स्वयं की मूल्यांकन – आत्म-सम्मान की सच्चाई



तुम्हारा मूल्य दूसरों की स्वीकृति से नहीं जुड़ा,
तुम जो हो, वही सबसे बड़ा सत्य है, जो तुमने समझा।
यह जो ख़ुश करने की आदत है, यह सिर्फ एक तलाश है,
सच्चे आत्म-सम्मान की, जो भीतर से आनी चाहिए।

तुम जब दूसरों को खुश करते हो, तो क्या खुद को भूल जाते हो?
तुम्हारी असली कीमत तो तुम्हारे भीतर की आवाज़ में है।
कभी यह महसूस करो, तुम जो हो, वह खुद में पर्याप्त है,
तुम्हारी अस्तित्व की चमक किसी से कम नहीं है।

तुम्हारा मूल्य केवल इस बात से नहीं है कि तुम क्या करते हो,
बल्कि इस बात से है कि तुम कौन हो, क्या तुम खुद को जानते हो।
जो तुम कर रहे हो, वह दूसरों की नज़र से नहीं,
अपने दिल की सुनो, वही सबसे महत्वपूर्ण है।

तुम हो जैसे हो, वही पर्याप्त है,
तुम अपनी असली पहचान को न समझने से डरते नहीं हो।
तुम जो हो, वह पहले से ही मूल्यवान है,
तुम महत्वपूर्ण हो, यह समझने का समय है।

तो अब खुद को पहचानो, खुद से प्यार करो,
तुम्हारी आत्मा का प्रकाश कभी फीका न होने दो।
दूसरों की स्वीकृति से नहीं, अपनी आत्मा से जियो,
तुम पूरी तरह से सही हो, जैसे हो, वैसे रहो।


वास्तविक श्रेष्ठ पुरुष की पहचान

एक वास्तविक श्रेष्ठ पुरुष अपनी श्रेष्ठता से अनजान होता है। वह दूसरों से किसी प्रकार की मान्यता या स्वीकृति की अपेक्षा नहीं रखता। उसकी श्रेष्ठता केवल उसकी स्वभाविक स्थिति होती है। यह विचार ओशो द्वारा प्रस्तुत किया गया है, जो मनुष्य की आंतरिक शक्ति और ध्यान की अवस्था को स्पष्ट करता है। 

**ध्यान और जागरूकता का महत्व**  
ध्यान मनुष्य को अपनी आंतरिक स्थिति से जोड़ता है, जहाँ कोई बाहरी पहचान या मान्यता की आवश्यकता नहीं होती। जो व्यक्ति अपने भीतर जागरूक हो जाता है, वह किसी भी प्रकार की अपेक्षा से मुक्त हो जाता है। उसे न तो सम्मान चाहिए और न ही प्रशंसा। उसकी जीवन की दिशा भीतर से संचालित होती है, न कि बाहरी दुनिया के मापदंडों से। यह स्थिति उसे एक विशिष्ट प्रकार की शांति और सहजता प्रदान करती है।

**"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।  
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥"**  
(भगवद गीता 18.78)

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का उल्लेख है, जो ध्यान और कर्म के आदर्श प्रतिनिधि हैं। जहाँ ध्यान है, वहाँ विजय, समृद्धि और शांति स्वतः प्राप्त होती है। यह श्लोक हमें बताता है कि जब व्यक्ति अपने कर्तव्यों में ध्यानस्थ होता है और उसके कार्य केवल स्वभाविक प्रवाह में होते हैं, तब वह जीवन में वास्तविक विजय प्राप्त करता है। 

**मस्तिष्क की अशांति और ध्यान की शक्ति**  
आज के समय में तनाव और चिंताओं ने मनुष्य के मन को इतना जकड़ लिया है कि उसे अपने भीतर की शांति की अनुभूति नहीं होती। ओशो ने कहा है, "जीवन में कहीं कोई तनाव नहीं है, सिवाय मनुष्य के मन में।" यदि हम अपने मन को शांत करने में सफल होते हैं, तो जीवन अपने आप सहज और सरल हो जाता है। यह तनाव केवल मानसिक रचना है, और ध्यान के माध्यम से इसे समाप्त किया जा सकता है।  

