खुद को समझूँ, पर दुनिया का डर संग।
सोचती हूँ, क्या मेरी चाहत सिर्फ़ जिस्म तक?
या मेरे सपनों का भी है कोई हक़?
मैं चाहूँ प्यार, वो गहरा समंदर,
पर डर है, कहीं न बन जाऊँ बंदर।
वो कहते हैं, दे दो, तो बन जाऊँ वस्तु,
रोक लूँ तो बनूँ मैं उनके मन की मस्तु।
मैं भूखी नहीं, मेरी भी है आग,
पर दिखाऊँ कैसे, जब समाज का राग?
रोकूँ तो हावी, बनूँ मैं रानी,
दे दूँ तो डर, कहीं न खो जाए पानी।
मैं भी चाहूँ वो सुख, वो गहरा नशा,
जो पुरुष को लगता, बस उसका बस्ता।
पर मेरा घेरा, बड़ा, गहरा, अनघट,
मेरे भीतर का सच, नहीं बस एक रट।
मैं छुपाऊँ क्यों, जो है मेरा हिस्सा?
मेरी ख़ुशी, मेरी चाहत, मेरा किस्सा।
नहीं बनूँगी ग़ुलाम, न कोई उपकार,
मैं भी हक़दार, प्यार का वो संसार।
तो आ, बराबरी से बाँट लें ये ख़ुशी,
न कोई हावी, न कोई बनाए रूठी।
मैं हूँ औरत, मेरी चाहत भी पवित्र,
प्यार में मिले, न कोई छोटा, न बड़ा घेरा।
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