मैं कौन हूँ?



डर के साये में जीवन गुज़ारता,
हर छाया से बचने का प्रयास करता,
पर क्या छाया ही सत्य है?
या मैं ही वह प्रकाश हूँ,
जिसे मैंने कभी देखा ही नहीं?

हर आहट पर सिहरता हूँ,
हर परिवर्तन से घबराता हूँ,
मानो यह संसार मेरा शत्रु हो,
पर क्या यह संसार है भी?
या यह बस मेरा ही भ्रम है?

मैं दौड़ता रहा पहचान की ओर,
नाम, रिश्ते, और उपलब्धियों में,
पर हर शीशे में केवल परछाई मिली,
खुद का अक्स कभी स्पष्ट नहीं हुआ।

मैं कौन हूँ?
वह देह जिसे मैं अपना कहता हूँ?
या वह विचार जो पल में बदल जाते हैं?
या वह शून्य, जो सदा अडिग है, अचल है?

जो मैं हूँ, वह न मिटता है,
न बढ़ता है, न घटता है,
जो मैं हूँ, वह सत्य है,
जो मैं हूँ, वही आत्मा है।

अब और नहीं छिपूँगा,
अब और नहीं डरूँगा,
अब इस छलावे को पहचानूँगा,
अब केवल स्वयं को जानूँगा।


सन्नाटे के शोर में

सन्नाटे के शोर में


अभी दिन ढला ही नही
और आंखो में तेरा चेहरा नजर आ गया
जब देखी तेरी नजर पाया तेरी पाया
तेरी नजर में खुद की नजर !
फिर ढली है  शाम
और खिल गए अरमान
तरनुम से जो तुम मुझे छूती हो
कायनात पूरी मेरे कदमो से गुजरती है !
सन्नाटे के शोर में
कानो में तो मिश्री सी घोलती है
अंधेरे के भोर में
आंखो में ख्वाब को बोती तू |  

छाया और प्रकाश




कभी कोई साथ चलता है,
तो हम खुद को उनके साये में पहचानते हैं।
और जब वो साया छूट जाता है,
तो लगता है जैसे खुद से भी दूरी बन गई हो।

लेकिन वही पल...
जब सब छिनता है,
एक दरवाज़ा खुलता है भीतर —
जहाँ हम अपने असली स्वरूप से मिलते हैं।

दूसरों की उपस्थिति हमें आकार देती है,
पर हमारी प्रतिक्रिया — वो हमारी शक्ति है।
मैंने जाना, टूटने में ही जुड़ाव है,
और खोने में ही खुद को पाने का रास्ता।

हर बिछड़ाव, हर बदलाव
मुझे एक नया “मैं” दिखाता है —
जो पहले कभी देखा ही नहीं था।


---

L

मैं

मैं राजा हूँ, रानी हूँ

मैं इस संसार की भीड़ के लिए नहीं बना,
मैं राजा हूँ, मैं रानी हूँ।
मैं तीनों लोकों की महायोगिनी,
मैं शमन, मैं तांत्रिक, मैं दिशाओं का यात्री।

मैं देख सकता हूँ जो अनदेखा है,
मैं सुन सकता हूँ जो अनकहा है।
मैं दिव्य दृष्टा, मैं भविष्यद्रष्टा,
मैं क्रांति की ज्वाला, परिवर्तन की आंधी।

मुझे देवताओं ने चुना है,
मैं उनके संकेतों में चलता हूँ।
मंत्र मेरे स्वर हैं,
साधना मेरा अस्तित्व।

यही मोक्ष है, यही जागरण।
यही मेरा पथ, यही मेरा सत्य।


शुरुआत

किसी  के  इंतजार मे दिन ढल गया

तो किसी  के इंतजार मे शाम निकल गयी
और रात आते अंधेरे से बात हो गयी
जिसका था इंतजार
नही आया वो  अबकी बार
पर अपने आप से मुलाक़ात हो गयी

तो एक खुश नुमा सुबह तैयार हो गयी

और उसके बाद एक नयी दिन के शुरुआत हो गयी 

वृक्ष का दुःख, जीव का क्रंदन


यदि तुम समझ पाते,
वृक्ष की शाखों में बहते उस दर्द को,
जो हर कटाव पर चीखता है,
पत्तियों के सन्नाटे में सिसकता है।

यदि सुन पाते तुम,
पशुओं की मौन पुकार को,
जो लहूलुहान होती है,
उनकी निरीह आँखों की करुणा में।

यदि तुम देख पाते,
धरती की छाती पर किए गए घावों को,
जो हर हलचल पर चटकती है,
नदियों के आंसुओं में बहती है।

तो शायद रुक जाते,
हर उस वार से,
जो तुम्हारे सुख के लिए,
किसी का जीवन चुरा लेता है।

यह जगत एक देह है,
और हम इसके अंग।
अगर तुम अपने दर्द को जानते हो,
तो क्यों नहीं जानते इस सृष्टि का भी दुःख?