**"समत्वं योग उच्यते"**  
(भगवद गीता 2.48)  
यह श्लोक हमें सिखाता है कि समानता की भावना ही योग है। जब हम जीवन के हर पहलू को समान दृष्टिकोण से देखते हैं, तो हम सच्चे योगी बनते हैं। श्रेष्ठ व्यक्ति की यही पहचान होती है – वह सुख-दुःख, जय-पराजय में एक समान रहता है। 

**सहजता और आत्मस्वीकार**  
ओशो का यह विचार कि जीवन को सहजता और पूर्ण विश्रांति के साथ लेना चाहिए, हमें बताता है कि जीवन में संघर्ष केवल हमारे मन के भीतर होता है। जब हम अपनी आंतरिक स्थिति को पहचानते हैं और उस स्थिति में स्थिर हो जाते हैं, तो जीवन में कोई बाहरी तनाव या चिंता नहीं रह जाती। यह स्थिति हमें पूर्ण आत्मस्वीकार और शांति की ओर ले जाती है।

अंततः, वास्तविक श्रेष्ठ पुरुष वही है जो अपने भीतर पूर्णतः जागरूक है और बाहरी दुनिया की अपेक्षाओं से मुक्त है। ध्यान और आत्मनिरीक्षण के माध्यम से हम इस स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं और जीवन को संपूर्ण सहजता के साथ जी सकते हैं।  

**"योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय।  
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥"**  
(भगवद गीता 2.48)

यह श्लोक हमें सिखाता है कि कर्म करते समय ध्यानस्थ रहना और परिणाम की अपेक्षा से मुक्त होना ही सच्ची श्रेष्ठता है।

Unraveling the Complex Situation of Human Desire: Exploring the Interplay of Dreams, Ambition, Efforts, and Madness - Dream series -++++



In the intricate tapestry of human existence, the threads of dreams, ambition, efforts, and madness are intricately woven, creating a rich and complex narrative of the human experience. Each thread represents a facet of our psyche, guiding us through the labyrinth of our desires and aspirations.

Dreams, like whispers from the soul, beckon us towards the realms of possibility and imagination. They ignite the spark of ambition within us, urging us to reach for the stars and manifest our deepest desires into reality. Dreams are the fuel that drives us forward, propelling us through the ups and downs of life with unwavering determination and purpose.

However, ambition alone is not enough to fulfill our dreams. It is the relentless efforts and perseverance that we invest in our pursuits that ultimately determine our success. Like a sculptor shaping marble into a masterpiece, we mold our destinies through the sweat of our brow and the strength of our will.

Yet, amidst the pursuit of our dreams, there often lies the shadow of madness. It is the madness that drives us to push the boundaries of convention, to challenge the status quo, and to dare to be different. While madness may carry negative connotations, it is also the driving force behind innovation, creativity, and groundbreaking discoveries. It is the madness that fuels our passion and ignites the fire within us to pursue our dreams with reckless abandon.

In the canvas of life, creativity serves as the brush with which we paint our aspirations and desires. It is the expression of our innermost thoughts and emotions, transcending the boundaries of language and culture. Creativity allows us to explore the depths of our imagination and bring forth ideas that have the power to change the world.

In the realm of human desire, there exists a delicate balance between passion and restraint, between ambition and contentment. It is through understanding this balance that we can navigate the complexities of our desires and aspirations with grace and wisdom.

As we embark on the journey of self-discovery, let us embrace the beauty of our dreams, the power of our ambition, the resilience of our efforts, and the enchantment of our madness. For it is in the pursuit of these elements that we uncover the true essence of our humanity and the boundless potential that lies within each and every one of us.

