विक्षिप्त से अमरत्व तक


मृत्युभोज के दीपों में जलती हैं स्मृतियाँ,
पराजित प्रेम की राख में खिलते हैं नए स्वप्न।
क्या तू रोता है अपनी खोई मासूमियत पर?
क्या तुझे खबर नहीं कि घाव ही अमरत्व का द्वार हैं?

हर टूटा हुआ स्वप्न एक नया आकार गढ़ता है,
हर बिखरा हुआ भाव एक नया पथ प्रशस्त करता है।
तेरी कोमलता कोई दुर्बलता नहीं,
बल्कि अग्नि में तपता हुआ सोना है।

क्या हुआ जो प्रेम ने तुझे विदीर्ण किया?
क्या हुआ जो तू अब पहले जैसा नहीं रहा?
अब तेरी आत्मा में एक नयी गहराई है,
तेरे मौन में अब एक नयी परिपक्वता है।

तो मत शोक मना अपनी बीती कोमलता का,
उत्सव कर अपनी नयी दृढ़ता का।
क्योंकि प्रेम केवल देने का नाम नहीं,
बल्कि प्रेम स्वयं को फिर से रचने का नाम है।


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