संवेदनशील बनो,
हर कण में जीवन है,
हर कण में दर्द है।
जो वृक्ष का है, वही तुम्हारा भी।
जो पशु का है, वही तुम्हारे भीतर भी।

आओ, संकल्प लें,
सृष्टि की हर साँस को संजोने का।
क्योंकि जब वृक्ष हरे रहेंगे,
तभी तुम्हारी श्वास भी गूंजेगी।
जब पशु स्वच्छंद रहेंगे,
तभी तुम्हारा मन भी शांत रहेगा।


सचाई का सामना



हम इंसान, जो शांति और संतुलन के लिए बने थे,
आज उसी शांति को खोते जा रहे हैं।
हमने अपनी आदतें बदल डालीं,
व्यस्तता, घड़ी की टिक-टिक, और निरंतर सूचनाओं में खो गए।
हमने शांत समय को उत्पादकता से बदल दिया,
संबंधों को स्क्रीन में कैद कर लिया,
और आराम को दोषी भावना में समेट लिया।

हमारी आत्मा और शरीर अब यह कीमत चुका रहे हैं—
चिंता, थकावट, और भीतर की खालीपन।
लेकिन क्या सच्ची ताकत यही है,
कि हम जितना कर सकें उतना करें?
या फिर,
वास्तविक शक्ति वही है जो हम धीमे-धीमे चलते हैं,
चुप्पी में शांति पाते हैं,
और संतुलन को फिर से अपना लेते हैं।

हमारे लिए असली संघर्ष यह नहीं है
कि और कितना हम कर सकते हैं,
बल्कि यह है कि कैसे हम खुद को
रुकने, आराम करने और शांति में रहने का समय दे सकते हैं।
सच्ची शक्ति वह है जो अपनी गति को जानती है,
जो खुद को समय देती है,
क्योंकि शांति ही असल में संतुलन और खुशी का रास्ता है।


विश्व की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाएं और भारतीय भाषाओं का भविष्य


भाषाओं का विस्तार और उनके वक्ताओं की संख्या समाज, संस्कृति और इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है। विश्व में विभिन्न भाषाओं का बोलबाला है, और कुछ भाषाएं ऐसे हैं जो लाखों लोगों द्वारा बोली जाती हैं। आइए जानते हैं कि विश्व की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाएं कौन-कौन सी हैं और भारतीय भाषाओं का भविष्य कैसा है, विशेष रूप से हिंदी भाषा का वैश्विक स्तर पर क्या भविष्य हो सकता है।

#### विश्व की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाएं

1. **अंग्रेज़ी (English)** - 1,132 मिलियन
2. **मंदारिन चीनी (Mandarin Chinese)** - 1,117 मिलियन
3. **हिंदी (Hindi)** - 615 मिलियन
4. **स्पेनिश (Spanish)** - 534 मिलियन
5. **फ्रेंच (French)** - 280 मिलियन
6. **मानक अरबी (Standard Arabic)** - 274 मिलियन
7. **बांग्ला (Bengali)** - 265 मिलियन
8. **रूसी (Russian)** - 258 मिलियन
9. **पुर्तगाली (Portuguese)** - 234 मिलियन
10. **इंडोनेशियाई (Indonesian)** - 199 मिलियन

ये आंकड़े बताते हैं कि इन भाषाओं का वैश्विक स्तर पर कितना बड़ा महत्व है। ये भाषाएं न केवल व्यक्तिगत और सांस्कृतिक पहचान को प्रदर्शित करती हैं, बल्कि व्यावसायिक, शैक्षणिक और राजनैतिक क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

#### भारतीय भाषाओं का भविष्य

भारत एक बहुभाषी देश है जहां सैकड़ों भाषाएं बोली जाती हैं। हिंदी, बंगाली, मराठी, तेलुगु, तमिल, और गुजराती जैसी भाषाएं लाखों लोगों द्वारा बोली जाती हैं। इनमें से कुछ प्रमुख भाषाओं की स्थिति इस प्रकार है:

- **हिंदी (Hindi)** - 615 मिलियन
- **बंगाली (Bengali)** - 265 मिलियन
- **मराठी (Marathi)** - 95 मिलियन
- **तेलुगु (Telugu)** - 93 मिलियन
- **तमिल (Tamil)** - 81 मिलियन
- **गुजराती (Gujarati)** - 61 मिलियन

#### हिंदी भाषा का वैश्विक भविष्य

हिंदी भाषा भारत की सबसे प्रमुख और आधिकारिक भाषा है, और इसे भारत के विभिन्न हिस्सों में व्यापक रूप से बोला और समझा जाता है। हिंदी भाषा का भविष्य न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर भी उज्जवल है। निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से हम इसके भविष्य को समझ सकते हैं:

1. **डिजिटल प्लेटफॉर्म का बढ़ता उपयोग**: हिंदी कंटेंट की मांग ऑनलाइन तेजी से बढ़ रही है। इंटरनेट और सोशल मीडिया के विस्तार ने हिंदी में सामग्री की उपलब्धता को बढ़ावा दिया है, जिससे वैश्विक स्तर पर इसकी पहुंच बढ़ रही है।

