीवन में हो सके नई सुबह का आलाप।

पर आज जब मेरी बारी आई,
मेरी राहों में उन्होंने ही दी परछाई।
सपनों को मेरे कह दिया उन्होंने "अपना स्वार्थ",
कैसी ये दुनिया, कहाँ गया वो स्नेह का अर्थ?

मैंने देखा था जिनमें अपने प्रतिबिंब की झलक,
आज वो आँखें मुझे पराएपन से देती हैं झलक।
जहाँ चाहिए था साथ, वहाँ मिला ठंडा सन्नाटा,
अपने ही दिये ने जला डाला मेरा सपना।

कहां है वो करुणा, वो प्रेम की वो बात,
जो करते थे जब मांगते थे मुझसे हाथ?
आज मेरे सपनों का होता है जब विस्तार,
वो बन जाते हैं मेरे सपनों के दुश्मन लाचार।

पर मैं चुप नहीं बैठूंगा, सपने हैं मेरा धर्म,
संघर्ष से हारना तो मेरे खून में नहीं कर्म।
उनकी बेवफाई मेरे इरादे नहीं तोड़ सकती,
मेरा सत्य, मेरी भक्ति, मुझे हर मोड़ दिखा सकती।

सिखाया है मुझे अब ये समय ने साफ़,
कि सत्य के राही का खुद पर हो विश्वास।
जो गिराएंगे, वो गिरेंगे अपने ही दंश से,
मैं उठूंगा अपने सत्य, और अपने अंश से।


No comments:

Post a Comment

Thanks

छाँव की तरह कोई था

कुछ लोग यूँ ही चले जाते हैं, जैसे धूप में कोई पेड़ कट जाए। मैं वहीं खड़ा रह जाता हूँ, जहाँ कभी उसकी छाँव थी। वो बोलता नहीं अब, पर उसकी चुप्प...