दयालुता और सीमाएं" – शक्ति और संतुलन



दयालु होना एक ताकत है, यह तुम्हारी पहचान है,
लेकिन जब खुद को खोकर जीते हो, तो यह बोझ बन जाती है।
कभी समझो, सच्ची दया का मतलब है,
दूसरों को सशक्त करना, खुद को न खोना है।

बहुत अच्छा बनना नहीं, बल्कि समझदारी से जीना है,
सीमाएं तय करना, यह आत्म-सम्मान है।
तुम दूसरों का ख्याल रख सकते हो, बिना खुद को खोए,
अपनी ऊर्जा की रक्षा कर सकते हो, और प्यार भी दे सकते हो।

कभी यह महसूस करो कि तुम्हारी भी कोई जरूरतें हैं,
तुम भी इंसान हो, तुम्हारी खुशियाँ भी मायने रखती हैं।
दयालुता और सीमाओं के बीच का संतुलन,
यह जीवन का सच्चा रास्ता है, जो दिल से निकलता है।

तुम दूसरों से प्यार कर सकते हो, बिना खुद को कम किए,
अपनी प्राथमिकताओं को समझकर, सच्ची शांति पा सकते हो।
यह संतुलन ही तुम्हारी ताकत बनेगा,
तुम्हारी सच्ची दया और प्यार को पूरी तरह से जीने देगा।

आओ, यह समझो, खुद को भी उतना ही प्यार करो,
जितना तुम दूसरों से करते हो।
दयालुता शक्ति है, पर खुद की सीमाएं जानो,
तभी तुम अपने अस्तित्व को पूरी तरह से पहचान पाओ।


वास्तविकता से परे सकारात्मक सोच: ओशो के दृष्टिकोण से

 
  
आमतौर पर हम जीवन में सकारात्मक सोच को एक आदर्श मानते हैं। हर कोई यह सिखाने का प्रयास करता है कि हमें नकारात्मकता से दूर रहकर सकारात्मकता अपनानी चाहिए। परंतु, ओशो के विचार इस परंपरागत दृष्टिकोण से भिन्न हैं। ओशो का मानना है कि सकारात्मक और नकारात्मक सोच दोनों ही जीवन के गहरे अनुभवों को सीमित कर देते हैं। उनका कहना है कि जब तक हम सोच में फंसे रहेंगे, हम जीवन की वास्तविकता से दूर रहेंगे।  

ओशो कहते हैं:  
*"मैं सकारात्मक सोच के बिल्कुल खिलाफ हूं।"*  
उनका तात्पर्य यह है कि सकारात्मकता भी एक प्रकार की मानसिक जकड़न है, जो हमें वास्तविकता से परे ले जाती है। उनके अनुसार, यदि हम किसी भी प्रकार की सोच या पक्षपात से मुक्त होकर सिर्फ 'साक्षीभाव' में रहें, तो हम उस अस्तित्व का अनुभव कर सकते हैं, जो सकारात्मक और नकारात्मक दोनों से परे है।  

**साक्षीभाव का महत्व**  
साक्षीभाव का अर्थ है 'निर्निमेष चेतना' – जिसमें हम बिना किसी निर्णय, सोच या अपेक्षा के सिर्फ उस क्षण का अनुभव करते हैं। ओशो इस स्थिति को 'अस्तित्व' से जोड़ते हैं। उनके अनुसार, सच्चा आनंद, शांति, और जीवन की गहराई तभी अनुभव हो सकती है, जब हम न सकारात्मकता का पक्ष लें और न नकारात्मकता का। यह विचार वैदिक और योगिक दर्शन से भी मेल खाता है।  
  
**संस्कृत श्लोक:**  
*"योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।  
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥"*  
(भगवद गीता 2.48)  
  
अर्थ: योगस्थ होकर कर्म करो, हे धनंजय! आसक्ति को त्यागकर, सफलता और असफलता में समान रहकर। समत्व का भाव ही योग कहलाता है।  

यह श्लोक हमें ओशो के विचारों की पुष्टि करता है कि हमें किसी भी प्रकार की सोच या परिणाम से बंधे बिना सिर्फ वर्तमान क्षण में जीना चाहिए।  

**सकारात्मक सोच की सीमाएँ**  
सकारात्मक सोच हमें अस्थायी सुख की ओर खींच सकती है, लेकिन यह हमारे जीवन के गहरे सवालों के उत्तर नहीं दे सकती। ओशो के अनुसार, सकारात्मकता एक छलावा है, क्योंकि यह हमें 'नकारात्मकता' से बचने का भ्रम देता है, परंतु दोनों ही द्वैत के हिस्से हैं। सच्ची मुक्ति इन दोनों से परे अस्तित्व में स्थित है।  