2. **आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव**: हिंदी सिनेमा (बॉलीवुड), संगीत, और साहित्य का वैश्विक प्रभाव लगातार बढ़ रहा है। हिंदी फिल्मों और गीतों की लोकप्रियता ने दुनिया भर में हिंदी भाषा के प्रति रुचि को बढ़ावा दिया है।

3. **शिक्षा और अध्ययन**: कई विदेशी विश्वविद्यालय और शैक्षणिक संस्थान हिंदी भाषा और साहित्य के पाठ्यक्रम प्रदान कर रहे हैं, जिससे विदेशी छात्रों में हिंदी सीखने की रुचि बढ़ रही है।

4. **व्यावसायिक संभावनाएं**: भारत एक तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था है, और यहां व्यापार करने के लिए हिंदी का ज्ञान लाभकारी हो सकता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां हिंदी बोलने वाले ग्राहकों और बाजारों तक पहुंच बनाने के लिए हिंदी भाषा का उपयोग कर रही हैं।

#### निष्कर्ष

विश्व की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में भारतीय भाषाओं का महत्वपूर्ण स्थान है। हिंदी भाषा का भविष्य बेहद उज्जवल है, और यह न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। डिजिटल युग में हिंदी भाषा की बढ़ती लोकप्रियता और उपयोग इसे एक मजबूत वैश्विक भाषा के रूप में स्थापित कर सकता है। भारतीय भाषाओं की विविधता और समृद्धि हमारी सांस्कृतिक धरोहर को सशक्त बनाती है, और इनका भविष्य हमारे हाथों में है।

तनाव — बीमारी की दहलीज़





कहते हैं,
तनाव कोई मज़ाक नहीं,
ये हँसते हुए चेहरे के पीछे
धीरे-धीरे शरीर को खोखला कर देता है।

मैंने महसूस किया—
जब मन भारी होता है,
तो बदन भी थकने लगता है,
साँसें बेचैन हो जाती हैं,
नींद रूठ जाती है,
और हर दर्द
जैसे दिल से उठकर हड्डियों तक चला जाता है।

तनाव—
केवल सोच नहीं,
एक चुपचाप आता हुआ रोग है,
जो रक्तचाप से लेकर मधुमेह तक
सब कुछ आमंत्रित कर लेता है।

अब मैं जान चुका हूँ—
अगर मन को न सुलझाया,
तो शरीर भी उलझ जाएगा।
इसलिए मैं
हर उस बात को छोड़ देता हूँ
जो चैन छीनती है।

अब मैं
शांति को पकड़ता हूँ
और तनाव को जाने देता हूँ...
क्योंकि ज़िंदगी
हल्की रहे तो ही अच्छी लगती है।


---



अति व्यस्तता—मानव स्वभाव के विरुद्ध



एक बेहद अनकहा सत्य है यह,
कि इंसान का स्वभाव
कभी इस हद तक व्यस्त होने का नहीं था।
हमारी आत्मा को चाहिए था शांति,
संपर्क प्रकृति से,
और पल-पल जीने का आनंद।

पर आज,
हम भाग रहे हैं—
समय से आगे निकलने की होड़ में,
स्वयं को खोते हुए।
हर क्षण की चिंता,
हर पल का दबाव,
हमें भीतर से तोड़ रहा है।

"शम: परम् सुखं।"
(शांति ही परम सुख है।)

हमारी आत्मा को गति से नहीं,
शांति से तृप्ति मिलती है।
हमारे मन को जटिलता से नहीं,
सरलता से सुकून मिलता है।
पर अब,
हमारी दिनचर्या
हमारे अस्तित्व के विरुद्ध हो गई है।

आधुनिकता ने हमें साधन तो दिए,
पर सुकून छीन लिया।
हर घड़ी बजता हुआ फ़ोन,
हर पल मिलती अधूरी उम्मीदें,
हमें बेचैनी और अवसाद में डुबो रही हैं।

शायद यही समय है रुकने का।
अपने भीतर झांकने का।
क्योंकि इंसान को बनाया गया था
प्रेम, शांति, और सरलता के लिए—
न कि इस अंतहीन व्यस्तता में खो जाने के लिए।


संपन्नता का मूल—स्वयं पर विश्वास



संपन्नता का बीज वहीं पनपता है,
जहां विश्वास की मिट्टी होती है।
स्वयं पर भरोसा,
सबसे पहली सीढ़ी है उस शिखर की,
जहां जीवन अपनी पूर्णता में खिलता है।

अगर तुम अपने आप पर यकीन नहीं करोगे,
तो कोई सपना आकार नहीं लेगा।
हर उपलब्धि, हर समृद्धि,
तुम्हारे भीतर के विश्वास से जन्म लेती है।

"आत्मविश्वासः शक्तिः।"
(आत्मविश्वास ही शक्ति है।)

जब तुम अपने भीतर की शक्ति को पहचानोगे,
तो सृष्टि भी तुम्हारा साथ देगी।
कठिनाइयां, अवसर बन जाएंगी।
अभाव, समृद्धि का द्वार खोल देगा।

