मैंने सोचा था कि मैं हमेशा ऐसा ही था,
मेरी सोच, मेरे डर, मेरी आदतें—
सब कुछ मेरा ही हिस्सा था,
लेकिन फिर, किसी ने मुझे आईना दिखाया।
मेरा हर जवाब, हर प्रतिक्रिया,
जो मैंने अपनी सच्चाई समझी थी,
दरअसल वह एक दबी हुई चीख थी,
एक पुराना ज़ख्म, जिसे मैंने ‘सामान्य’ मान लिया था।
जब किसी ने उन धागों को जोड़ा,
जब उन्होंने दिखाया कि यह सब कहाँ से आया,
तो मैं खुद से ही अनजान हो गया,
जैसे कोई नक्शा था, जो पहली बार साफ़ दिखा।
मेरा हर कदम, मेरा हर फैसला,
मेरी दुनिया को देखने का तरीका—
सब कुछ आघात की छाया में ढल चुका था,
और मैं इसे अपनी असलियत मान बैठा था।
लेकिन अब जब मैं इसे देख सकता हूँ,
अब जब मैं समझ सकता हूँ,
शायद अब मैं खुद को फिर से खोज सकूँ,
शायद अब मैं उस जड़ से मुक्त हो सकूँ।
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