**अस्तित्व की ओर अग्रसर**  
जब हम किसी सोच या निर्णय से परे होते हैं, तब ही हम वास्तव में 'अस्तित्व' का अनुभव कर सकते हैं। ओशो हमें इसी अवस्था की ओर ले जाते हैं – जहाँ जीवन न तो सकारात्मक होता है, न नकारात्मक, बल्कि केवल होता है।  

इस प्रकार, ओशो का संदेश है कि न सोच से जियो, न सकारात्मकता या नकारात्मकता में उलझो – बस अस्तित्व को अनुभव करो। यही जीवन की सच्ची सुंदरता है।  

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यह लेख ओशो की अद्वितीय दृष्टिकोण पर प्रकाश डालता है और भगवद गीता के श्लोक के साथ उसे जोड़ता है।

सोच को नया रूप दो" – आत्म-सम्मान की ओर कदम



"ना" कहना बुरा नहीं, यह तो ईमानदारी है,
जो तुम चाहते हो, वही कहना सच्चाई है।
तुम्हारी सीमाएं तुम्हारी स्वाभाविकता हैं,
यह कोई अपराध नहीं, यह तुम्हारा हक है।

मतभेद जताना कोई अपमान नहीं,
यह तो तुम्हारे असली रूप को दिखाना है।
दूसरों से अलग राय रखना,
यह तुम्हारी सच्चाई है, इसे न दबाना।

अपनी जरूरतों को पहले रखना कोई स्वार्थ नहीं,
यह खुद से प्यार करने का तरीका है, यह जीवन की सच्चाई है।
कभी अपनी ऊर्जा को बचाना जरूरी होता है,
यह किसी को न दुखाना, बल्कि खुद को सशक्त बनाना होता है।

तुम्हारे "ना" में भी सम्मान है,
तुम्हारे "नहीं" में भी प्यार है।
सीमाएं तुम्हारे अस्तित्व की रक्षा करती हैं,
तुम्हारी खुशी, तुम्हारी शांति को सजग रखती हैं।

जो खुद से प्यार करते हैं, वही दूसरों से सच्चा प्यार कर पाते हैं,
जब तुम खुद को समझोगे, तब ही सच्चे रिश्ते बना पाओगे।
अपने ऊर्जा की रक्षा करना कोई बुरी बात नहीं,
यह तो तुम्हें स्वस्थ और खुशहाल बनाने की शुरुआत है।

अब समय है खुद को अपनाने का,
सोच को नया रूप देने का।
"ना" कहने में भी सौम्यता है,
और खुद से प्यार करने में कोई भी कमी नहीं है।

सीमाएं – खुद को पहचानने का पहला कदम

"

खुद को खोकर जीने का रास्ता थकाने वाला है,
पर अब समय है खुद को फिर से पाना।
हर बार दूसरों के लिए अपना दिल खोल देना,
क्या कभी सोचा, खुद को भी कुछ देना?

सीमाएं क्या होती हैं, कभी समझा है तुमने?
ये कोई दीवार नहीं, बल्कि एक सुरक्षा है अपनी।
"ना" कहने का हक तुम्हारे पास है,
बिना किसी अपराधबोध के, बिना डर के।

कभी यह महसूस करो कि तुम्हारी जरूरतें भी हैं,
दूसरों की इच्छाओं के बीच अपनी पहचान खोना जरूरी नहीं।
तुम्हारी खुशियाँ, तुम्हारा समय, तुम्हारा मन,
यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना दूसरों का कल्याण।

सीमाएं किसी की नफरत नहीं, बल्कि आत्म-सम्मान हैं,
जो तुम्हारे अस्तित्व को संजीवनी देती हैं।
"मैं नहीं कर सकता" यह किसी को नाराज करना नहीं है,
यह खुद से प्यार करने का तरीका है, समझो इसे।

कभी यह भी जानो, यह ठीक है कि सभी तुमसे प्यार न करें,
हर व्यक्ति तुम्हारी परिभाषा नहीं बना सकता।
तुम्हारी कीमत दूसरों के विचारों से नहीं तय होती,
तुम्हारा अस्तित्व खुद में अनमोल है, यह समझो।