तुम्हारी सोच,
तुम्हारी वास्तविकता का निर्माण करती है।
इसलिए अपने भीतर के संदेह को मिटाओ,
और उस विश्वास को जगह दो,
जो तुम्हें हर लक्ष्य तक पहुंचा सके।

संपन्नता बाहरी नहीं,
यह तुम्हारे आत्मा का विस्तार है।
और इसका आरंभ वहीं से होता है,
जहां तुम स्वयं को पूरी तरह अपनाते हो।


सब कुछ शुभ के लिए हो रहा है



डरो मत, जीवन की राहें उलझी हो सकती हैं,
पर हर मोड़ तुम्हारे भले के लिए है।
जो भी हो रहा है,
उसमें छिपा है एक गहरा उद्देश्य,
एक योजना जो तुम्हारी जीत के लिए बनी है।

कठिनाइयों का यह अंधेरा,
सिर्फ उजाले की पहचान करवाने आया है।
हर ठोकर, हर रुकावट,
तुम्हें और मजबूत बनाने के लिए है।

"सर्वं मंगलमंगल्यं, सर्वं श्रेयःकरं भवेत्।"
(सब कुछ मंगलमय है,
और सब कुछ कल्याणकारी ही होगा।)

तुम्हारा संघर्ष व्यर्थ नहीं जाएगा।
यह वह आधार है,
जिस पर तुम्हारी सफलता खड़ी होगी।
और अंत में,
यह सब प्रशंसा में बदलेगा।

तुम्हारे हर आंसू का जवाब,
एक मुस्कान होगी।
तुम्हारी हर हार,
एक जीत में बदल जाएगी।
डरो मत,
जीवन तुम्हारे साथ है,
और अंत हमेशा प्रशंसा से भरा होगा।


असली ताक़त



ना धन है असली शक्ति,
ना ओहदा, ना कोई नाम।
सच्ची ताक़त तो वो है—
जब तू खुद में पूरा हो,
बिना किसी के सहारे।

ना झुकना पड़े,
ना किसी के पीछे भागना पड़े।
ना दिखावा हो,
ना कोई बनावटी मुस्कान।

जब तू ऐसा चले—
जैसे कुछ चाहिए ही नहीं,
फिर भी सब कुछ पा जाए।

तू अपने आप में
इतना पूर्ण हो जाए
कि कोई बाहरी तूफ़ान
तेरे भीतर की नींव हिला न सके।

ना भीख,
ना चाहत,
ना दिखावा।

बस एक मौन आत्म-विश्वास
तेरे क़दमों में हो,
जो कहे—
"मैं वही हूँ जो मुझे होना चाहिए,
और यही मेरी सबसे बड़ी जीत है।"




पूर्णता का सत्य



जो कुछ मैं चाहता हूँ,
वह मेरी ओर बढ़ रहा है,
जैसे सूर्य की किरणें
अंधकार को चीरती हैं।
हर सपना, हर आकांक्षा,
अपने समय पर मेरी होगी।

लेकिन जो आवश्यक है,
वह तो पहले ही मेरे भीतर है।
शांति, साहस, और प्रेम,
ये सब मेरे ही अंश हैं।
मैं पूर्ण हूँ,
जैसे नदी अपने प्रवाह में।

"आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति।"
(अपनी आत्मा की तृप्ति के लिए ही
सब कुछ प्रिय हो जाता है।)

मेरे भीतर शक्ति का स्रोत है,
जो किसी बाहरी परिस्थिति का मोहताज नहीं।
हर आवश्यकता का समाधान,
मेरी आत्मा की गहराई में छिपा है।

इस विश्वास के साथ,
मैं हर दिन बढ़ता हूँ।
जो चाहूँगा, उसे पा लूँगा।
जो पाऊँगा, उसका आदर करूंगा।
क्योंकि जीवन का सबसे बड़ा सत्य यह है—
सब कुछ मेरे भीतर से ही शुरू होता है।


प्यार से बदल नहीं सकते उन्हें



तुम चाहे अपना सारा प्यार लुटा दो,
दिल का हर कोना खोल दो।
पर कुछ लोग,
वफादारी, इज्ज़त, और समर्पण को
कभी समझ नहीं पाते।

प्यार उनकी फितरत नहीं बदलता,
जिनके लिए ये शब्द
सिर्फ दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं।
तुम जितना भी दो,
जितना भी सहो,
अगर वो इन मूल्यों को नहीं मानते,
तो सब व्यर्थ है।

"प्रेम से नहीं बदलेगी वह आत्मा,
जो वफादारी का मूल्य न जाने।
जो इज्ज़त की भाषा न समझे,
उससे समर्पण की आशा क्या?"

