मैं वही हूँ, जो मेरा तन कहे,
ना पतला, ना मोटा, बस जैसे बहे।
हर रेखा, हर छाया मेरी पहचान,
स्वयं से प्रेम हो, यही वरदान।
ना तुलना, ना कोई सीमा यहाँ,
स्वस्थ तन ही सच्चा गहना यहाँ।
खान-पान, सजीवता की शान,
स्वस्थ हृदय में बसे आत्मज्ञान।
आत्म-स्वीकृति है दिव्य द्वार,
जहाँ तन-मन दोनों हों अपार।
मेरा रूप, मेरी शक्ति, मेरी सृष्टि,
इस प्रेम में है मेरी दृष्टि।
तो मैं स्वयं को अपनाऊँ पूर्ण,
हर रूप में मैं अद्वितीय, अनूठा, सम्पूर्ण।
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