सीमाएं स्वार्थी नहीं होतीं, ये तो जीवन की नींव हैं,
जो तुम्हारी शांति, तुम्हारी पहचान को सुरक्षित रखती हैं।
जब तुम सीमाएं तय करते हो,
तब तुम अपने अस्तित्व को सही दिशा में मार्गदर्शित करते हो।

अब समय है खुद से प्यार करने का,
सीमाओं को समझने और उन्हें अपनाने का।
"ना" कहो, बिन घबराए,
और खुद के लिए जीने का हक पाए।


राजनेता और धर्मगुरु: साजिश का अंतहीन चक्र


आज के समाज में, जहाँ हर व्यक्ति अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है, वहीं एक गुप्त साजिश भी चल रही है। यह साजिश है राजनेताओं और धर्मगुरुओं के बीच की। ओशो ने इस साजिश को बड़े ही स्पष्ट शब्दों में उजागर किया है। उनका कहना है:

"ये राजनेता और ये धर्मगुरु लगातार साजिश में हैं, एक-दूसरे के साथ हाथ मिलाकर काम कर रहे हैं... राजनेता धर्मगुरु की रक्षा करता है, धर्मगुरु राजनेता को आशीर्वाद देता है – और जनता का शोषण होता है, उनका खून दोनों द्वारा चूसा जाता है।"

#### राजनेताओं और धर्मगुरुओं का गठजोड़
राजनेता और धर्मगुरु एक-दूसरे के पूरक हैं। राजनेता सत्ता में बने रहने के लिए धर्मगुरुओं का समर्थन प्राप्त करता है, जबकि धर्मगुरु अपने अनुयायियों पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए राजनेता की शक्ति का उपयोग करता है। यह गठजोड़ सदियों से चला आ रहा है और इसका मुख्य उद्देश्य जनता का शोषण करना है।

#### शोषण का तंत्र
इस साजिश का मुख्य तंत्र जनता का शोषण करना है। राजनेता सत्ता में बने रहने के लिए जनता को विभाजित करते हैं और धर्मगुरु धार्मिक भावनाओं का लाभ उठाकर अपनी शक्ति बढ़ाते हैं। दोनों ही जनता को अपने-अपने तरीकों से नियंत्रित करते हैं और उनके संसाधनों का दुरुपयोग करते हैं।

#### संस्कृत श्लोक द्वारा व्याख्या
महाभारत में कहा गया है:

"न तस्य वश्यं कर्तव्यं यो बलात्कृत्यं हिनस्ति यः।
तस्याहं न परित्यागं कर्तुमर्हामि सद्धतः॥"

अर्थात, जो व्यक्ति दूसरों का बलपूर्वक शोषण करता है, उसे कभी भी उचित नहीं माना जा सकता। ऐसे व्यक्ति का त्याग ही उचित है।

#### वर्तमान परिदृश्य
आज भी यह साजिश जारी है। राजनेता और धर्मगुरु दोनों ही अपने-अपने स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हुए हैं। वे जनता को भ्रमित कर अपने हित साधते हैं। जनता के अधिकारों का हनन करते हैं और उन्हें विकास से वंचित रखते हैं।

#### ओशो की दृष्टि
ओशो ने अपने विचारों के माध्यम से हमें इस साजिश को समझने और इससे मुक्त होने का मार्ग दिखाया है। उनका कहना है कि जब तक हम इस साजिश को समझेंगे नहीं, तब तक हम इससे मुक्त नहीं हो सकते। हमें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना होगा और इन साजिशकर्ताओं के चंगुल से बाहर निकलना होगा।

### निष्कर्ष
राजनेताओं और धर्मगुरुओं की इस साजिश का अंत तभी होगा जब जनता जागरूक होगी और अपने अधिकारों के प्रति सजग होगी। हमें अपने समाज को इस शोषण से मुक्त करने के लिए संगठित होकर कार्य करना होगा। केवल तभी हम एक सच्चे और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना कर सकेंगे।

"सत्य की राह पर चलना कठिन है,
पर यही है जीवन का सच्चा अर्थ।"

#### जागरूक बनें, साजिश को समझें और सत्य की राह पर चलें।

बहुत अच्छा बनना" – आत्म-उपेक्षा का बोझ



इतना अच्छा बनना क्या कभी समझाया है,
कभी खुद से सवाल किया है, जो जीते हो?
कभी सोचा है, हर बार खुद को खोकर,
तुम्हारी आत्मा कहां जाती है, क्या वह भी रोती है?