तुम जितना झुकोगे,
उतना ही वो तोड़ते रहेंगे।
तुम जितना दोगे,
उतना ही वो लेते रहेंगे।
लेकिन कभी न लौटाएंगे
वो सम्मान,
जो हर रिश्ते का आधार है।

प्यार महान है,
पर वो चमत्कार नहीं करता।
अगर दिल में सच्चाई और मूल्य न हो,
तो कोई भी रिश्ता
सिर्फ बोझ बनकर रह जाता है।

इसलिए याद रखो,
प्यार का मतलब खुद को खोना नहीं,
बल्कि सही व्यक्ति को पाना है।
जो वफादार हो,
जो इज्ज़त देना जानता हो,
और जो तुम्हारे प्यार को
वैसा ही लौटाए, जैसा तुमने दिया।


पंख


बस फिर से उड़ने को तैयार है  पंख
जरा थम से गये थे पंख
जरा जम से गये थे पंख
आ रही है ठंडी ठंडी हवायें
जो की उडा रही है पंख
फिर से मचलने को तैयार है पंख
बस फिर से उड़ने को तैयार है  पंख
 
जरा भावनाओं के अंधेर मे फंस गये थे पंख
जरा मोह के आवेश मे  घस गये थे पंख
आ रही है रूहानी सी  गुनगुनी धुप
जो की सुखा रही है पंख
फिर से सम्भलने को तैयार है पंख
बस फिर से उड़ने को तैयार है  पंख

छोड़ देना ही बेहतर है



अगर तुम किसी ऐसे बंधन में हो,
जहां खुद को खो देना पड़े,
जहां हर कदम डर से भरा हो,
और हर शब्द तौल कर बोलना पड़े,
तो जान लो, यह समय है
उससे बाहर निकलने का।

ऐसे रिश्ते,
जो आत्मा को घुटन में डाल दें,
जहां हर बातचीत
एक नया घाव बन जाए।
वो तुम्हारे लिए नहीं हैं,
और ना किसी के लिए होने चाहिए।

मैंने ऐसे समय में बहुत कुछ सीखा,
पर हर सीख दर्द से भरी थी।
ऐसे अनुभव,
जो गहराई से झकझोरते हैं।
उनसे मजबूत तो बनते हैं,
पर वो चोटें आज भी याद हैं।

किसी को भी ऐसा रिश्ता
कभी नसीब न हो।
न दुश्मन को,
और न किसी अजनबी को।
यह वो चक्र है,
जो आत्मा को थका देता है।

अब जब मैं देखता हूँ पीछे,
तो समझ आता है,
मुझे छोड़ देना था,
बहुत पहले।
अब मैं वादा करता हूँ खुद से,
ऐसे किसी रिश्ते में
कभी वापस नहीं जाऊँगा।

रिश्ता वही जो आज़ाद करे,
जो समझे, सुन सके, और बढ़ने दे।
जहां डर का नामो-निशान न हो,
जहां प्यार अपने असली रूप में हो।
याद रखो,
छोड़ना कमजोरी नहीं,
बल्कि खुद को बचाने की ताकत है।


Eggshell Relationships



मैं उन रिश्तों से दूर रहता हूँ,
जहां हर कदम सोचकर रखना पड़े,
जहां हर शब्द नाप-तौल कर बोलना पड़े।
जहां खुद को व्यक्त करने की आज़ादी न हो,
जहां "मैं" होने की जगह न हो।

जहां सीधा सच बोलना,
एक युद्ध का न्योता बन जाए।
जहां सहजता खो जाती हो,
और हर पल सावधानी का आवरण ओढ़ना पड़े।

जहां प्यार का उत्तर देना,
तूफ़ान बुलाने जैसा हो।
जहां हर वार्ता बच्चों जैसी बन जाए,
और बड़ों की तरह संवाद
के लिए कोई स्थान न हो।

जहां सुना जाना,
केवल एक सपना हो।
और हर भावना,
नकारात्मक मोड़ ले ले।

ऐसे रिश्ते,
जैसे नाजुक अंडे के छिलके,
जिन पर चलना,
हर वक्त खतरा बन जाए।
मैं उन रिश्तों से बेहतर,
खुद को अकेला मानता हूँ।

क्योंकि रिश्ता वो है,
जहां सच्चाई को जगह मिले,
जहां स्वाभाविकता बह सके,
जहां सुनने और समझने का
संतुलन बना रहे।

जहां प्यार का उत्तर,
प्यार से दिया जाए।
जहां दो दिल,
वास्तव में एक हो सकें।
जहां शब्दों से ज्यादा,
समर्पण का संगीत गूंजे।

मैं ऐसे रिश्तों का पक्षधर हूँ,
जो मजबूत हों,
नाजुक नहीं।
जहां कदमों में डर नहीं,
बल्कि आत्मविश्वास हो।


समय और दूरी से परे



संबंध वो नहीं जो समय का मोहताज हो,
और ना ही वो जो दूरी का हिसाब रखे।
यह वो धागा है,
जो आत्माओं को बिना शर्त बांधता है।

जब पहली बार तुम्हारी आंखों में देखा,
समय थम-सा गया।
ना दिन था, ना रात,
बस एक शाश्वत क्षण था,
जो हमारी आत्माओं को जोड़ गया।

"न कालस्य गणना, न दूरी की सीमा,
जहां आत्मा मिले, वहीं सारा जीवन रीमा।"

समय की रेत से गुजरते हुए,
दूरी के पहाड़ लांघते हुए,
हमेशा महसूस हुआ,
तुम्हारा स्पर्श,
जैसे कोई अदृश्य शक्ति,
मुझे संभाल रही हो।

