जन्म का क्षण क्या था?
ना जाति, ना नाम, ना कोई पहचान।
शून्य था वो एक क्षण मात्र,
जहां मौन ही मेरा एकमात्र था धन।
अहम् ब्रह्मास्मि का था वो भाव,
ना कोई समाज, ना कोई जात, ना राग।
सबकुछ अस्तित्व में समाहित था,
मन-मर्यादा से परे, बस आत्मा का स्वरूप था।
जन्म के संग ये दुनियावी भार,
नाम, धर्म, जात, और संस्कार।
कहां से आए ये सीमाएँ इतनी,
क्यों बाँध दिए इस आत्मा को इतने विचार?
सर्वं खल्विदं ब्रह्म - ब्रह्मांड का सत्य यही,
परंतु माया ने घेर रखा हमें, है ये भी सही।
तब खुद से एक सवाल पूछता हूं,
किसके हैं ये बंधन, क्यों ये पहचान हम पर सजी है?
धर्म जो अपनाए हमने जन्म के बाद,
कहां था वो बचपन की उस प्रथम पुकार?
वो पावन क्षण जब मैं था केवल एक श्वास,
ना जाति, ना धर्म, ना कोई विभाजन का दास।
तोड़ दो ये सीमाएं, ये नामों का भ्रम,
जब शाश्वत है आत्मा, तब कैसा गरल, कैसा धर्म?
वो जो आया है धरती पर मुक्त-स्वरूप में,
क्या वो जकड़ सकता है इस मृगतृष्णा के स्वरूप में?
ब्रह्म सत्य है, शाश्वत है, नित्य है हम सब में,
तब क्यों बांधते हैं हम इसे इस पहचान के झमेले में?
तत्त्वमसि - तू वही है, साक्षात् ब्रह्म का हिस्सा,
इस सत्य को जान, पहचान का भ्रम कर विसर्जन।
रख मन में ये गहराई का ज्ञान,
जन्म के क्षण का वही निर्मल ध्यान।
जाति, धर्म, और नाम से मुक्त होकर,
जीवन को देख, जैसे आत्मा का अनंत एक स्वप्न।
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