दूसरों को खुश करने की यह आदत,
क्या तुम जानते हो, इसे चुकाना क्या होता है?
दिन-रात देते रहते हो, बिना कुछ लिए,
पर क्या कभी खुद के लिए कुछ किया है, बिना कुछ देखे?

तुम्हारी मुस्कान अब बोझ बन जाती है,
तुम्हारी उदासी को कोई नहीं समझ पाता है।
दूसरों के सुख में खुद को छुपा लेते हो,
पर अपने आंसुओं को छिपाते हो, यह क्या होता है?

"बहुत अच्छा बनना" तुम्हें थका देता है,
दूसरों के लिए अपने ही सपनों को तोड़ देता है।
तुम बिखरते जाते हो, फिर भी चुप रहते हो,
क्योंकि तुम डरते हो, खुद से माफी मांगते हो।

पर यही दया नहीं, यह आत्म-उपेक्षा है,
जो तुम्हारे भीतर के सूरज को बुझा देती है।
जब तुम खुद को भूल जाते हो, रिश्ते खो जाते हैं,
क्योंकि खुद से प्यार किए बिना, क्या किसी को प्यार दे सकते हैं?

आत्म-सम्मान टूटता है, आत्मा चुप होती है,
तुम्हारी उपेक्षा ही तो तुम्हारी हार होती है।
नफ़रत नहीं, यह तो खुद से अनदेखी है,
जो तुम्हें अंत में टूटने पर मजबूर करती है।

अब समय है खुद को ढूंढने का,
अपने भीतर की शक्ति को समझने का।
"बहुत अच्छा बनना" छोड़ो, खुद को गले लगाओ,
अपनी जरूरतों को पहचानो और उन्हें पूरा करने का हौसला बढ़ाओ।

क्योंकि सच्ची दया तब है,
जब तुम खुद से प्यार करते हो।
तुम्हारा अस्तित्व भी मायने रखता है,
और खुद को समझने का वक्त आ गया है।


बहुत अच्छा बनना" – डर की परतें

"

कभी सोचा है क्यों हर बार माफी मांगते हो,
जब तुम्हारा कोई दोष नहीं, फिर भी झुकते हो?
क्यों हर बार सबकी खुशी में खो जाते हो,
अपनी चाहतों को अनदेखा कर देते हो?

यह जो "बहुत अच्छा बनना" है,
क्या यह सच में दया है, या डर का खेल है?
हर बार "सॉरी" कहते हुए, तुम छिपाते हो,
अपने दिल की आवाज़ को दबाते हो।

दूसरों की खुशी को अपना कर्तव्य मानते हो,
लेकिन अपनी खुशियों को किनारे लगा देते हो।
हर पल सोचते हो, "क्या वे खुश हैं?"
पर कभी नहीं पूछते, "क्या मैं खुश हूँ?"

तुम जानते हो, सच बोलने से टकराव होगा,
पर क्या कभी सोचा, सच को दबाने से खुद से टकराव होगा?
यह डर है जो तुम्हें चुप कराता है,
यह डर है जो तुम्हें अपनी पहचान छुपाने पर मजबूर करता है।

"ना" कहने से डरते हो, "हां" में फंस जाते हो,
पर क्या यह सच्ची दया है, या केवल डर का पालन करते हो?
तुम खुद को खोकर दूसरों को समझते हो,
लेकिन क्या कभी खुद से पूछा, "मैं कौन हूँ?"

यह जो "बहुत अच्छा बनना" है,
यह डर की एक परत है, जो तुम्हारे भीतर समाई है।
यह डर नहीं, आत्म-समर्पण है जो चाहिए,
अपने अधिकारों को जानो, और अपने सत्य को जीने का हौसला बढ़ाओ।

अब समय है खुद से सच्चा होने का,
अपने भीतर की आवाज़ को सुनने का।
"बहुत अच्छा बनना" छोड़, खुद को पहचानो,
और अपने सत्य से दुनिया को रौशन करो।


अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...