कभी कोई पत्र नहीं,
कभी कोई शब्द नहीं,
फिर भी संवाद गहराई में होता रहा।
जैसे हवा की सिहरन,
जो बिना देखे भी,
पत्तों को छू जाती है।

तुम और मैं,
दो शरीर, पर एक ही अस्तित्व।
दूरी हो या समय,
हमारे बीच कभी दीवार नहीं बन सके।
हमारा बंधन,
वह अनंत धारा है,
जो समय और स्थान से परे है।


पुराने साथी



तुम्हारा दिल और मेरा दिल,
जाने कितने युगों से,
मिलता रहा है, बिछड़ता रहा है,
फिर भी हर बार,
एक दूसरे को पहचान ही लेता है।

शायद पहली बार,
किसी वटवृक्ष की छांव तले,
हमने एक-दूसरे को देखा था।
तुम्हारी आंखों में जो स्नेह था,
वह मेरी आत्मा में गहराई तक उतर गया।

फिर किसी और जीवन में,
हमने साथ बहाई थीं,
किसी शांत नदी की धाराएं।
तुम्हारी हंसी उस समय,
जैसे जलतरंग बजा रही थी।

कभी हम फूलों के साथ खिले,
तो कभी पतझड़ के संग झरे।
पर हर बार,
तुम्हारा और मेरा मिलन,
एक अपरिभाषित संगीत रचता रहा।

"यदृच्छया च मत्स्वप्नेषु हृदयस्पर्शमागतम्।
सदैव पुनर्मे हृदये च प्रतिध्वनिः।"

हर जन्म में,
तुम्हारे हृदय की धड़कन,
मेरे हृदय के लिए परिचित रही।
हम दोनों जैसे,
किसी पुराने ग्रंथ के पन्ने,
जो समय के चक्र में अलग हुए,
पर फिर जुड़ गए।

आज जब तुम्हें देखता हूं,
तो एक गहरी शांति छा जाती है।
जैसे युगों का सफर थम गया हो।
तुम्हारा और मेरा दिल,
सिर्फ दिल नहीं,
दो आत्माओं का अनादि प्रेम है।

तुम्हारे साथ,
हर बार लगता है,
यह आखिरी मिलन नहीं,
बल्कि हर जन्म का पहला।


मैंने छोड़ दिया...





जब जाना
कि तनाव चुपचाप
मेरे भीतर घर बना रहा है,
साँसों की लय बिगाड़ रहा है,
दिल की धड़कनें चुरा रहा है,
तो मैंने सोचा—
अब बहुत हुआ।

मैंने देखा
कैसे एक छोटी सी बात
दिन भर दिमाग में घूमती थी,
कैसे हर बात में
मैं खुद को दोष देता था,
और अपने ही मन के
बोझ तले दबता चला जा रहा था।

फिर एक दिन
मैंने खुद से कहा—
बस!
अब नहीं।

मैंने सीखा
हवा को महसूस करना,
आकाश को देख मुस्कुराना,
और बीते हुए कल को
बस एक कहानी मानकर भूल जाना।

अब मैं
हर बात का भार नहीं उठाता,
जो मेरा नहीं—
उसे मुस्कुराकर लौटा देता हूँ।
कभी-कभी खुद से कह देता हूँ—
"चलो, जाने दो...
सच में, कोई बात नहीं।"

क्योंकि अब मैंने
तनाव को नहीं,
शांति को चुना है।
अब मैं
ज़िन्दगी को हल्का-सा जीता हूँ।



मन का संगीत



तुम्हारी बनाई कला मन का रूप बदलती है,
तुम्हारी ली गई सांसें जीवन को संवारती हैं।
चोटों पर रखे मरहम से नयी राहें निकलती हैं,
सजाई गई नींद से आत्मा मुस्कुराती है।

दया का दीप जलाओ तो अंधेरा मिटता है,
तनाव की गांठ खोलो तो मन हल्का होता है।
दिनचर्या का सुर संगत बनाओ,
आदतों से जीवन का संगीत सजाओ।

जो सोच को नया नजरिया दो, वो प्रकाश फैलाती है,
जो सीमाओं को स्वीकारो, वो बंधनों को तोड़ जाती है।
थोड़ी स्थिरता लाओ, थोड़ी शांति को गले लगाओ,
अपने भीतर की कहानियों से नए सपने जगाओ।

कृतज्ञता के भाव से जीवन महकता है,
धरती से जुड़ाव से जड़ें गहरी बनती हैं।
रिश्तों को संजोने से प्रेम का वृक्ष फलता है,
हर गति, हर ठहराव, जीवन को पूर्ण बनाता है।

प्रकृति की गोद में समय बिताओ,
आराम में खुद को फिर से पाओ।
जो प्रेम बिखेरो, वो दिलों को जोड़ता है,
जो प्रकाश चुनो, वो अंधेरों को तोड़ता है।

