हर रोज़ मैं मुस्कराता रहा,
किसी और के आँसू छुपाता रहा।
जो टूटा था कहीं अंदर से,
उसे अपनी साँसों से सहलाता रहा।
मैं “मैं” कहाँ था इस भीड़ में?
हर दर्द किसी और की पीठ पर था,
पर भार मेरे कंधों पे रखा गया।
उनका जख्म, मेरा मरहम बन गया।
कितनी बार खुद को समझाया मैंने,
कि शायद वो वक्त से हारे हुए हैं।
पर हर बार मेरी ही आत्मा टूटी,
जब मैं खुद ही खुद में नहीं रहा।
“मैं” भी एक इंसान हूँ,
कोई देवता नहीं,
जो हर बार किसी का अंधेरा
अपनी रौशनी से भर दे।
थक गया हूँ मैं,
उन अधूरे लोगों की थकावट ढोते-ढोते।
जो खुद से रूठे हैं,
पर दूसरों से उम्मीदें जोड़े बैठे हैं।
अब थोड़ी मोहलत चाहता हूँ,
अपने दिल की मरम्मत के लिए।
क्योंकि हर कोई जो टूटा है,
उसे जोड़ना मेरी जिम्मेदारी नहीं।
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