एक वास्तविक श्रेष्ठ पुरुष अपनी श्रेष्ठता से अनजान होता है। वह दूसरों से किसी प्रकार की मान्यता या स्वीकृति की अपेक्षा नहीं रखता। उसकी श्रेष्ठता केवल उसकी स्वभाविक स्थिति होती है। यह विचार ओशो द्वारा प्रस्तुत किया गया है, जो मनुष्य की आंतरिक शक्ति और ध्यान की अवस्था को स्पष्ट करता है।
**ध्यान और जागरूकता का महत्व**
ध्यान मनुष्य को अपनी आंतरिक स्थिति से जोड़ता है, जहाँ कोई बाहरी पहचान या मान्यता की आवश्यकता नहीं होती। जो व्यक्ति अपने भीतर जागरूक हो जाता है, वह किसी भी प्रकार की अपेक्षा से मुक्त हो जाता है। उसे न तो सम्मान चाहिए और न ही प्रशंसा। उसकी जीवन की दिशा भीतर से संचालित होती है, न कि बाहरी दुनिया के मापदंडों से। यह स्थिति उसे एक विशिष्ट प्रकार की शांति और सहजता प्रदान करती है।
**"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥"**
(भगवद गीता 18.78)
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का उल्लेख है, जो ध्यान और कर्म के आदर्श प्रतिनिधि हैं। जहाँ ध्यान है, वहाँ विजय, समृद्धि और शांति स्वतः प्राप्त होती है। यह श्लोक हमें बताता है कि जब व्यक्ति अपने कर्तव्यों में ध्यानस्थ होता है और उसके कार्य केवल स्वभाविक प्रवाह में होते हैं, तब वह जीवन में वास्तविक विजय प्राप्त करता है।
**मस्तिष्क की अशांति और ध्यान की शक्ति**
आज के समय में तनाव और चिंताओं ने मनुष्य के मन को इतना जकड़ लिया है कि उसे अपने भीतर की शांति की अनुभूति नहीं होती। ओशो ने कहा है, "जीवन में कहीं कोई तनाव नहीं है, सिवाय मनुष्य के मन में।" यदि हम अपने मन को शांत करने में सफल होते हैं, तो जीवन अपने आप सहज और सरल हो जाता है। यह तनाव केवल मानसिक रचना है, और ध्यान के माध्यम से इसे समाप्त किया जा सकता है।
**"समत्वं योग उच्यते"**
(भगवद गीता 2.48)
यह श्लोक हमें सिखाता है कि समानता की भावना ही योग है। जब हम जीवन के हर पहलू को समान दृष्टिकोण से देखते हैं, तो हम सच्चे योगी बनते हैं। श्रेष्ठ व्यक्ति की यही पहचान होती है – वह सुख-दुःख, जय-पराजय में एक समान रहता है।
**सहजता और आत्मस्वीकार**
ओशो का यह विचार कि जीवन को सहजता और पूर्ण विश्रांति के साथ लेना चाहिए, हमें बताता है कि जीवन में संघर्ष केवल हमारे मन के भीतर होता है। जब हम अपनी आंतरिक स्थिति को पहचानते हैं और उस स्थिति में स्थिर हो जाते हैं, तो जीवन में कोई बाहरी तनाव या चिंता नहीं रह जाती। यह स्थिति हमें पूर्ण आत्मस्वीकार और शांति की ओर ले जाती है।
अंततः, वास्तविक श्रेष्ठ पुरुष वही है जो अपने भीतर पूर्णतः जागरूक है और बाहरी दुनिया की अपेक्षाओं से मुक्त है। ध्यान और आत्मनिरीक्षण के माध्यम से हम इस स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं और जीवन को संपूर्ण सहजता के साथ जी सकते हैं।
**"योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥"**
(भगवद गीता 2.48)
यह श्लोक हमें सिखाता है कि कर्म करते समय ध्यानस्थ रहना और परिणाम की अपेक्षा से मुक्त होना ही सच्ची श्रेष्ठता है।