हर लम्हा, हर प्रयास,
तुम्हारे मन का संगीत रचता है।


चाँद की रोशनी में



हमारी बातों में वो शोर नहीं,
जो दिल की आवाज़ होती है,
एक सुकून है, एक खामोशी,
जो मोहब्बत की सच्चाई होती है।

चाँद की रोशनी में खो जाते हैं,
हम, तेरे ख्यालों की तरह,
एक राज़ है, एक नज़र है,
जो हमारे बीच बनती जाती है।

हर शाम तेरी याद आती है,
हर सुबह तेरे नाम के साथ,
इस दिल में एक हसरत है,
जो तेरे सिवा कुछ नहीं चाहती।

रात की खामोशी में



रात की खामोशी में,
तारों की चमक के साथ,
हमें मिलता है शांति का एहसास,
जब सारी दुनिया सोती है चुपके से।

चाँद अपने पुराने राज कहता,
पेड़ों से, समुद्रों से, कहानियाँ बयां करता,
रोशनी का नृत्य, हवा की सरसराहट,
प्रकृति की संगीत, सुनहरा और सुकून भरा है।

ऐसे लम्हों में, जब सब कुछ शांत हो जाता,
हम जीवन की अद्भुत चमक को महसूस करते,
क्योंकि खामोशी में ही हम पाते,
महज होने की सुंदरता, साथ में।

2015 की कलम की क्रांति



जब लेखकों ने लौटाए पुरस्कार और विचारधाराएँ आमने-सामने आईं

लेखक: दीपक दोभाल


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"कभी-कभी एक कलम, एक तख्ती और एक चुप्पी इतिहास की सबसे ऊँची आवाज़ बन जाती है।"

2015 का वर्ष भारतीय साहित्य, संस्कृति और राजनीति के लिए एक ऐसा साल बन गया जिसने विचारों की लड़ाई को लेखनी के माध्यम से मुख्यधारा में ला खड़ा किया। यह वह समय था जब देश भर के साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों और कलाकारों ने एक असामान्य कदम उठाया — साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर अपने विरोध को दर्ज करना। परंतु यह विरोध केवल सत्ता या संस्थानों के खिलाफ़ नहीं था, बल्कि एक वैचारिक द्वंद्व की शुरुआत थी, जो आने वाले वर्षों में भारत के सामाजिक विमर्श का केंद्र बन गई।


आक्रोश की शुरुआत: दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की हत्याएँ

इस विरोध की पृष्ठभूमि में कुछ गंभीर घटनाएं थीं — तर्कवादी लेखक और समाज सुधारक डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एम.एम. कलबुर्गी की हत्याएँ। इन हत्याओं ने साहित्यिक और बौद्धिक समुदाय को झकझोर दिया। कलबुर्गी स्वयं एक साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता थे, और उनकी हत्या के बाद साहित्य अकादमी की चुप्पी को कई लेखकों ने अस्वीकार कर दिया।


साहित्यकारों का प्रतिरोध: पुरस्कार वापसी की लहर

सितंबर 2015 में शुरू हुआ यह आंदोलन देखते ही देखते एक राष्ट्रीय विमर्श बन गया। 40 से अधिक साहित्यकारों ने अपने पुरस्कार लौटाकर 'बढ़ती असहिष्णुता' और 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरे' के खिलाफ़ विरोध जताया।
प्रख्यात लेखक उदय प्रकाश सबसे पहले थे, जिनके इस कदम के बाद नयनतारा सहगल, अशोक वाजपेयी, केंसरलाल, मुनव्वर राणा, और कई अन्य नामचीन साहित्यकारों ने भी अपना विरोध दर्ज कराया।

उनका कहना था कि यह केवल पुरस्कार लौटाना नहीं है, बल्कि यह एक नैतिक प्रतिरोध है — उस खामोशी के खिलाफ़ जो सत्ता और संस्थागत ढांचे ने कथित रूप से ओढ़ रखी थी।


विचारधाराओं की टकराहट: असहमति और अस्वीकार का दूसरा पक्ष

जैसे-जैसे पुरस्कार लौटाने की खबरें अखबारों की सुर्खियाँ बनने लगीं, एक समानांतर विचारधारा भी सामने आई।
लेखकों और कलाकारों के इस विरोध को राजनीतिक रंग देने की कोशिशें तेज़ हो गईं।
कई लोगों ने इस आंदोलन को एक पूर्वनियोजित 'लिबरल गठजोड़' कहा, जिसका उद्देश्य केवल एक विशेष सरकार और विचारधारा को बदनाम करना था।

कुछ लेखकों ने सवाल उठाए:
"क्यों दाभोलकर और पानसरे की हत्या पर UPA शासन में यह विरोध नहीं हुआ?"
"क्या पुरस्कार लौटाने की यह मुहिम स्वतःस्फूर्त है या यह एक वैचारिक राजनीति का हिस्सा है?"

लेखक नरेंद्र कोहली, मधु पूर्णिमा किश्वर, और कई अन्य लेखकों ने इस पुरस्कार वापसी को ‘छद्म बौद्धिकता’ और ‘सेलेक्टिव एक्टिविज़्म’ कहा। उनका कहना था कि साहित्य को राजनीति से दूर रहना चाहिए और ऐसी कार्रवाइयाँ साहित्य की विश्वसनीयता को कमज़ोर करती हैं।

सत्ता की प्रतिक्रिया: संवाद या संदेह?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुरुआत में इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रखी, पर जब यह आंदोलन अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी चर्चा का विषय बन गया, तो उन्होंने कहा कि "भारत एक सहिष्णु देश है और रहेगा।"
सरकार के कई मंत्रियों ने इसे एक प्रायोजित आंदोलन करार दिया। वहीं, बीजेपी समर्थकों ने इसे 'बौद्धिक आतंकवाद' जैसा जुमला तक दे डाला।

विचार और विरोध के बीच फंसी साहित्य अकादमी

साहित्य अकादमी एक प्रतिष्ठित सांस्कृतिक संस्था है, जो स्वतंत्र रूप से कार्य करती है। लेकिन इस पूरे प्रकरण में अकादमी पर "केंद्र सरकार के दबाव में चुप्पी साधने" के आरोप लगे।
अंततः साहित्य अकादमी ने कलबुर्गी की हत्या की निंदा की और "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा" का संकल्प दोहराया — लेकिन तब तक बहुत से लेखक पुरस्कार लौटा चुके थे।

यह विरोध क्या था: साहित्य का आत्मसम्मान या राजनीति का हस्तक्षेप?

इस सवाल का जवाब सीधा नहीं है। एक ओर लेखकों की आत्मा में वह पीड़ा थी जो असहिष्णुता, मॉब लिंचिंग, और विचारशील हत्या की घटनाओं से उपजी थी।
वहीं दूसरी ओर, इसका विरोध भी हुआ कि क्या हर असहमति को पुरस्कार लौटाकर दर्ज किया जाना चाहिए?
क्या लेखकों की भूमिका केवल प्रतिरोध करना है या उन्हें समाधान की ओर भी देखना चाहिए?

विचारधाराओं की टकराहट: समर्थन और विरोध

इस आंदोलन को लेकर साहित्यिक समुदाय में दो विचारधाराएँ उभरीं:

1. समर्थनकर्ता: इनका मानना था कि यह आंदोलन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सांस्कृतिक विविधता की रक्षा के लिए आवश्यक था। उन्होंने साहित्य अकादमी की चुप्पी और सरकार की निष्क्रियता पर सवाल उठाए।


2. विरोधकर्ता: कुछ लोगों ने इस आंदोलन को राजनीतिक प्रेरित बताया। उनका कहना था कि यह एक पक्षपाती विरोध है, जो केवल एक विशेष विचारधारा के खिलाफ़ है। उन्होंने इसे 'चुनिंदा आक्रोश' और 'बौद्धिक आतंकवाद' जैसे शब्दों से संबोधित किया।

 साहित्य अकादमी और सरकार की प्रतिक्रिया

साहित्य अकादमी ने प्रारंभ में इस आंदोलन पर कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया नहीं दी, जिससे लेखकों में असंतोष बढ़ा। बाद में, अकादमी ने 23 अक्टूबर और 12 दिसंबर 2015 को विशेष कार्यकारिणी बैठकें आयोजित कीं, जिसमें लेखकों से अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया गया। सरकार की ओर से भी इस आंदोलन को राजनीतिक बताया गया और इसे विकास एजेंडा को पटरी से उतारने की कोशिश करार दिया गया।


लेखक का दृष्टिकोण: मेरी कलम की बात

मैं एक लेखक और कवि होने के नाते, इस आंदोलन को एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक जागरण के रूप में देखता हूँ। यह आंदोलन हमें यह याद दिलाता है कि साहित्य केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं है, बल्कि यह समाज का दर्पण और परिवर्तन का उपकरण भी है। जब समाज में असहिष्णुता बढ़ती है, तो लेखकों की जिम्मेदारी बनती है कि वे अपनी कलम से उसका विरोध करें।


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🖋️ मेरी ओर से एक शायरी

जब शब्दों पर पहरे लगने लगे,

और विचारों की उड़ान थमने लगे,

तब कलम ने विद्रोह किया,

साहित्य ने प्रतिरोध किया।


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निष्कर्ष: 2015 का साहित्यिक विद्रोह – इतिहास में दर्ज़ एक बौद्धिक उबाल

2015 का यह ‘पुरस्कार वापसी आंदोलन’ भारत के बौद्धिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ रहा। इसने यह साफ कर दिया कि लेखक सिर्फ किताबों के शब्द नहीं होते, वे समय की चेतना भी होते हैं।
लेकिन साथ ही यह भी प्रमाणित हुआ कि विचारों की लड़ाई में भी विचारशीलता जरूरी होती है।

किसी भी लोकतंत्र के लिए यह आवश्यक है कि विरोध की आवाज़ें सुनी जाएँ — चाहे वे पुरस्कार लौटाने से उठें या उस वापसी के खिलाफ़ खड़े होने वालों से।

क्योंकि जब कलम दोनों तरफ चलती है, तभी समाज संतुलित रह सकता है।


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